Thursday 31 December 2020

मानवता के उत्कर्ष का महाग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता

मानवता के उत्कर्ष का महाग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता (गीता जयंती विशेष) २५ दिसम्बर ,.२०२० डा. संजय कुमार सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, म. प्र. मो.नो. 8989713997,9450819699 Email-drkumarsanjaybhu@gmail.com आज ही के दिन मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने मोह- माया में फंसे हुए अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था। इसी रूप में मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को प्रत्येक वर्ष गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है।इस एकादशी को मोक्षदा एकादशी भी कहा जाता है।ब्रह्मपुराण और पद्मपुराण में भी इस एकादशी को अज्ञान से ज्ञान,अकर्म से कर्म और त्याग में प्रवृत्ति कराने वाला कहा गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व बढ़ जाता है जहां आत्मोन्नति और मानव मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता को उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र के साथ इसके आध्यात्मिक चिंतन के कारण ही रखा जाता है। इस अमरकृति का ऐसा प्रभाव है कि कुरुक्षेत्र भी जो युद्ध क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है वस धर्म क्षेत्र में परिणित हो जाता है। हमारे यहां धर्म को बहुत व्यापक अर्थ में ग्रहण किया गया है। धर्म त्याग और कर्त्तव्य की मूल भावना को जन्म देता है।जो नैतिकता को बट वृक्ष के भांति पकड़े रहे वही धर्म है। यहां धर्म का मूल आशय यही है।जो समाज को धारण करता है जिससे समाज पालित-पोषित होता है तथा जिसके बिना समाज की गति अवरुद्ध हो जाती है वही धर्म है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसी धर्म की स्थापना की गई है जहां प्राणि मात्र के कल्याण के सभी हेतु विद्यमान हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का धर्म सम्पूर्ण प्राणियों को रक्षा और संरक्षण प्रदान करता है तथा अत्याचार,अनाचार,अन्याय,अधर्म, अनीति एवं असद्भाव का उन्मूलन कर सद्भाव में सबको प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करता है। इसका धर्म ब्रह्माण्डमय है जिसमें मनुष्य, पशु,पक्षी, वृक्ष, वनस्पति, नदी, पर्वत,पठार,सबके संरक्षण और संवर्धन की कामना की गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में न किसी पंथ,सम्प्रदाय,मत और हिन्दू, मुस्लिम,सिक्ख ,ईसाई किसी की भी न सराहना की गयी है ,न निन्दा की गयी है अपितु मानव मात्र के कल्याण और उन्नति की ही केवल बात कही गयी है। इस लिए इस अमरकृति की २००० से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके विषय में ख्वाजा दिल मुहम्मद ने लिखा है-"रुहानि गुलों से बना यह गुलदस्ता हजारों वर्ष बीत जाने पर भी दिन दूना और रात चौगुना महकता जा रहा है।यह गुलदस्ता जिसके हाथ में गया उसका जीवन महक उठा। ऐसे गीता रूपी गुलदस्ते को मेरा सलाम है।सात सौ श्लोक रूपी फूलों से सुवासित यह गुलदस्ता करोड़ों लोगों के हाथों में गया फिर भी मुरझाया नहीं।" पाश्चात्य विद्वान विलियम वान हमबोल्ट ने गीता को किसी ज्ञात भाषा में उपस्थित गीतों में सम्भवतः सबसे अधिक सुंदर और एक मात्र दार्शनिक गीत कहा है। इन्हीं सब विशेषताओं के कारण श्रीमद्भगवद्गीता अनेक भाषाविदों को मोहित की। जिससे उर्दू आदि के लोग भी अछुते नहीं रहें। उर्दू और फारसी के विद्वानों ने भी इस ज्ञान गंगा को सहेजने के लिए अपनी भाषाओं में इसका अनुवाद किया। बता दें कि श्रीमद्भगवद्गीता का ८३ अनुवाद तो मात्र उर्दू और फारसी भाषा में किया गया है। जिसमें दारा शिकोह का फारसी अनुवाद और खलीफा अब्दुल हकीम के प्रथम उर्दू अनुवाद से कौन परिचित नहीं है।इन ८३अनुवादों में ८२ अनुवाद तो स्वतन्त्रता पूर्व के हैं जिनमें अरबी फारसी के बहुतायत शब्दों का प्रयोग किया गया है। जिसके कारण उन्हें समझने में बहुत परेशानी होती थी फलस्वरूप मशहूर शायर अनवर जलालपुरी ने १९८५ ईस्वी में गीता का उर्दू में अनुवाद किया।यह अनुवाद अवधक्षेत्र की आम बोलचाल में प्रयुक्त उर्दू के शब्दों द्वारा किया गया है जिससे यह अनुवाद बहुत अल्प समय में ही लोकप्रिय भी हो गया। श्रीमद्भगवद्गीता का अंग्रेजी भाषा भी अनेकों अनुवाद मिलते हैं। जिसमें १७८५ ईस्वी में चार्ल्स विल्किंस ने जो श्रीमद्भगवद्गीता का अंग्रेजी में अनुवाद वह बहुत महत्वपूर्ण है। यह किसी योरोपीय विद्वान द्वारा मूल संस्कृत ग्रंथ का अध्ययन करके किया जाने वाला पहला अंग्रेजी अनुवाद है।इसी अनुवाद के द्वारा पश्चिमी देशों में भारतीय चिन्तन और मनन की श्रेष्ठता का ज्ञान हो सका था। श्रीमद्भगवद्गीता सदैव मनुष्य में उच्च विचार और कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है। उसमें सभी धर्म के मूल भाव समाहित हैं। सभी मानव समान हैं।न कोई बड़ा है न कोई छोटा।न कोई गरीब है और न कोई अमीर। सभी उसके अपने हैं कोई पराया नहीं है। सभी उसके लिए प्रिय हैं। सभी मनुष्य उसी से उत्पन्न हुए हैं-यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।स्वकर्माणां तमभ्यर्च्यसिद्धिं विन्दति।। अर्थात् उसी परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और उसीसे यह समस्त जगत व्याप्त है।उस परमेश्वर की स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। पुनः आगे कहा गया है कि प्राणियों के हृदय में वही ईश्वर सदैव स्थित रहता है-ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया।। अर्थात हे अर्जुन शरीर रूपी यन्त्रों मेंआरूढ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनकेे कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों को हृदय में स्थित रहता है।यह बहुत महत्वपूर्ण बात आज के सन्दर्भ में कही गयी है। मनुष्य की शरीर तो यन्त्र के समान है। यन्त्र आज है कल नहीं रहेगा लेकिन उसमें जो ईश्वरीय तत्व है और जो उसका समानता का भाव है वही शाश्र्वत है।वह एक होते हुए भी सबमें है। इसलिए मानव मानव में भेद कैसा? सभी उसी से उत्पन्न हुए हैं। सभी में वही है।इस लिए सभी एक हैं। किसी में भेद नहीं है ।सब अभेद हैं उस परमात्मा का ही अंश हैं- ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। इस देंह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है।जो पांच इन्द्रियों और मन को आकर्षित करने वाला है। यहां आत्मा और परमात्मा का एकीकरण किया गया है।यह श्रीमद्भगवद्गीता अनेकता में एकता की बात करती है।यह मानव मात्र के कल्याण का विधान करती है। सज्जन लोगों का उद्धार करना ही इसका लक्ष्य है। सम्पूर्ण मानवता को सुदृढ़ बना कर एक स्वस्थ समाज की स्थापना ही इस महाग्रंथ की मूल भूमि है। यहां जाति, संप्रदाय , मित्र,शत्रु के भाव से ऊपर उठकर मानव मात्र के अभ्युदय की कामना की गयी है। इसके विषय में पं.मदन मोहन मालवीय ने कहा है कि "सम्पूर्ण भूमण्डल की प्रचलित भाषाओं में श्रीमद्भगवद्गीता के समान लघु आकार में इतना विपुल ज्ञानपूर्ण कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है।" मैं यहां एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भाषाओं का न कोई धर्म होता है और न जाति। भाषा तो मात्र अभिव्यक्ति की माध्यम होती है। भाषा से ही सम्पूर्ण जगत प्रकाशित है। श्रीमद्भगवद्गीता संस्कृत में लिखी गई है इसलिए वह केवल हिन्दू धर्म ग्रंथ है ऐसा नहीं माना जाना चाहिए। वह सबके लिए है और सब लोग उसके अपने हैं। वह तो सार्वकालिक,सार्ववर्णिक सबमें समानता संस्थापक महाग्रंथ है।

Friday 7 August 2020

संस्कृत केवल भाषा नहीं जीवन दृष्टि है -डॉ संजय कुमार, सहायक आचार्य ,संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र. ,drkumarsanjaybhu@gmail.com Mo.No.8989713997

भारत में प्रत्येक वर्ष स्रावण पूर्णीमा के दिन संस्कृत दिवस मनाया जाता है।जिसका प्रारम्भ सन् 1969 ई.के भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के उस आदेश से प्रारंभ हुआ जिसमें केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश पारित किया गया था।इस निर्देश में स्रावण पूर्णीमा को ही संस्कृत दिवस के रूप में स्वीकार किया गया क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षा सत्र प्रारंभ होता था। गुरुकुल में विद्यार्थी इसी दिन से अध्ययन प्रारंभ करते थे जो पौष मास के पूर्णीमा तक चलता था। फलत:स्रावण मास की पूर्णिमा ही संस्कृत दिवस के लिए उपयुक्त मानी गयी। संस्कृत दिवस या संस्कृत सप्ताह मनाने का उद्देश्य संस्कृत भाषा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के साथ उसे संरक्षण एवं संवर्धन प्रदान करना है।यह इस लिए आवश्यक है क्योंकि संस्कृत भाषा से ही सभी भारतीय भाषाएं उत्पन्न हुई हैं।प्राकृत,पालि, अपभ्रंशादि के साथ अन्य हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती, तेलगु आदि भाषाएं संस्कृत से ही निकली हुई हैं। पाणिनि व्याकरण की सर्वमान्यता के कारण इस देश की समस्त भाषाओं ने संस्कृत के वर्णक्रम को अपनाया है |फलस्वरूप संस्कृत का ब्यापक प्रसार हुआ तो उसने देश की अन्य भाषाओँ को आत्मसात कर प्रभावित किया और अपने शव्द भंडार को समृद्ध किया जिसका परिणाम यह हुआ कि कन्नड़ और तेलगु में लगभग ७० प्रतिशत और तमिल में ६० प्रतिशत शब्दवाली संस्कृत मूल के है | विश्व की अन्य भाषाओं पर भी संस्कृत का प्रभाव देखा जा सकता है। यह संस्कृत ही भारत की मूल भाषा है। इसी से भारत की पहचान और अस्मिता है।वस्तुत: भाषा ही वह तत्त्व है जिसके द्वारा हम अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। भाषा जीवन में उस प्रकाश के समान है जिसके न रहने पर तीनों लोक घोर अन्धकार के समान है। अतः भाषाओं का संरक्षण करना मानव का परम कर्तव्य है। संस्कृत की महत्ता इस बात से भी सिद्ध होती है कि संस्कृत का सम्पूर्ण भारत के विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त दुनिया के 250 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में अध्ययन- अध्यापन होता है।इस तरह संस्कृत में रोजगार का भी बड़ा क्षेत्र है। संस्कृत पढ़कर,अध्यापक, धर्मगुरु,अनुवादक,सम्पादक, आकाशवाणी-दुरदर्शन में संबाददाता तथा प्रशासनिक सेवा में अपना योगदान दें सकते हैं साथ ही शोध के क्षेत्र में भी संस्कृत में बहुत अधिक सम्भावनाएं हैं। वैदिक, पौराणिक तथा शास्त्रीय में जीवन से जुड़ी अत्यधिक सामग्री विद्यमान है जिसे शोध के माध्यम से लोकोपयोगी बनाया जा सकता है। संगणकीय उपयोग के लिए भी संस्कृत भाषा की महत्ता दिनों-दिन बढ़ रही है। पश्चिमी संगणकशास्त्रज्ञ ऐसी भाषा के खोज के में थे जिसका संगणकीय प्रणाली में उपयोग कर उसका संसार की किसी भी भाषा में उसी क्षण रूपांतरण हो जाय उन्हें ऐसी भाषा के रूप में संस्कृत ही मिली। इन्ही सब विषयों को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति में भी संस्कृत को विशेष महत्व दिया गया संस्कृत के महत्ता के सम्बन्ध में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरु ने कहा था –अगर मुझसे पूछा जाय कि भारत का सबसे बड़ा खजाना क्या है और श्रेष्ठतम विरासत क्या है तो असंदिग्ध रूप से यही कहुंगा कि संस्कृत भाषा और साहित्य और जो कुछ उसमें है यह उत्कृष्ट विरासत है और जब तक यह जीवित रहेगी तब तक भारत की मेधा अक्षुण रहेगी | स्व.शुषमा स्वराज ने भी कहा है कि संस्कृत में शब्दों का अपार भंडार है ,रचनाकार अपने व्यक्तित्व के अनुसार उसे चुनता है |जैसे लंका विजय के समय राम और रावण के स्तोत्रों को रामचरितमानस में लिखा गया है लेकिन दोनों अपने स्वभाव के अनुसार शब्द प्रयोग किये है जिससे उनमे पर्याप्त अंतर दिखलाई पड़ता है | संस्कृत के विषय में कहा जाता है किभारत की डी प्रतिष्ठाएं हैं संस्कृत और संस्कृति –भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे |संस्कृतं संस्क्रितिश्च | यह संस्कृत की महत्ता का सर्वकालिक और आधिकारिक बयानहै | भारत का संस्कृत से सम्बन्ध शारीर और आत्मा का है| दोनों एक दूसरे के विना निष्प्राण है| संस्कृत भाषा की ऐसी विशेषता है कि इसमें लिखे या सुनें हुए शब्दों का अर्थ न समझने पर भी उसके चैतन्यता एवं सात्विकता का बोध होने लगता है।इसके शब्द माधूर्य से मन मस्तिष्क पुलकित हो उठता है।भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि निरुक्त इत्यादि संस्कृत ध्वनि विज्ञान की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं| इन सबसे भिन्न संस्कृत की सबसे बड़ी विशेषता उसकी जीवन दृष्टि है।यह थके हारे समाज को एक दृष्टि प्रदान करती है जिसका परिणाम सुखद और निरापद होता है। संस्कृत भारतीय साहित्य व समाज के भव्य विचारों का दर्पण है। यहां जीवन निर्वाह के लिए शास्त्र और साहित्य का मधुर सामंजस्य स्थापित है। भारतीय समाज का मेरुदण्ड गृहस्थ आश्रम को माना जाता है जिसे संस्कृत काव्यों में भली भांति स्वीकार भी किया गया है। संस्कृत ही गार्हस्थ्य धर्म की सांगोपांग व्याख्या करती है। वेद,वेदांग ,उपनिषद ,सांख्य,योग,न्याय ,वैशेषिक , मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शन मूल रूप से संस्कृत में ही विद्यमान हैं। धर्मशास्त्र हमारे जीवन का व्यवहार शास्त्र है वह भी संस्कृत में भी है। अतः इन्हें जानने समझने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत ही समाज के आचरण और व्यवहार को अनुशासित करती है। संस्कृत साहित्य का आद्य महाकाव्य वाल्मिकीय रामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी पर घूमता है। यहां महाराज दशरथ क पितृत्व, कौशल्या का आदर्श मातृत्व, सीता का सतीत्व,भरत और लक्ष्मण का त्याग, सुग्रीव की मित्रता,और सबसे अधिक रामचंद्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गृहस्थ जीवन के चरम सीमा के रूप में वर्णित है।इन सबकी अभिव्यक्तियों से संस्कृत वाड़्मय चमत्कृत हो जाता है। वहीं महाभारत भी धर्म विजय के लिए प्रसिद्ध है। इसी रूप में कालिदास,माघ,भारवि, भवभूति,श्रीहर्ष, के विमल काव्यों से अभिनव एवं शुभ आचरण-व्यवहार की सीख मिलती है। जिसका प्रभाव स्वर्गीय सुखों से मानव मन पर कम नहीं पड़ता है। संस्कृत भाषा व साहित्य के साथ हमें अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र के साथ ही साथ आयुर्वेद, और योग को वरदान स्वरूप प्रदान करती है।आज कोरोना काल में आयुर्वेद और योग ही हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का एक मात्र आश्रय बना हुआ है। राष्ट्रीय भावना, पर्यावरण,विश्वबन्धुत्व की भावना से आज सम्पूर्ण विश्व संस्कृत के ज्ञान गरिमा से प्रभावित है। संस्कृत हमारे लोक जीवन के समीप की भषा है जहाँ वैदिक युग से ही लोकजीवन की सम्बेदना और जीवन दशा का चित्रण मिलता है |कालिदास ,बाणभट्ट ,दण्डी आदि ऐसे कवियों के रचनाओं में हमारे लोक जीवन ली स्पष्ट झलक मिलतीहै |इसलिए संस्कृत को केवल कर्मकांड की भाषा कहना उचित नहीं है |कर्मकांड का संस्कृत में क्षेत्र तो लगभग दो प्रतिशत ही होगा शेष तो शास्त्र ,साहित्य और समाज से भरा पड़ा है | तत्त्वज्ञान और यथार्थ पर आधारित भारतीय दर्शन का मूल स्रोत संस्कृत ही है। जहां आत्मा और व्रह्म का विलक्षण प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता व्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्त्रनाम,अनुगीता, भीष्मवस्तराज, गजेन्द्रमोक्ष जैसे आध्यात्मिक तथा भक्ति परायण ग्रन्थों से भला कौन परिचित नहीं है।जिसके आध्यात्मिक ताना बाना में सम्पूर्ण व्रह्माण्ड समाहित है। संस्कृत को धर्म निरपेक्ष भाषा भी का सकतें है |अकबर के समय में अल्लोपनिषद की रचना की गयी थी |दाराशिकोह और अब्दुर्रहमान खानखाना जैसे मुग़ल सामंतों ने वेड ,उपनिषद और श्रीमद्भागवद्गीता का अनिवाद संस्कृत में कराया |खानखाना तो संस्कृत के अच्छे कवि बजी थे | उन्होंने खेद्कौतुकम जैसे ग्रन्थ का प्रणयन संस्कृत भाषा में किया है |उनका लिखा हुआ गंगाष्टकं तो संस्कृत उत्कृष्ट रत्न है | संस्कृत भाषा को दैवी भाषा कहने का उद्देश्य भी यही है कि इससे दिव्यता प्रकट होती है।यह बुद्धि एवं विचार को शुद्ध रखने वाली भाषा है।यह भेद नहीं अभेद की बात करती है यह केवल शास्त्रीय रूप से ही समृद्ध नहीं है बल्कि मनोरंजनात्मक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पंचतंत्र, हितोपदेश, तथा कथासरित्सागर जैसे कथा ग्रंथ हैं।कादम्बरी और दशकुमारचरित के अनेक पक्ष मानव मन को रंजित करते हैं। यहां अभिज्ञानशाकुन्तल और उत्तररामचरित भी हैं जो थके -हारे मानव के लिए आश्रय स्थल हैं।यह संस्कृत सबके सुख और कल्याण का विधान करती है इसमे कही भी द्वेष, घृणा आदि का भाव नहीं है।इस लिए सम्पूर्ण मानव जाति का यह कर्त्तव्य है कि सभी लोग संस्कृत को अपनाएं और अपने जीवन का नव निर्माण करें।