Tuesday 27 August 2019

पंचतन्त्र के राजधर्म की प्रासंगिकता

पंचतन्त्र के राजधर्म की प्रासंगिकता



      संस्कृत साहित्य विश्वसाहित्य परम्परा की अमूल्य निधि है। यह साहित्यिक मीमांसा के साथ-साथ सांस्कृतिक तत्त्वों के स्वरूप परंपरा का भी उन्नामक साहित्य है। इसमें सांस्कृतिक मूल्यों को केवल संरक्षित ही नहीं किया गया है अपितु उनको शाश्वत धर्म के रूप में स्थापित किया गया है। संस्कृत साहित्य में शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, धर्म-दर्शन, उत्सव-महोत्सव, उपदेश एवं राजधर्म आदि विषयों का समावेश प्राचीन समय से ही मिलता रहा है। जिसमें पंचतन्त्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है। पंचतन्त्र-मित्रभेद, मित्रलाभ, सन्धिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षितकारक इन पांच तन्त्रों से सम्मिलित ग्रन्थ का नाम है। प्रत्येक तन्त्र में मुख्य कथा एक ही है जिसके अंग को पुष्ट करने के लिए विविध गौण कथाएँ कही गयी हंै। लेखक का उद्देश्य आरम्भ से ही सदाचार, नीति और राजधर्म के विविध पक्षों का उद्घाटन करना रहा है। विशेषकर राजधर्म ही पंचतन्त्र का मूल प्रतिपाध विषय है क्योंकि महिलोरोप्य के राजा अमरकीर्ति के पुत्रों को सुशिक्षित करने के लिए पंचतन्त्र की रचना विष्णुशर्मा ने किया था। विष्णुशर्मा के उपदेश शैली का ऐसा प्रभाव राजकुमारों पर पड़ा कि वे बहुत अल्प समय में ही व्यवहार कुशल, सदाचारी और राजधर्म के ज्ञाता बन गये।1

      पंचतन्त्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें पशु-पक्षियों के आधार पर राजकुमारों को उपदेशित किया गया है। पशु-पक्षी सामान्य जनमानस केन्द्रस्थल हैं। इसलिए पंचतन्त्र लोक का प्रतिनिधित्व करता है और लोक सदैव प्रासंगिक ही होता है। वैसे तो सभी साहित्य समाज के दर्पण हैं लेकिन उनमें भी पंचतन्त्र समाज के अधिक समीप है। पंचतन्त्र की कथाए भारतीय परम्परा की समृद्ध धरोहर हैं। यह युगों-युगों से मानव समाज को प्रकाशित कर रहा है। उचित-अनुचित का विवेक उत्पन्न कर पीढ़ी दर पीढ़ी ने आने वाली संतानों के लिए दुर्लभ ज्ञान पेटिका को सौंपने वाला ग्रन्थ पंचतन्त्र है।

      अनादिकाल से ही राष्ट्र के हितैषी-मनीषियों द्वारा राजधर्म का उपदेश दिया जाता रहा है। इसी रूप में पंचतन्त्र भी प्रसिद्ध है। राजव्यवस्था का उचित नियम राजधर्म कहलाता है। राजधर्म को सभी धर्मों का मूल कहा गया है। इसीलिए राजधर्म के लिए दण्डनीति, क्षत्र विद्या, नृपशास्त्र, राजशास्त्र, राजनीति आदि नामों का प्रयोग किया जाता है। इसकी प्रासंगिकता एवं उपादेयता का ज्ञान इसी से हो जाता है कि इसके विषय वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतिग्रन्थ, महाकाव्य, नाटक आदि में प्रतिपादित हैं। यहाँ तक कि आधुनिक संस्कृत काव्य लेखक, रामजी उपाध्याय, सत्यव्रत शास्त्री, अभिराजराजेन्द्र मिश्र, पण्डिता क्षमाराव एवं राधावल्लभ त्रिपाठी आदि भी राजधर्म की महत्त्वशीलता को देखते हुए इसे व्याख्यापित किये हैं। इस प्रकार राजधर्म की समुचित व्याख्या संस्कृत साहित्य में प्राप्त होती है।

      स्मृतियों को धर्म शास्त्र की संज्ञा दी जाती है एवं राजधर्म को धर्मशास्त्र का एक अंग माना जाता है। जिससे विदित होता है कि धर्मशास्त्र सामान्य धर्माचरण से भिन्न राजा के आचरण को भी धर्माचरण मानता है। ठीक ही कहा गया है- धारणाद् धर्ममित्याहु।2 से राजधर्म के समुचित पालन से ही राजा, प्रजा एवं राज्य को धारण करता है। राजा ही राज्य एवं प्रजा दोनों का भाग्य विधाता होता है। राजा के सभी कार्य का परोक्ष या अपरोक्ष रूप से दोनों पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए राजा को प्राण-पण से प्रजा का पालन करना चाहिए। आज इस प्रजातन्त्र के युग में राजा शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। आज वह प्रशासन के रूप में व्यवहृत है। समकालीन समय का अनुशासन जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में है लेकिन कार्यप्रणाली में जनता का योगक्षेम ही मूल है।

      पंचतन्त्र को अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र के समान माना जाता है इसमें वर्णित राजधर्म के विचार भलि-भांति राजनीतिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण करता है। पंचतन्त्र में विष्णुशर्मा की मौलिक कल्पना ही नहीं है बल्कि रामायण, महाभारत, पुराण और धर्मशास्त्र ग्रन्थों के राजधर्म से अनुप्राणित भी है। इसका प्रमाण पंचतन्त्र में मंगलाचरण के रूप में अनेक ऋषियों का नमस्कार हैं।3 यहाँ भी राज्यांग के रूप में प्राचीन परम्परा का अनुसरण करते हुए सात अंगों की बात कही गयी है जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी प्राचीनकाल में रही है। ये सात अंग हैं- स्वाम्यमात्यजनपददुर्ग कोश दण्डमित्राणि प्रकृतयः।4

      अर्थात् स्वामी अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र। आज भी भारतीय शासन व्यवस्था का कार्य नवीन नाम से इसी रूप में संचालित होता है। कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का जो कार्य दर्शाया गया है वह प्राचीन सप्तांग से ही सम्बन्धित है। ‘पंचतन्त्र’ में दक्षिणात्य जनपद के राजा महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के परिचय से ही स्वामी का लक्षण स्पष्ट हो सा रहा है- तत्र सकलार्थिकल्पद्रुमः प्रवरमुकुटमणिमरीचिम´्री चर्चित चरणयुगलः सकलकलापारङ्गतोऽमरशक्तिर्नाम राजा बभूव।5

      अर्थात महिलारोप्य नगर के समस्त याचकों के लिए कल्पवृक्ष के समान, उच्चतम राजाओं की मुकुटमणियों के किरण समूह से पूजित चरणयुगल वाला और समग्र कलाओं का पारदर्शी अमरशक्ति नाम के राजा थे। राजा का कल्पवृक्ष के समान होना और सम्पूर्ण कलाओं को जानने वाला होना अपने आप में राजा का महान् गुण है। कहने का भाव यह है कि राजा प्रजापालक के साथ-साथ शास्त्रों का ज्ञाता रहे। उसे लोक और शास्त्र दोनों का ज्ञान रहे। तभी वह सम्यक् प्रकार से राज्य संचालन कार्य कर सकता है। राजा का वैभव प्रजा ही है। पंचतन्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि सुवर्ण, धान्य, रत्न, विविध प्रकार की सवारियाँ तथा और भी जो कुछ राजा के पास है वह सब उसे प्रजा से ही प्राप्त होता है।6 इसलिए राजा को प्रजापालन में दत्तचित्त होना चाहिए-

फलार्थी नृपतिर्लौकन्पालयेद्यत्नमास्थितः।

दानमानादितोयेन मालाकारोऽङ्कुरानिव।।

लोकानुग्रहकर्तारः प्रवर्धन्ते नरेश्वराः।

लोकानां संक्षयाच्चैव क्षयं यान्ति न संशयः।।7

      अर्थात् फल चाहने वाले राजा को चाहिए कि जैसे माली अंकुरों को सींचता है वैसे ही वह दान-सम्मान आदि रूपी जल से उद्योगपूर्वक प्रजा का पालन करे। प्रजा पर कृपा करने वाले राजाओं की वृद्धि होती है और प्रजा को कष्ट देने वाले राजा निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं। ‘पंचतन्त्र’ की यह पंक्ति प्रजातन्त्र में अक्षरसह सत्य सिद्ध हुई है। जो सरकार प्रजाहित को सर्वोपरि नहीं रखती है उसे प्रजा सत्ता से दखल कर देती है। इसलिए सत्ताधारी को प्रजापालन में तत्पर रहना चाहिए। ‘मनुस्मृति’ में भी कहा गया है-

मोहाद्् राजा स्वराष्ट्रं कर्षयत्यनवेक्षया।

सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज् जीविताच्च सबान्धवः।।8

      अर्थात् जो राजा अज्ञानवश अपने राष्ट्र का देखभाल नहीं करके उसको कष्ट देता है। वह राजा शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट होता है और बन्धु-बान्धवों के साथ जीवन से भी हाथ धो बैठता है।

      राज्य के सात अंगों में राजा के पश्चात् द्वितीय महत्त्वपूर्ण अंग अमात्य का है। शासन की समस्त व्यावहारिकता मन्त्री के संकेत पर ही निर्भर करती है। मंत्री के लिए सचिव, अमात्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार राजत्त्व पद के लिए सहायकों महती आवश्यकता होती है। रथ का केवल एक चक्र गतिमान नहीं हो सकता है। इसलिए राजा को चाहिए कि वह मन्त्रियों का नियुक्त करे और उनके परामर्श को माने।9 ‘पंचतन्त्र’ में मन्त्री के सम्बन्ध में कहा गया है-

अन्तः सारैरकुटिलैरच्छिद्रैः सुपरीक्षितैः।

मन्त्रिभिर्धार्यते राज्यं सुस्तम्भैरिव मन्दिरम्।।10

      अर्थात् जिस प्रकार अच्छे, पुष्ट, सीधे खम्भों के सहारे मन्दिर खड़े रहते हैं उसी प्रकार सावधान, निष्कपट, निर्दोष, ठीक प्रकार से परीक्षित मन्त्रियों द्वारा राज्य धारण किया जाता है। यहाँ पर मन्त्री की विविधता प्रतिपादित है। मन्त्री के कत्र्तव्य को बताते हुए ‘पंचतन्त्र’ में कहा गया है-

अशृण्वन्नपि वोद्धव्यो मन्त्रिभिः पृथिवीपतिः।

यथा स्वदोषनाशाय विदुरेणाम्बिकासुतः।।11

      अर्थात् राजा यदि न सुने तो भी मन्त्री का कत्र्तव्य है कि वह राजा को समझाये। जिस प्रकार अपना दोष दूर करने के लिए विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाया था। विदुर सदैव धृतराष्ट्र के दोषों का विरोध अपना कत्र्तव्य समझकर करते थे। राजा मन्त्री के परामर्श को अस्वीकार करता है तो भी मन्त्री को अपने परामर्श का त्याग नहीं करना चाहिए। इसलिए राजा को योग्य मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए एवं उनके परामर्श को मानना चाहिए।

      राजा सप्ताङ्गों में जनपद तृतीय स्थान पर आता है। जनपद ही वर्तमान समय में राष्ट्र है, राष्ट्र मातृभूमि है। जिसके सम्बन्ध में ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।12 अर्थात् पृथ्वी मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। पुनः वही कहा गया है- यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मत्र्या व्येलवा।13 अर्थात् सम्पूर्ण भूमि के लोग प्रसन्न हो, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो। आचार्य मनु भी अपने ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ में एक सुरक्षित राष्ट्र की कामना करते हुए कहते हैं-

राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत।

सुसंग्रहीत राष्ट्रो हि पार्थिवः सुखमेधते।।14

      अर्थात् राजा राष्ट्र की रक्षा के लिए सदैव उपाय करता रहे। जो राजा अपने राष्ट्र की ठीक प्रकार से रक्षा करता है वही सुखी रहता है। राष्ट्र की अवधारणा अग्निपुराण, याज्ञयवल्क्यस्मृति, कामन्दकीय नीतिसार एवं अर्थशास्त्र आदि में भी प्रतिपादित है। राष्ट्र के सम्बन्ध में ‘अर्थशास्त्र’ में कहा गया है- ‘‘राजा को ग्रामों का मण्डल, प्राचीन ढूहो या नवीन स्थानों पर बनवाना चाहिए। जिसमें अन्य देशों के लिए प्रेरित किये जाये। जहाँ राष्ट्र के अधिक संख्या वाले स्थानों से लोग बुलाकर बसाये जाये।’’15 पंचतन्त्र में राष्ट्र के लिए जनपद शब्द का स्पष्टतः उल्लेख किया गया है-

अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नगरम्।16

      ‘पंचतन्त्र’ में सर्वत्र राज्य रक्षा की बात कही गयी है। अपने राज्य की रक्षा करना ही राजा का प्रथम कत्र्तव्य है। इस विषय में कहा गया है-

स्वस्थानं सुदृढ़ं कृत्वा शूरैश्चातैर्महाबलैः।

पददेशं ततो गच्छेत्प्रणिधित्याप्तमग्रतः।।17

      अर्थात् महाबली और विश्वस्त शूर पुरुषों के द्वारा अपने राज्य की रक्षा का प्रबन्ध करके प्रथम से ही अपने गुप्तचरों से परिपूर्ण शत्रु देश में जाना चाहिए। राज्य बहुत व्यापक शब्द है। इससे केवल भूभाग नहीं सम्बन्धित है बल्कि उस भूभाग पर बसे मानव संसाधन एवं प्राकृतिक संसाधन सब राज्य है। राज्य की सीमा रक्षा के साथ-साथ प्रजापालन इत्यादि भी राजकीय कार्य है। राज्यरक्षा के लिए राजा को शत्रु का मर्दन करना ही धर्म है। ‘पंचतन्त्र’ में कहा गया है-



रिपुरक्तेन संसिक्ता तत्स्त्रीनेत्राम्बुभिस्तथा।

न भूमिर्यस्य भूपस्य का श्लाघा तस्य जीविते।।18

      अर्थात् जिस राज्य की भूमि शत्रुओं के रुधिर और उनकी स्त्रियों के आसुओं से नहीं सींची जाती उस राजा के जीवित रहने में क्या प्रशंसा है। यानि कुछ भी नहीं उसका समाप्त होना ही श्रेष्ठ है। राजा को शत्रु की उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए।

      राजधर्म की व्याख्या में दुर्ग का भी अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन युद्ध परम्परा में दुर्ग को जीतना ही राज्य पर अधिकार समझा जाता था। इसलिए प्रत्येक राज्य की दुर्ग सुरक्षा व्यवस्था उत्तम प्रकार की होती थी। ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ मंे दुर्ग के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-

रम्यं पराव्यमाजीव्यं जाङ्गलं देशमावसेत्।

तत्र दुर्गाणि कुर्वीत जनकोशात्मगुप्तये।।19

      अपने जन, कोश तथा अपने शरीर की रक्षा के लिए राजा को दुर्ग बनाना चाहिए जो रमणीय हो, पशुओं को पालने योग्य हो, साथ-साथ आजीविका का साधन भी हो और जंगल में हो। इसी महत्दृष्टि के कारण ‘पंचतन्त्र’ में भी दुर्ग के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है-

दँष्ट्राविरहितो नागो मदहीनो यथा गजः।

सर्वेषां जायते वश्यो दुर्गहीनस्तथा नृपः।।20

      अर्थात् जिस प्रकार दाढ़ो के बिना सांप और मद से रहित हाथी ये दोनों सबके वश में हो जाते हैं उसी प्रकार दुर्गहीन राजा सबके वश में हो जाता है। दुर्ग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए ‘विष्णुशर्मा’ ने कहा है कि जो कार्य हजारों हाथियों और लाखों घोड़ों से भी सिद्ध नहीं होता है राजाओं का वह कार्य एक दुर्ग से सिद्ध हो जाता है। किले में रहने वाला एक धनुर्धारी भी सैकड़ों पर निशाना लगा सकता है। इसलिए नीतिशास्त्र के ज्ञाता लोग दुर्ग की प्रशंसा करते हैं।21 आज भी दुर्ग राजधानी के रूप में व्यवहृत है।

      विशाल शासन तन्त्र को कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए कोष की महती आवश्यकता होती है। सभी कार्य धन से ही साधित होते हैं। धन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए ‘पंचतन्त्र’ में कहा गया है-

अशनादिन्द्रियाणीवस्युः कार्याण्यखिलान्यपि।

एतस्मात्कारणाद्वितं सर्वसाधनमुच्यते।।22

      अर्थात् जिस प्रकार भोजन करने से समस्त इन्द्रिया सबल होती हैं उसी प्रकार समस्त कार्य धन से ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए धन सर्वसाधन कहलाता है। इस शासन तन्त्र को ठीक प्रकार से संचालित करने के लिए कर व्यवस्था लागू की जाती है। इसी से प्राप्त धन से राज्यव्यवस्था चलती है। ‘मनुस्मृति’ में भी कर व्यवस्था के अनेक नियम इसी उद्देश्य से बताये गये हैं।23 महाकवि कालिदास ने ठीक ही कहा है-

प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो वलिमग्रहीत।

सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रवि।।24

      अर्थात् जैसे सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी का जल सोखता है उसका सहस्रगुना जा वरसता है। वैसे ही राजा दिलीप जो भी प्रजा से कर लेते थे वह सब अपनी प्रजा की भलाई में लगा देते थे। आज भी प्रत्येक देश में कर व्यवस्था का पालन इसी रूप में किया जाता है। लेकिन वह कर कैसा हो इस सम्बन्ध में ‘महाभारत’ में बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्प को बिना पीड़ित किये मधु निकालती है, उसी प्रकार प्रजा का उत्पीड़न किये बिना राजा को कर ग्रहण करना चाहिए।25

      राज्य व्यवस्था का मेरुदण्ड दण्ड व्यवस्था है। दण्ड ही सभी पर शासन करता है। ‘मनुृस्मृति’ में दण्ड को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

दण्डः शस्ति प्रजाः सर्वादण्ड एवाऽभिरक्षति।

दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर् वुधाः।।26

      अर्थात् दण्ड सभी प्रजाओं को कत्र्तव्याकत्र्तव्य का उपदेश देता है, दण्ड ही सभी ओर से रक्षा करता है। लोगों के सोने पर भी दण्ड जागता ही रहता है। विद्वान लोग दण्ड को ही धर्म कहते हैं। इस प्रकार दण्ड का सम्यक् पालन ही राजधर्म है।

      राजधर्म के सप्त अंगों में मित्र सबसे अन्त में आता है लेकिन यह अपने आप में विशेष महत्त्व रखता है। सभी कालखण्डों में राजनीतिक रुप से मित्र देश इत्यादि की महती भूमिका रही है। मित्र के सम्बन्ध में पंचतन्त्र में कहा गया है-

केनामृतमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्

आपदां च परित्राणं शोकसंतापभेषजम्।।27

      अर्थात् विपत्तियों से बचाने का साधन, शोक और मानसिक ताप का औषध अमृत तुल्य ‘मित्र’ ये दो अक्षर किसने बनाया यानि प्रजापति ने बनाया है। मित्र किसे बनाना चाहिए तो इस सम्बन्ध में भी पंचतन्त्रकार निर्देश करते हुए कहते हंै कि धनधान्य से पूर्ण रहते हुए समझदार मनुष्यों को मित्र बनाना चाहिए। देखों जल से परिपूर्ण समुद्र चन्द्रमा के उदय की प्रतिक्षा करता है।28 इन्हीं सप्तांग में राज्य सुख विराजता है। इनका सम्यक प्रकार से पालन ही राजधर्म कहलाता है। इसी के राष्ट्रिय और अन्ताराष्ट्रिय व्यापकता प्रदान करने के लिए षाड्गुण्य का भी गणना राजधर्म के रूप में किया जाता है। ये षड्गुण है- सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव, संश्रय। ‘पंचतन्त्र’ में सन्धि के अनेक नियम बतलाए गये हैं। सामान्यतः अपने से बलशाली राजा से मिलना ही सन्धि है। विष्णुशर्मा कहते हैं-

वैरिणा न हि संदध्यात्सुश्लिष्टेनापि संधिना।

सुतप्तमपि पानीयं शमयत्मेव पावकम्।।29

      अर्थात् अच्छी प्रकार सन्धि करने वाले भी अथवा सन्धि के द्वारा भी शत्रु के साथ मिलन करे। देखो, पानी अत्यन्त गरम होने पर भी अग्नि को बुझा ही देता है। शत्रु पर आक्रमण करना विग्रह है। अभिष्ट सिद्ध न होने पर उसको सिद्ध करने के लिए शत्रु पर आक्रमण करना यान है। अपनी रक्षा तथा शत्रु में फूट डालने की इच्छा से उचित स्थान पर रुके रहना आसन है। द्वैधीभाव दो शत्रुओं के बीच अपने को वाणी से समर्पित करना और मनःस्थिति को समझाना तथा फूट डालने से सम्बन्धित है। पंचतन्त्र में द्वैधीभाव के सम्बन्ध में कहा गया है-

अविश्वासं सदा तिष्ठेत्सन्धिना विग्रहेण च।

द्वैधीभावं समाश्रित्य पापशत्रौ बलीयसि।।30

      अर्थात् दुष्ट शत्रु के बलवान होने पर नीतिज्ञ पुरुष उसका विश्वास न करते हुए द्वैधीभाव के द्वारा यानि कभी सन्धि और कभी युद्ध का अभिनय करें। जब दो बलवान शत्रु आक्रमण के लिए तत्पर हो तो उसे उस समय अधिक बलवान् शत्रु का आश्रय लेना  संश्रय कहलाता है। इन छः गुणों संयुक्त राजा होता है। वही राजा राज्य की व्यवस्था का ठीक प्रकार से संचालित करने में सक्षम माना जाता है। ‘पंचतन्त्र’ में तीर्थ शब्द का नाम आया है। यह तीर्थ शब्द बहुत ही पारिभाषिक शब्द है। यहाँ पर वह राजधर्म का प्रतिनिधित्त्व करता है। राजधर्म में तीर्थ का तात्पर्य राजपुरुष से है। ‘पंचतन्त्र’ में इसके सम्बन्ध में कहा गया है- तीर्थ शब्दे नायुक्तकर्माभिधीयते। तद्यदि तेषां कुत्सितं भवति तत्स्वामिनोऽभिघाताय, यदि प्रधानं भवति तद्वृद्धये स्यादिति।31

      अर्थात् तीर्थ शब्द से राजकार्य में नियुक्त पुरुष अभिप्रेत है। यदि वह तीर्थ शत्रुपक्ष में मिला हुआ विश्वासघाती है तो वे स्वामी के विनाश का कारण होता है और यदि वही श्रेष्ठ हो तो उन्नति का कारण बनता है। इसलिए राज्य को तीर्थों के विषय में जानना आवश्यक है। जिसके सम्बन्ध में कहा गया है-

यस्तीर्थानि निजे पक्षे परपक्षे विशेषतः।

गुप्तैश्चारैर्नृपो वेत्ति न स दुर्गतिमाप्नुयात्।।32

      अर्थात् जो राजा गुप्तचरों द्वारा अपने पक्ष के तथा विशेषकर शत्रु पक्ष के तीर्थों (राजपुरुषों) को जानता है वह दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है। यहाँ पर यह भी बताया गया है कि शत्रु पक्ष में 18 तीर्थ और अपने पक्ष में 15 तीर्थ होते हैं।33 शत्रुपक्ष के तीर्थ हैं- मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, द्वाररक्षक, अन्तःपुररक्षक, प्रशासक, मालगुजारी एकत्र करने वाला, पुरुषों का परिचय कराने वाला, न्यायाध्यक्ष, प्रजा की सूचनाओं अथवा आवेदन पत्र को राजा को बताने वाला (पेशकार), सेना का मुख्य अधिपति, हस्ति विभाग का अध्यक्ष, खजांची, किले का अधिकारी, करपाल, सीमापाल और प्रिय भृत्य। इनको कोई भी राजा अपनी ओर यदि मिला लेता है तो शत्रु राजा शीघ्र ही वश में हो जाता है। पंचतन्त्र में अपने तीर्थ के विषय में भी बताया गया है, ये हैं- राजपत्नी, राजमाता, अन्तपुर में रहने वाला वृद्ध ब्राह्मण, माली, शय्यारक्षक, गुप्तचरों का अध्यक्ष, ज्योतिषी, वैद्य, जल लाने वाला, पानदान ले चलने वाला, आचार्य, अंगरक्षक, राजमहल का रक्षक, छत्रधर, वेश्या। इनकी शत्रुता के द्वारा अपने वर्ग का विनाश हो जाता है। इसलिए पंचतन्त्र में कहा गया है-

वैद्यसांवत्सराचार्याः स्वपक्षेऽधिकृताश्चराः।

तथाऽऽहितुण्डिकोन्मत्ताः सर्व जानन्तिशत्रुषु।।34

      अर्थात् अपने पक्ष में वैद्य, ज्योतिषी और आचार्य को गुप्तचर के कार्य में नियुक्त करना चाहिए। सपेरे और उन्मत्त का वेश धारण करने वाले पुरुष शत्रुओं के सब स्थिति को जानते हंै। शत्रु भेद जानने के लिए गुप्तचर बनाना श्रेयस्कर है। इनके विषय में किसी को सन्देह नहीं होता है। इन गुप्तचरों के कत्र्तव्य के विषय में भी कहा गया है-

कृत्वाकृत्यविदस्तीर्थेष्वन्तः प्रणिधयः पद्म्।

विदाङ्कुर्वन्तु महतस्तलं विद्विषदम्भसः।।35

      अर्थात् जिस प्रकार कार्य चतुर कारीगर लोग घाटो में उतरकर गहरे जल का भी थाह पा लेते हैं इसी तरह कार्य को समझने वाले गुप्तचर मन्त्री आदि 18 तीर्थों में अपना स्थान बनाकर, शत्रु पक्ष के तीर्थ का ज्ञान प्राप्त करें। ‘पंचतन्त्र’ निश्चित रूप से राजधर्म की समुचित व्याख्या करता है। राजधर्म के अनेक पक्षों के विषय में कथा-कहानियों के माध्यम से विष्णुशर्मा ने राजकुमारों को ज्ञान दिये हैं। जिसकी प्रासंगिकता आज भी दृष्टिगोचर होती है। शत्रुओं के प्रति व्यवहार का प्राचीन काल से ही उल्लेख प्राप्त होता है। आज भी सभी देश शत्रु देशों के व्यवहार से प्रताड़ित हैं। इसलिए सभी साहित्य शत्रु के विषय में सदैव वे प्रतिकार की बात करते हैं। यहाँ कहा गया है-

शत्रोर्विक्रममज्ञात्वा वैरमारभते हियः।

स पराभवमाप्नोति समुद्रष्टिट्टिभाद्यथा।।36

      अर्थात् जो अपने शत्रु के पराक्रम को समझकर विरोध करता है वह उसी प्रकार पराजय को प्राप्त होता है जैसे टिट्टिभ से समुद्र। ‘पंचतन्त्र’ में युद्ध का भी वर्णन किया गया है-

सन्दिग्धो विजयो युद्धे जनामामिह युद्धîताम्।

उपायत्रितयादूध्र्वं तस्माद्युद्धं समाचरेत।।36

      अर्थात् इस संसार में युद्ध करने वाले पुरुषों का विजय युद्ध में अनिश्चित होता है। इसलिए साम, दाम, भेद नामक तीनों उपायों के अनन्तर युद्ध करना चाहिए। युद्ध अन्तिम विकल्प है। युद्ध से सदैव बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि युद्ध से जन-धन की अत्यधिक हानि ही होती है। इसीलिए आचार्यों द्वारा युद्ध को तब तक टालने का प्रयास करना चाहिए जब तक सभी उपाय समाप्त न हो जाय। लेकिन यहाँ पर युद्ध से लाभ के विषय में भी कहा गया है-



भूमिर्मित्रं हिरण्यं वा विग्रहस्य फलत्रयम्।

नास्त्येकमपि यद्येषां विग्रहं न समाचरेत।।38

      अर्थात् राज्य, मित्र और धन ये तीन युद्ध के लाभ है। यदि इनमें से एक भी न हो, एक के भी प्राप्त होने की आशा न हो, तो युद्ध न करें। राज्य, मित्र और धन किसी भी राज्य के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं इसलिए यदि इनकी प्राप्ति की सम्भावना हो तभी युद्ध के लिए प्रवृत्त होना चाहिए, अनावश्यक युद्ध से बचना चाहिए। आजकल अनेक देशों में निरर्थक रूप से तनाव उत्पन्न कर दिया जाता है जो उचित नहीं है।

      इस प्रकार हम देखते हैं कि पंचतन्त्र में राजधर्म का व्यापक वर्णन किया गया है। जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी तत्कालीन समय में थी। यहाँ पर प्रतिपादित राजा, मन्त्री, राज्य, कोश, दुर्ग, दण्ड और मित्र के साथ-साथ सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीयाव, संश्रय तथा साम, दाम, दण्ड, भेद आदि बहुत ही प्रासंगिक है। पंचतन्त्र में तीर्थ का भी वर्णन आया है जो राजपुरुष से सम्बन्धित है। यह तीर्थ राजव्यवस्था का रीढ़ है। जिसे अनिवार्य रूप से समझना चाहिए। शत्रु से सदैव प्रतिकार लेने का परामर्श पंचतन्त्र देता है लेकिन युद्ध तभी श्रेयस्कर मानता है जब युद्ध से लाभ निश्चित हो। पंचतन्त्र के राजधर्म की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि आज भी यह किसी न किसी रूप में प्रासंगिक बना ही रहता है। इसलिए हम कह सकते हैं  कि पंचतन्त्र का राजधर्म प्रासंगिक और महत्त्वशील है।  



सन्दर्भ

1.        पंचतन्त्र, कथामुखम्, श्लोक 9 के अनन्तर

2.        महाभारतं, 12/110/11

3.        पंचतन्त्र, कथामुखम्, 2- मनवे वाचस्पतये शुक्राय पराशराय ससुताय।

                     चाणक्याय च विदुषे नमोऽस्तु नयशास्त्र कर्तृभ्यः।

4.        अर्थशास्त्र, 6/1

5.        पंचतन्त्र, कथामुखम्, श्लोक 3 के अनन्तर,

6.        वही, मित्रभेद, 247

7.        वही, मित्रभेद, 243, 248

8.        मनुस्मृति, 7/11

9.        अर्थशास्त्र, 1/7

10.      पंचतन्त्र, मित्रभेद, 137

11.      वही, मित्रभेद, 171

12.      अथर्ववेद, 12/1/12

13.      वही,

14.      मनुस्मृति, 7/113

15.      अर्थशास्त्र, 2/1

16.      पंचतन्त्र, कथामुखम्, श्लोक 3 के अनन्तर

17.      वही, काकोलूकीयम्, 39

18.      वही, 34

19.      याज्ञवल्क्यस्मृति, 1/321

20.      पंचतन्त्र, मित्रभेद, 255

21.      वही, 251-252

22.      वही, 8

23.      मनुस्मृति, 7/127-133

24.      रघुवंश, 1/18

25.      महाभारत, उद्योगपर्व, 34/17-18

26.      मनुस्मृति, 7/18

27.      पंचतन्त्र, मित्रसम्प्राप्ति, 61

28.      वही, 28

29.      वही, 31

30.      वही, काकोलूकीयम्, 61

31.      वही, 68 के अनन्तर गद्यांश

32.      वही, 67

33.      वही, 68

34.      वही, 69

35.      वही, 70

36.      वही, मित्रभेद, 337

37.      वही, काकोलूकीयम्, 12

38.      वही, 15

Sunday 18 August 2019

नाट्यशास्त्रीय परम्परा और अग्निपुराण

नाट्यशास्त्रीय परम्परा और अग्निपुराण



      संस्कृत शास्त्र परम्परा में नाट्यशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नाट्य का नाम सुनते ही हमारे अन्दर दृश्य भाव प्रकट होने लगता है और अपने स्वाभाविक अनुशासन को प्राप्त कर वह नाट्य रूप में परिणित हो जाता है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार नाट्यशास्त्र नट् (नमनार्थक) धातु से निष्पन्न है जहाँ पात्र अपने स्वभाव का त्याग कर पर भाव ग्रहण करे तो वह नाट्य रूप हो जाता है। वैयाकरण पाणिनि अष्टाध्यायी में लिखते हैं- ‘‘नटानां धर्म आश्रयो वा नाट्यम्’’1 नटों के धर्म या चेष्टाओं के अतिरिक्त उनके सम्पाद्य कर्म का प्रतिपादक नाट्य है। आचार्य भरत नाट्य की व्यापक चर्चा अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में करते हैं तथा उस वाक्यार्थ को अभिनय द्वारा अभिव्यक्ति करते हुए सहृदय के चित्त में रसोत्पत्ति का आधायक तत्त्व मानते हैं। इस प्रकार नाट्य रसाश्रय हो जाता है। इसका लक्षण देते हुए आचार्य भरत कहते हैं- ‘‘त्रैलोकस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानुकीर्तनम्’’2

      अर्थात् नाट्य इस सम्पूर्ण त्रैलोक के भावों का अनुकीर्तन है। इसी अर्थ में ‘आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी’ भी काव्य लक्षण देते हुए लिखते हैं- लोकानुकीर्तनम् काव्यम्3 कहने का भाव यह है कि सम्पूर्ण लोक के सुख-दुःख, लाभ-हानि, राग-द्वेष इत्यादि विषयों का चित्रण ही नाट्य है। यह चित्रण वस्तु चित्रण नहीं बल्कि रसयुक्त हुआ करता है। उसके सुखात्मक और दुःखात्मक सभी चित्रण आनन्ददायक ही हुआ करते हैं। यही नाट्य की विलक्षणता है। जब हम ‘उत्तररामचरित’ नाटक में सीता के वियोग में रामचन्द्र को रोते हुए देखते हैं तो वहाँ ‘‘अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्’’4 अर्थात पत्थरों को भी रोते हुए पाते हैं। तब भी उस करूण रस में आनन्द की अनुभूति होती है। नाट्य और लोक में यही अन्तर है कि नाट्य में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द होता है लेकिन लोक में जहाँ शोक की स्थिति है वहाँ हम आनन्द की कथमपि कल्पना नहीं कर सकते हैं।

      नाट्य साहित्य की एक अनुपम विधा है। कहा जाता है कि कोई भी विधा बिना अनुशासन की स्थायी नहीं बन पाती है। अतः नाट्य विधा को स्थिरता प्रदान करने के निमित्त हमारे आचार्यों द्वारा नाट्यशास्त्र की एक वृहद् परम्परा प्राप्त होती है। इस परम्परा में आचार्य भरत प्रणीत ‘नाट्यशास्त्र’ का महनीय स्थान है। लेकिन आचार्य भरत से पूर्व में भी ‘नाट्यशास्त्रीय’ ग्रन्थ विद्यमान थे जिनका उल्लेख करना उचित ही होगा। ‘नाट्यशास्त्र’ के आदिकर्ता स्वयभ्यू ब्रह्म कहे जाते हैं। शारदातनय ने उन्हें नन्दिकेश्वर का शिष्य बतलाया है। शारदातनय के अनुसार नाट्यवेद के आविस्कर्ता शिव हैं ब्रह्म नहीं, शिव ने नाट्य का सृजन कर तण्ड (नन्दिकेश्वर) को शिक्षा दी थी।5 ‘नाट्यशास्त्र’ और ‘अभिनयदर्पण’ के अनुसार भगवती पार्वती ने लास्य का आविष्कार किया था। लास्य का नाट्य विधा से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। नन्दिकेश्वर ने अपने भरतार्णव नाट्यग्रन्थ में पार्वती के ग्रन्थ का नाम ‘भरतार्थचन्द्रिका’ बतलाया है।6 नाट्यशास्त्रीय आचार्यों के रूप में वैदिक ऋषि याज्ञवल्क्य का भी नाम आता है। उनके ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ में बताया गया है कि सामगीतों के गायन के साथ भद्रक, अपरान्तक, प्रकरी, सरोबिन्दु, आवेणक, उल्लोप्यक और उत्तर नामक सात प्रकार के गीतों का उल्लेख किया है। महर्षि याज्ञवल्क्य जीव आत्मा को नट की उपमा से समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार नट अनेक रूपों को बनाने के लिए रंगों आदि नाना प्रकार के वेष धारण करता है उसी प्रकार यह जीवात्मा भी तत्तत कर्मों के द्वारा नाना प्रकार के शरीर को धारण करता है।7 आचार्य नन्दिकेश्वर ने अपने भरतार्णव में आचार्य वृहस्पति का उल्लेख करते हुए उनके सत्ताईस हस्त विनियोगों का वर्णन किया है।8 महर्षि नारद ब्रह्मा के शिष्य एवं गान्धर्व के प्रतिपादक आचार्य थे,9 ब्रह्मा ने नाट्यवेद की रचना कर नारद को नाट्य प्रयोग के लिए नियुक्त किया था। ‘महाभारत’ में नारद को गन्धर्ववेद का प्रवर्तक कहा गया है।10 नाट्यशास्त्रीय आचार्यों में तुम्बुरू का भी नाम आता है जो नारद के समकालीन माने जाते हैं। ‘वाल्मीकिरामायण’ में तुम्बुरू का उल्लेख अप्सराओं के गान शिक्षक के रूप में आया है।11 स्वाति को ब्रह्मा ने नाट्य प्रयोग में वाद्य वादन के लिए नियुक्त किया था। वे संगीतशास्त्र के एक प्रामाणिक आचार्य माने जाते हैं। ‘अग्निपुराण’ में काश्यप को छन्द शास्त्रकार के रूप में उल्लेख किया गया है12 तथा आचार्य दण्डी के काव्यादर्श के ‘हृदयङ्गमा टीका’ में काश्यप को अलंकारशास्त्र का प्रणेता माना गया है13 नाट्यशास्त्र में वासुकि अथवा महानाग का उल्लेख देवताओं के साथ हुआ है। शारदातनय अपने ‘भावप्रकाशन’ में रसोत्पत्ति के प्रसंग में वासुकि के मत का उल्लेख किया है।14 वादरायण के रूप में उल्लेख नाट्याचार्य का रूप है नाट्यशास्त्र में उल्लेख मिलता है। नाट्यशास्त्र में भरत पुत्रों की सूची में वादरायण का नाम दिया गया है।15 नाट्यशास्त्र के अन्तिम अध्याय में कोहल के साथ वात्स्य, शान्डिल्य एवं धूत्र्तिल का नाम आया है।16 ये नाम अन्य आचार्य व भरत आदि के ग्रन्थों में किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं इससे विदित होता है कि आचार्य भरत के पीछे नाट्य शास्त्र की एक वृहद परम्परा थी जिसके दृढ़ आधारशिला पर पैर रखकर भरत चले ही नहीं अपितु नाट्यशास्त्र की प्राचीन थाती को सहेजा और उसके प्रयोगधर्मिता को विकसित किया।

      इसी क्रम में अग्निपुराण का भी नाम आता है। यहाँ नाटक, पूर्वरङ्ग, वस्तुविधान, पात्र, अभिनय, वृत्ति एवं रस आदि विषयों पर बहुत ही सम्यक् विचार किया गया है। यहाँ सत्ताइस प्रकार के नाटकों का उल्लेख मिलता है-

नाटकं सप्रकरणं डिन इहामृगोऽपि वा।
ज्ञेयः समवकारश्च भवेत्प्रहसनं तथा।।
व्यायोग भाणवीथ्यंक त्रोटकान्यथ नाटिका।
सट्टकं शिल्पकः कर्णाएको दुर्मल्लिका तथा।
प्रस्थानं भाणिका भाणीं गोष्ठी हल्लीशकानि च।
काव्यं श्रीगदिनं नाट्यरासकं रासकं तथा।
उल्लाप्यकं प्रेङक्षणं च सप्तविंशतिधैव तत्।।17

      अर्थात यह दृश्य काव्य सत्ताईस प्रकार का होता है- नाटक, प्रकरण, डिम, इहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, कर्ण, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य श्रीगदित, नाट्यारासक, उल्लायक प्रेक्षण। नाट्यशास्त्र में केवल दश प्रकार के रूपकों को ही बतलाया गया है। जबकि ‘साहित्यदर्पण’ में दश प्रकार के रूपक और अट्ठारह प्रकार के उपरूपकों की चर्चा की गयी है।18 अतः अग्निपुराण के रूपक का सत्ताईस भेद अपने आप में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहां नाटक का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है-

त्रिवर्गसाधनं नाट्यमित्याहुः कारण च यत्।19

      अर्थात् नाटक त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम की प्राप्ति) का मूल साधन है। तात्पर्य यह है कि नाटक से धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। यहां मोक्ष को सम्मिलित नहीं किया गया है। इसका कारण यह है कि शान्तरस को नाटक में स्वीकार नहीं किया जाता है। आचार्य धनंजय भी तीन ही नाट्य का प्रयोजन माने हैं।20 अग्निपुराण में पूर्वरङ्ग विधान पर भी विस्तृत चर्चा मिलती है। वहां कहा गया है-

इतिकर्तव्यता तस्य पूर्वरङ्गो यथाविधि

नान्दीमुख्यानि द्वात्रिशंङ्ानि पूर्वरङ्गके।।

देवतानां नमस्कारो गुरूणामपि च स्तुतिः।

ग्रोब्राह्मणनृपादिनामाशीर्वादादि गीयते।।21

      अर्थात् पूर्वरङ्ग में विधिपूर्वक नान्दी आदि वत्तीस अङ्गों का निर्वाह करना चाहिए। इस स्थल पर देवताओं को नमस्कार, गुरूजनों की प्रशंसा, गौ, ब्राह्मण और राजा के आशीष का गायन किया जाता है। पूर्वरङ्ग के रूप में जिन वत्तीस अङ्गों का उल्लेख किया गया है उसमें पांच प्रकार की नान्दी, पांच निर्देश, तीन आमुख, दो प्रकार के इतिवृत्त, पांच अर्थप्रकृतियाँ, पांच चेष्टाएं, पांच सन्ध्यिा और देश काल का संकलन है। इस प्रकार अग्निपुराण में समस्त वस्तु तत्व की भी विधिवत व्याख्या मिलती है। यहां इतिवृत्र के दो भेद बतलाए गये हैं-

सिद्धमुत्प्रेक्षितं चेति तस्य भेदावुभौ स्मृतौ।

सिद्धमागमदृष्टं च सृष्टमुत्प्रेक्षितं कवेः।।22

      अर्थात इतिवृत्त के दो भेद हैं- सिद्ध और उत्प्रेक्षित। आगम शास्त्र से प्राप्त कथानक सिद्ध कहलाता है और कवि कल्पना प्रसूत उत्प्रेक्षित कहा जाता है। नाट्य पात्रों के रूप में भी अग्निपुराण में वर्णन प्राप्त होता है। यहाँ नायक के सम्बन्ध में बताया गया है-

आलम्बनविभावोऽसौ नायकादिभवस्तथा।

धीरोदात्तो धीरोद्धतः स्याद्वीरललितस्तथा।।

धीरप्रशान्त इत्येवं चतुर्धा नायकः स्मृतः।

अनुकूलो दक्षिणश्चशठो धृष्टः प्रवर्तितः।।23

      अर्थात् यह आलम्वन वियाव नायकादि में ही होता है अथवा नायकादि को आलम्वन विभाव कहते है। धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त ये चार प्रकार के नायक होते हैं। प्रत्येक भेद के अनुकूल, दाक्षिण, शठ और धृष्ट ये चार नायक के उपभेद हैं। इसके साथ ही पीठमर्द, विट और विदूषक इत्यादि पात्रों के भी विषय में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

      नाट्य अभिनय में स्त्री पात्रों की महती भूमिका होती है। एतदर्थ अग्निपुराण में कौशिक का मत उल्लेख करते हुए तीन प्रकार की नायिकाओं का निर्देश किया गया है-

स्वकीया परकीया च पुनर्भूरिति कौशिकाः।

सामान्य न पुनर्भूरि इत्याद्या बहुभेदतः।।24

      अर्थात् कौशिक के मत में नायिकाएं तीन प्रकार की होती हैं- स्वकीया, परकीया और पुनर्भू। कई विद्वानों के विचार में सामान्य नायिका होती हैं, पुनर्भू नहीं होती है। इस प्रकार नायिका के अनेक भेद हो जाते हैं। इस प्रकार पात्रों के संदर्भ में भी आवश्यकतानुसार यहाँ चिन्तन किया गया है। नाट्य सदैव अभिनय के लिए ही जाना जाता है। आचार्य भरत से लेकर आधुनिक आचार्यों तक नाट्य के मूल धर्म के रूप में अभिनय को स्वीकार किया गया है। ‘अग्निपुराण’ में अभिनय के सम्बन्ध में कहा गया है-

अभिमुख्यं नयन्नर्थान्विज्ञेयोऽभिनयो बुधैः।

चतुर्धा संभवः सत्त्ववागङ्गहरणाश्रयः।।25

      अर्थात नाटक की वण्र्य-वस्तु को दर्शकों के समक्ष लाने वाला अभिनय ही होता है। वह अभिनय चार प्रकार का होता है- सत्त्वाश्रय, वागाश्रय, अंगाश्रय और आहरणाश्रय। जहाँ सुख-दुःख मनोभावों का अभिव्यंजन होता है उसे सत्त्वाश्रय अभिनय कहा जाता है। वाणी के द्वारा काव्य एवं सम्वादादि का अभिनय वाणाश्रय या वाचिक अभिनय कहलाता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के अंगों का प्रदर्शन किया जाता है उसे अंगाश्रय या आङ्गिक अभिनय कहते हैं तथा वेश-भूषा आदि नेपथ्य-विधान से सम्बन्धित अभिनय आहरणाश्रय या आहार्य अभिनय कहलाता है। नाट्य प्रयोग की दृष्टि से वृत्तियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। नायक के व्यापार को वृत्ति कहते हैं। ‘अग्निपुरण’ में वृत्तियों के संबंध में कहा गया है-

क्रियास्वविषमा वृत्तिभारत्यारभटी तथा।

कौशिकी सात्त्वती चेति सा चतुर्धा प्रतिष्ठिता।।26

      अर्थात् क्रियाओं (नायकादि के कार्यों) में नियमपूर्वक व्यवहार को वृत्ति कहते हैं। इसके भारती आरभटी कौशिकी (कौशिकी) और सात्त्वती ये चार भेद हैं। ये वृत्तियाँ पात्रनिष्ठ होती हैं, पात्रों के क्रिया-कलाप का नियमपूर्वक व्यावहार वृत्ति कहलाती है। यह एक ऐसा अभिनय व्यापार है जिसका कर्ता स्वहित की साधना से सम्बन्धित नहीं होता है अपितु सामाजिक का रसास्वादन ही इसका मूलोद्देश्य हुआ करता है। वृत्ति इत्यादि के अतिरिक्त यहां गुण और अलंकार के विषय में भी विस्तार पूर्वक विमर्श किया गया है। गुण के विषय में अग्निपुरण में कहा गया है-

अलंकृतमपि प्रीत्यै न काव्यं निर्गुणं भवेत।

वपुष्यललिते स्त्रीणां हारो भारायते परम्।।27

      अर्थात जिस प्रकार असुन्दर शरीर वाली नारियों के लिए रत्नाहार भार बन जाता है उसी प्रकार माधुर्यादि गुणों से रहित काव्य अलंकृत होने पर भी आह्लादक नहीं होता है। यहां श्लेष आदि दश गुण माने गये हैं। अलंकारों के रूप में भी यहां शब्दालंकार28, अर्थालङ्कार29 और शब्दार्थालकार30 की चर्चा की गयी है। अग्निपुराण में रस का बहुत ही सम्यक् विवेचन किया गया है। रस ही नाट्य (काव्य) प्राण होता है। रसौ वै सः31 इस वैदिक श्रुति के आधार पर रस को आनन्द स्वरूप ब्रह्म माना गया है। इसी श्रुतिवाक्य के आलोक में भारतीय मनीषियों ने जीवन के परम उद्देश्य के रूप में अलौकिक आनन्द को परिभाषित करने का प्रयास किया है। वही रस काव्यजगत् में अपने अनुभूयात्मकता के कारण विगलित वेद्यान्तर आनन्दम् के रूप में स्वीकार किया जाता है। रस जीवन का सार है। यह प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान रहता है और अवसर पाकर प्रस्फूटित हो जाता है। उस रस के विषय में अग्निपुरण में कहा गया है-

अक्षरं परमं ब्रह्म सनातनमजं विभुम्।
वेदान्तेषु वदन्त्यैकं चैतन्यं ज्योतिरीश्वरम्।।
आनन्दः सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन।
व्यक्ति सा तस्य चैतन्यचमत्कार रसाह्वया।।31

      अर्थात् वह परमब्रह्म परमेश्वर अक्षय है। वह शाश्वत अजन्मा और समस्त सृष्टि में परिव्याप्त है। वेदान्त ग्रन्थों में उसे अद्वितीय ज्योतिर्मान् और सामथ्र्यवान कहा गया है। उसका आनन्द स्वाभाविक है पर उसकी अभिव्यक्ति कभी-कभी होती है। उसकी अभिव्यक्ति का नाम चैतन्य, चमत्कार अथवा रस है। अतः अग्निपुराण के अनुसार ब्रह्म की अभिव्यक्ति का नाम रस है। यहां रस की संख्या नव बतलाई गयी है। शृंगाररस, हास्यरस, करूणरस, रौद्ररस, वीररस, भयानकरस, वीभत्सरस, अद्भुतरस और शान्तरस। शान्तरस यहां नाट्य रूप में स्वीकार नहीं किया गया है किन्तु नाटक प्रकरण में निर्दिष्ट होने के कारण उसका भी निरूपण किया गया है। जब विवेक, वैराग्य आदि के कारण कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती तब शान्तरस होता है। अग्निपुराण का एक और विशेष मनत्वय है कि भारत भूमि ही नाट्य मर्यादा की पोशिका भूमि है। यहीं नाट्य पुष्पित एवं पल्लवित होने के योग्य है-

देशेषु भारतवर्षं कालेकृतयुगत्रयम्।
नर्ते ताभ्यां प्राणभृता सुखदुःखोदयः क्वचित्।।32

      अर्थात् नाटक के दृश्य तत्व सदा भारत के ही होने चाहिए और कालों में सत्युग, त्रेता और द्वापर इन तीनों का उल्लेख होना चाहिए। देशकाल के सम्यक् उल्लेख के बिना दर्शकों को सुख और दुःख की अनुभूति ठीक प्रकार से नहीं करायी जा सकती। अभिप्राय यह है कि जब तक नाट्य लोक से नहीं जुड़ता तब तक वह सामाजिक के र´्जन का विषय नहीं बन सकता है। जो लोक में होता है वही शास्त्र बनता है। वही नाट्य बनता है। इसलिए भारत जैसे देश की उर्वर भूमि में विकसित नाट्य यहां के इतिहास, भूगोल के साथ जुड़कर सामाजिक को रसानुभूति कराने में सक्षम हो सकेगा। यही रसानुभूति की प्रक्रिया है। वह सामाजिक के व्यवहार जगत् से सम्बन्धित होकर ही रसोद्रेक करता है। जिससे भारतीय संस्कृति का जुड़ाव भी और गहरा होता चला जाता है। किसी देश की संस्कृति उसकी पहचान होती है। उसकी र´्जन की विभिन्न शाखाएं उसे अत्यधिक समृद्ध बनाती है। इन्हीं सभी उपागमों के साथ अग्निपुरण का नाट्यशास्त्रीय सिद्धांत व्यापक एवं विलक्षण हो जाता है। इस प्रकार देखते हैं कि अग्निपुराण नाट्यशास्त्रीय सिद्धांत के महनीय अभिधानों को अपने साथ लेकर साहित्य जगत् में पर्दापण करता है और एक प्रतिमान को स्थापित करता है।  



संदर्भ -

1.         अष्टाध्ययी, 4/3/129

2.         नाट्यशास्त्र 7/108

3.         अभिनवकाव्यालङ्कारसूत्रम्, 1/1/1

4.         उत्तररामचरित 7/28

5.         भावप्रकाशन, पृ. 55-57

6.         भरतार्णव, 10/636

7.         याज्ञवल्क्यस्मृति, 3/162

8.         भरतार्णव 4/139-205

9.         द्विवेदी डाॅ. पारसनाथ नाट्यशास्त्र का इतिहास, पृ. 15

10.      महाभारत शन्तिपर्व, 168-58

11.      वाल्मीकिरामायण, 2/9/18

12.      अग्निपुराण 336/22

13.      काव्यादर्श- हृदयङ्गमा- 1/2 तथा 11/17 पूर्वेषां काश्यपवररूचि प्रभृतीनामाचार्याणां लक्षणशास्त्राणि संहृत्य पर्यालोच्य . . ।

14.      भावप्रकाशन, पृ.37

15.      नाट्यशास्त्र, 1/32

16.      नाटक लक्षण रत्नकोश, पृ. 109, 263, 306

17.      अग्निपुराण, 338/1-4

18.      साहित्यदर्पण, 6/3-6

19.      अग्निपुराण, 338/7

20.      दशरूपक, 1/16

21.      अग्निपुराण, 338/8-9

22.      वही, 338/18

23.      वही, 339/37-38

24.      वही, 339/41

25.      अग्निपुराण, 342/1

26.      वही, 340/5

27.      वही, 346/1

28.      वही, 343

29.      वही, 344

30.      वही, 345

31.      वही, 339/1-2

32.      वही, 338/27

  

भारतीय संस्कृति में मानव मूल्य

भारतीय संस्कृति में मानव मूल्य

डाॅ. संजय कुमार

सहायक आचार्य

संस्कृत-विभाग

डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.)



            भारतीय संस्कृति सामासिक संस्कृति कही जाती है, इसमें सभी लोगों को समाहित करने की अपार क्षमता है। इसके भाव-विचार, रहन-सहन, गाम्भीर्य और सहजता से र´ित होकर लोग इसे स्वीकार ही नही करते बल्कि इसी के बन जाते हैं। वस्तुतः संस्कृति अपने देश की अन्तरात्मा होती है। इसके द्वारा उस देश और काल के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिसके आधार पर वह अपने सामाजिक या सामूहिक आदर्शों का निर्माण की हुई होती है। संस्कृति का प्रभाव हमें व्यक्तिगत या सामाजिक दायित्वों एवं पारस्परिक शिष्टाचारों के रूप में परिलक्षित होता है। संस्कृति से प्रभावित होकर ही व्यक्ति व्यक्तिगत, सामाजिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक, कलात्मक एवं धार्मिक जैसे समस्त कार्यो को करने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इसका प्रेरणाप्रद भाव ही मूल्य बन जाता है, मूल्य से हमारा यहाँ अभिप्राय उत्कट आदर्श से है। उत्कट आदर्श मानव जीवन में उस अग्निकण के समान है जिसका एक लव ही उसे प्रकाशित करने में पूर्ण सक्षम होती है।

      भारतीय चिन्तन का मुख्य धेय मानव कल्याण है। वह किस प्रकार से अपने इस धेय को क्रियान्वित करे तो वह इस रूप में अध्यात्म का सहारा लेता है। अध्यात्म एक ऐसा तत्त्व है जिसके प्रति मानव मन शुभ में सहज ही प्रवृत्त हो जाता है। संसार की वस्तुस्थिति सभी के लिए कौतुहल का विषय रहा करती है। उस कौतुहल का शमन निःश्रेयसता के ज्ञान से हो जाता है। निःश्रेयस का अर्थ मोक्ष वह तभी संभव है जब मनुष्य के अन्दर सद्-असद का विवेक हो तथा उदात्त मानवीय मूल्यों का आचरण हो। हमारे उदात्त मानव मूल्य प्राणिमात्र के प्रति दया, प्रेम, सुख की भावना है। स्वहित का त्याग परहित का ध्यान ही मानव मूल्य है, इसके बिना जीवन सही अर्थ में जीवन नहीं है। ईशावास्योपनिषद् का यही उद्घोष भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक मानव मूल्य का सूत्रपात करता है-

ऊँ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्कि´चजगत्यं जगत्।

तेन त्यक्तेन भु´जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।1

      अर्थात् जगत् में जो कुछ भी स्थावर जगम प्राणि समूह पदार्थ है यह सब कुछ ईश्वर द्वारा अच्छादनीय है। अतः उस ईश्वर के द्वारा प्रदान किये पदार्थो का मात्र जीवन निर्वाह के लिए भोग करो, किसी के भी धन की लालच मत करो। इस मूल्य शिक्षा की संकल्पना हमारे प्राचीन महर्षियों के द्वारा दी गयी थी, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण सृष्टि में आत्मभाव का बीजांकुर पैदा करना था। सभी ईश्वर के सन्तान हैं, सभी समान है। सभी मिलकर संसार के ऐश्वर्य का उपयोग करें। सभी एक दूसरे की रक्षा करें। कठोपनिषद में कहा गया है-

     ऊँ सहनाववतु! सह नौ भुनक्तु! स वीर्यं करवावहै।

     तेजस्विनावधीतमस्तु! मा विद्विषावहै।।2

      अर्थात् हे परमात्मा हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करंे। हमारा एक साथ पालन-पोशण करें। हमें समान रूप से बल प्रदान करें, हमारा अध्ययन समान हो। हम परस्पर द्वेष न करें। यह हमारी भारतीय संस्कृति की मानव मूल्य की शिक्षा है जो सम भाव में विश्वास करती है। समानता के भाव का बहुत महत्त्व है क्योंकि इस भाव से एकत्त्व के भाव को बल मिलता है। मानव मन में किसी के प्रति राग-द्वेष का भाव नहीं रहता है। चहुओर विकास की सम्भावना बढ़ती है। यह विकास सर्वमंगलमागल्ये की दृढ़ आधारशिला पर विकसित होता है जिसका परिणाम सुदूर भूमि में समृद्धि के रूप में परिलक्षित होती है। यह भावना मनुष्य को असत् पथ पर नही, सत पथ पर ही चलने की कामना करती है। जिसके विषय में भारतीय संस्कृति की प्राणभूत उस संकल्पना को दृष्टि ओझल नही किया जा सकता जिसमें सत्य का आश्रय ही मात्र विजयता का कारण बताया गया है-

                 सत्यमेव जयते नानृतम्।3

 अर्थात् सत्य की विजय होती है, असत्य की नही। यह वाक्य भारतीय संस्कृति का वह जीवन मूल्य है, जो मनुष्य को अधीर नही होने देता है और पवित्र मन से कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करता है। यह मनुष्य में उस आशा और विश्वास को उत्पन्न करता है जिस आशा और विश्वास को अपने साथ लेकर महाराज युधिष्ठिर कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में पदार्पण करते हैं। उस समय उनके समीप सत्य का आश्रय कवच रूप में विद्यमान था। उन्हें विश्वास था अपने पौरुष पर, उनकी निष्ठा थी सत्याचरण में, जिससे विजयश्री ने उन्हें बरण की। कबीरदास भी कहते है-

सांच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदे सांच है, ता हिरदे गुरु आप।।4

 इसलिए मनुष्य को सदैव सत्य का आचरण करना चाहिए। सत्य आत्मिक बल है। वह मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ अलंकार मूल्य है। सत्य कभी वृद्ध नही होता है, वह सदैव नवयुवक की भांति रक्षा में तत्पर रहता है। अतः भारतीय मनीषा सदैव सत्य की ओर ही गमन करने की कामना करती है-

     असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

       मृत्योर्माऽमृतं गमय।।5

 अर्थात् हे ईश्वर असत् नही सत की ओर ले चलो, अन्धकार नही ज्ञान की आरे ले चलो। मृत्यु नही अमरता की ओर ले चलो। भारतीय संस्कृति की यह उज्ज्वल प्रेरणा। युगो-युगो तक मानव मूल्य को परिभाषित करती रहेगी तथा सत्याचरण से नवल विकासक्रम को रेखांकित करती रहेगी। वस्तुतः सत्य मनुष्य जीवन का वह शाश्वत मूल्य है जिसका क्षरण संभव नहीं है और व्यवहार परम कल्याण के नियामक के रूप में सिद्ध होता है। ज्ञान प्रकाश को धारण करता है और अज्ञान अधंकार को। प्रकाश स्वरूप ज्ञान ही मनुष्य के मनुष्यत्त्व की कसौटी है। भारतीय संस्कृति में ज्ञान का आशय केवल ब्रह्म और जीव के अभेद को समझना ही नही है बल्कि जीवन के व्यावहारिक पक्ष को ठीक प्रकार से समझकर तनुसार उसका आचरण करना है। जब तक हमारा व्यावहारिक जीवन सुखी नही होगा तब तक हम आध्यात्म की ओर उन्मुख नही हो सकते हैं। प्रायः हमारा गमन स्थूल से सूक्ष्म की ओर ही संभव है, सूक्ष्म से स्थूल पर आना तो कल्पना का विषय हो जाता है क्योंकि मनुष्य पृथ्वी से ही आकाश की ओर गमन करता है और जब पृथ्वी ही नही तो आकाश में उड़ने का प्रश्न ही नही उठता। अतः मनुष्य का व्यावहारिक जीवन ही पृथ्वी के समान है जिसमें वह विभिन्न प्रकार के आचरण को करता हुआ आध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। इसी वस्तुस्थिति को समझाने के लिए भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय की स्थापना की गयी है।

भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व उसके मूल्य परकता से ही है। पुरुषार्थ एक सीढ़ी के समान है जो मनुष्य को सबकुछ प्रदान करते हुए अन्तिम लक्ष्य तक पहुचाने में सहायक सिद्ध होता है। ये पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन की विविध अवस्थाओं को संयमित एवं अनुशासित बनाकर उनका सहजता से अनुकीर्तन करते हैं। ये हमारे जीवन में सर्वे पदा हस्तिपदा निमग्ना की भांति मानव के मूल्य के रूप में समाहित हैं। इसीलिए पुरुषार्थ को ही मानव मूल्य की नवीन संज्ञा से विभूषित किया जाने लगा है। मानव-मूल्य का ही प्राचीन नाम पुरुषार्थ समझना चाहिए क्योंकि मानव मूल्य की जितनी भी अवधारणाएं और व्याख्याएं की जाती हैं वह सब पुरुषार्थ में समाहित हो जाती हैं। मनुष्य का आचरण-व्यवहार, आवश्यकता, सत्य, विद्या, विजय, इच्छा, लक्ष्य, कर्म, अकर्म ज्ञान, विराग, रक्षा, दया, प्रशंसा, प्रसन्नता इत्यादि सभी पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतर्गत आते हैं। भारतीय संस्कृति की जो समसनम् की प्रवृत्ति है उसी के अनुसार वह सम्पूर्ण मानव-मूल्यों को पुरुषार्थ चतुष्टय में समाहित कर लेती है। जिनका वर्णन क्रमशः अपेक्षित है।

मानव जीवन को संयमित और अनुशासित करने के लिए प्रथमतः धर्म की आवश्यकता होती है क्योंकि अनुशासित व्यक्ति ही सकल व्यवहार से सबको प्रभावित करता है। इसलिए पुरुषार्थो में सबसे पहले धर्म को ग्रहण किया गया है। धर्म मनुष्य जीवन की नींव ह,ै जिसमें ब्रह्यचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम प्रतिष्ठित होता है। इसीलिए आचार्य मनु धर्म के विषय में कहते है-

     वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च ताद्विदाम्।

     आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।6

अर्थात् वेद, स्मृति, सदाचार, जो अपने को प्रिय लगे तथा उचित संकल्प से उत्पन्न इच्छा। ये ही परम्परा से चले आये हुए धर्मोपादन हैं। धर्म हमें माँ की भांति पोषित करता है इसी अर्थ में धारणात् धर्म परिभाषित किया जाता है। जिसे मानव मूल्य की कसौटी पर कस कर आचार्य मनु उसका व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए लिखते है-

धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

     धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्मलक्षणम्।।7

 अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दश स्वरूप हैं। सभी समाजशास्त्री इसे मानव-मूल्य के रूप में ग्रहण करते हंै। इन दशों को एक अपना स्वरुप है जो अपने लय के साथ प्रवाहित होते हैं और एक स्वस्थ समाज व राष्ट्र के उन्नयन में अपनी महति भूमिका निर्वाह करते है। जिसके विषय में वाल्मीकीय रामायण मे भी कहा जाता है-

     धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्।

     धर्मेण लभते सर्वे धर्मसारमिदं जगत्।।8

अर्थात् धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख मिलता है धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पाता है, इस संसार में धर्म ही सार है। कहने का भाव है कि धर्म वह मानव मूल्य है जो सम्पूर्ण सुखों का नियामक है। जिसके महत्व का प्रतिपादन करते हुए आचार्य मनु कहते हैं-

      धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।9

अर्थात् धर्म का नाश करने पर वह नाश कर देता है, धर्म रक्षित होने पर रक्षा करता है। धर्म के विषय में डाॅ. आत्रेय कहते हैं-धर्म उन नियमों को कहते हैं जिसके पालन से व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति और कल्याण होते हो, जिनके पालन से व्यक्ति को सुख, शांति और समाज में सन्तुलन और सामंजस्य तथा शांति स्थापित हो।10 अतः हम कह सकते हैं कि धर्म एक नैतिक व्यवस्था को जन्म देता है। जो सभी के प्रति सुख-शांति और कल्याणमय जीवन की कामना करता है। इसका तात्पर्य केवल आध्यात्मिक आस्था, पूजा-पाठ नहीं बल्कि आन्तरिक कर्तव्य रूप, अहिंसा, न्याय, करुणा, दया, समत्व, संतोष, आत्मदर्शन, अतिथि सत्कार, परोपकार विश्व-बन्धुत्त्व की भावना है। यही हमारा आज का मानव मूल्य है। यही हमारे जीवन जीवन्तता की कसौटी है, जिसका व्यवहार विश्व कल्याण की ओर उन्मुख करता है।

      पुरुषार्थ रूप में द्वितीय स्थान पर अर्थ का विधान किया गया है। अर्थ और काम भारतीय संस्कृति के वाह्य मूल्य है जबकि धर्म को आन्तरिक मूल्य माना जाता है। हमारी संस्कृति प्रत्येक मनुष्य को जीविकोपार्जन की अनुमति देती है। जिसके आधार पर वर्ण व्यवस्था का जन्म भी होता है। वस्तुतः हमारी भारतीय परम्परा कर्म में विश्वास करती है और सबको कर्म के लिए प्रेरित भी करती है। जिसका उद्देश्य है सभी लोग शुभकर्मों द्वारा अर्थ को प्राप्त करें। आश्रम-व्यवस्था में जो द्वितीय गृहस्थ आश्रम है उसमें अर्थ का बहुत महत्त्व है, क्योंकि हमारा सामाजिक परिवेश अर्थ पर ही निर्भर रहता है। अर्थ के अभाव में मनुष्य दरिद्र समझा जाता है, दरिद्रता मनुष्य को लज्जा प्रदान करती है। लज्जा से तेजहीन हो जाता है। तेजहीन अपमानित होता है। अपमान से ग्लानि उत्पन्न होती है। ग्लानि से शोक को प्राप्त होता है। शोकाकुल व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। विवेक शून्य नाश को प्राप्त करता है। अहो! निर्धन्ता सब आपदाओं का निवास स्थान है-

दारिद्रयादिध्र यमेति ह्ीपरिगतः प्रभश्यते तेजसो

     निस्तेजाः परिभूयते परिभवन्निर्वेदमापद्यते।

     निर्विण्णः शुचमेति शोक विहितो बुद्धया परित्यज्यते

     निर्बुद्धिः क्षयमेत्य हो निर्धनता सर्वोपदामास्पदम्।।11

इसलिए अर्थ का जीवन में विशेष महत्त्व है। धनोपार्जन के विषय में मनुस्मृति ने कहा गया है-

सर्वेषामेव शैचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।

योऽर्थे शुचिर हि स शुचिर न मृद् वारिशुचिः शुचिः।।12

अर्थात् सभी प्रकार के शौचों में धन का शौच यानि धनोपार्जन के उपाय की शुद्धता को बड़ा समझा गया है। जो धन में शुद्ध है वही शुद्ध है। केवल मिट्टी से और पानी से शरीर की शुद्धि करने वाला मनुष्य शुद्ध नही है। वास्तविक शुद्धता तो धनोपार्जन की ही शुद्धता है। अनुचित माध्यम से अर्जित किया गया धन कभी श्रेयस्कारी नही होता है। धन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए महर्षि वेदव्यास कहते हैं-

     धनमाहुपरंधर्मं धने सर्वं प्रतिष्ठितम्।

     जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः।।13

 अर्थात् धन ही परम धर्म है। धन में सब कुछ विराजमान है। समाज में धनी मनुष्य ही जीवित है। निर्धन तो मृत प्राय है। यहाँ वेदव्यास कहना चाहते हैं कि धन ही मनुष्य जीवन की सर्वोत्तम वस्तु है जिसके द्वारा सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए महर्षि याज्ञवल्क्य भी अर्थ की महनीयता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-

अलब्धमीहेद्धर्मेण लब्धं यत्नेन रक्षयेत।

पालितं वर्धयेन्नीत्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत।।14

अर्थात् अप्रापत धन को ही धर्म से प्राप्त करने की कामना करें जो प्राप्त है उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करें और जो रक्षित है उसकी नीतिपूर्वक वृद्धि करें तथा पात्रों में लगाये अर्थात् उसका सदुपयोग करें। धन का सदैव सदुपयोग ही करना चाहिए दुरुपयोग किया गया धन अनर्थकारी ही होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति में अर्थ को मनुष्य के सभी क्रिया कलापों एवं विकास की मूल भावना के रूप में स्वीकार किया गया है। अर्थ जीवन के सर्वांगीण विकास का सूचक है लेकिन उचित माध्यम से प्राप्त किया गया धन ही व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से लाभकारी सिद्ध होता है।

काम को मानव मूल्य के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतर्गत तृतीय स्थान पर रखा गया है। गृहस्थाश्रम में काम का अत्यधिक महत्त्व है। काम से धर्म, अर्थ, मोक्ष तीनों पुरुषार्थ सम्पक्त है। मनुष्य अपनी कामनाओं के आधार पर ही अर्थ संचय, धर्म एवं मोक्षादि का संकल्प करता है। अतः यह काम भी मानव मूल्य है। जो सम्पूर्ण जीवन को एक व्यवस्थित व्यवहार में नियमबद्ध करता है। जीवन में प्रवृत्ति मार्ग से इसका सम्बंध नही है बल्कि निवृत्ति मार्ग से भी इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। हम किसी का मंगल चाहते है, या अपना परमार्थ चाहते है वह सब काम के अंतर्गत आता है। काम का दूसरा नाम संकल्प इच्छा शक्ति है। हम किसी शुभ कर्म का यदि संकल्प लेते हैं वह काम ही है। काम से तात्पर्य केवल वासना, इन्द्रिय सुख व यौन-प्रवृत्तियों की संतुष्टि नहीं है बल्कि अर्थ संचय, पुत्रोत्पत्ति, धर्माचरण, लोकमंगल भावना भी है। जो एक समाज का अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग है। अतः काम एक व्यापक शब्द है। श्रीमद्भगवद्गीता में काम को अनेक रूपों में व्यक्त किया गया है-

काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः।15

प्रजहाति यदाकामान सर्वान्पार्थ मनोगतान्।16

 संगात संजायते कामः कात्क्रोधोभिजायते।

क्रोधात्भवति सम्मोह सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।।17

अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि काम मानव की दृढ़ इच्छा शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। इस मूल्य की सम्यक् प्रतिष्ठा द्वारा ही स्वस्थ जीवन एवं स्वस्थ समाज का विकास संभव है। जीवन की बहुव्यापकता काम से ही परिभाषित होती है।

अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष है जिसके सम्बन्ध मे सभी दर्शन एवं सभी सम्प्रदाय एकमत हैं। मानव जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है। धर्म, अर्थ एवं काम के रास्ते चलते हुए मानव मोक्ष तक पहुचंता है। इसीलिए इसे चतुर्थ स्थान प्रदान किया गया है। यही मानव जीवन का साध्य है फलतः धर्म, अर्थ और काम को साधन के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार मोक्ष जीवन का चरम मूल्य है। मोक्ष एक ऐसा मानवीय मूल्य है जिसकी प्राप्ति से मनुष्य को परम आध्यात्मिक शांति एवं आनन्द की प्राप्ति होती है। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदान्त सभी दर्शन जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष ही है। सभी उपनिषद इसी प्रेरणा की सम्बाहिका हैं। इसलिए ईशवास्योपनिषद् में कहा गया है-

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययामृतमश्नुते।18

 अर्थात् कर्मो का अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके ज्ञान के अनुष्ठान से मनुष्य मोक्ष (अमरता) को प्राप्त करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय की जो कल्पना की गयी है वह निश्चित रूप से मानव मूल्य की स्पष्ट व्याख्या करती है। पुरुषार्थ ही मानव मूल्य है क्योंकि पुरुषार्थ ही स्व एवं परहित की कामना करता है। वह श्रेष्ठ मानव मूल्य की असीम सीमा है, उसके बिना मनुष्य चेतना शून्य है। इसे हमारी भारतीय संस्कृति में आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया है इसी अर्थ में पुरूषार्थ को मानव मूल्य का पर्याय कहा गया है।

संदर्भ:

1.    ईशावास्योपनिषद, 1

2.    कठोपनिषद, शान्ति पाठ

3.    मुण्डकोपनिषद, 3/9/5

4.    गुप्त रमाशंकर, सूक्तिसागर, पृ. 665

5.    वृहदारण्यकोपनिषद, 1/3/28

6.    मनुस्मृति, 2/6

7.    वही, 6/12

8.    वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकाण्ड 9/30

9.    मनुस्मृति, 8/15

10.  आत्रेय दत्त भीखनलाल, भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास, पृ. 619

11.  मृच्छकटिकम् 1/14

12.  मनुस्मृति, 5/106

13.  महाभारत, उद्योग पर्व, 70/23

14.  याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय, 317

15.  श्रीमद्भगवद्गीता, 3/37

16.  वही, 2/55

17.  वही, 2/63

18.  ईशावास्योपनिषद्, 11



Thursday 8 August 2019

Sanjay Yadav: Three books written by Dr. Sanjay Kumar Yadav on S...

Sanjay Yadav: five books written by Dr. Sanjay Kumar 
assistant Professor Department of sansrit
Dr.Harisingh Gour University,Sagar ,M.P.
drkumarsanjaybhu@gmail.com
1.      Dandi  : Samay Aur  Sahitya  Anugya  Books ,Shahadara ,Delhi  2019  ISBN  978-93-86835-74-1
2.      Agnipuran ka Natya Darshan Satyam  Publishing  house , New Delhi  2018  ISBN 978-93-85981-99-9
3.      Dandisuktiratnam Satyam  Publishing  house , New Delhi  2017  ISBN 978-93-85981-42-5
4.      Sanskrit Kavyon mein Paryvaran ka DaivSwaroop. Suruchi Kala Prakashan, Varanasi. 2010. ISBN : 978-81-909037-8-3
5.      Dandeekalin Jan-Jivan.Sapna Ashok Prakashan, Varanasi, 2009. ISBN : 978-978-93-8034402-7