Tuesday 22 June 2021

संस्कृत अनुवाद के अग्रदूत महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी

संस्कृत अनुवाद के अग्रदूत महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी ( जन्म जयंती विशेष-5 जून) डॉ.सञ्जय कुमार सहायक आचार्य-संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर,म.प्र. मो. न. 8989713997 Email- drkumarsanjaybhu@gmail.com विश्व साहित्य में संस्कृत साहित्य का स्थान श्रेष्ठ है।इसका व्याकरण और भाषा चिन्तन का जो स्वरूप निर्मित किया गया है वह अद्भुत है। बाल्मीकि, कालिदास,अश्वघोष,भारवि,माघ, भवभूति, बाणभट्ट , दण्डी और श्रीहर्ष आदि कवियों ने संस्कृत काव्य गरिमा की धवल अजस्र धारा को प्रवाहित किया है।यह प्रवाह केवल यहीं तक प्रवाहित नहीं हुआ बल्कि आज तक अपने प्रवाहमान स्थिति में वर्तमान है। रामजी उपाध्याय,रेवाप्रसाद द्विवेदी, श्रीनिवास रथ, शिवजी उपाध्याय, अभिराराजेन्द्र मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी, प्रभुनाथ द्विवेदी इत्यादि के साथ महात्मा पं.प्रेमनारायण द्विवेदी ने भी आधुनिक संस्कृत सरिता का जो जलप्लावन किया है वह बारिश की फूहार जैसी मनोरम और शीतलता प्रदान करने वाली है।इन आधुनिक संस्कृत कवियों में महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी का स्थान इस लिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्होंने अपने मौलिक रचनाओं के साथ संस्कृत अनुवाद की जो परम्परा विकसित की वह अतुलनीय है। उन्होंने हिन्दी, बुन्देली, ब्रजभाषा,अवधी आदि भाषाओं के अनेक काव्यों का संस्कृत भाषा में लगभग २१ हजार श्लोकों के रूप में अनुवाद किया है। जिसके लिए द्विवेदी जी को अनुवादक शिरोमणि भी कहा जाता है। महात्मा पं. प्रेमनारायण द्विवेदी का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जनपद अन्तर्गत बड़ा बजार क्षेत्र में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी दिन सोमवार ५ जून,१९२२ ई.को हुआ था। इनके पिता का नाम परमानन्द द्विवेदी तथा माता का नाम रूक्मिणी देवी था। इनके पिता पं. परमानन्द द्विवेदी धार्मिक एवं कर्मकांड से जुड़े विद्वान ब्राह्मण थे।जिनका प्रभाव बालक प्रेमनारायण द्विवेदी पर भी पड़ा।पं.प्रेमनारायण द्विवेदी को बचपन से ही भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति अगाध स्नेह और विश्वास था। जिसके कारण उनका जीवन सहज और अत्यंत सरल था। उनके मन में किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना रंच मात्र भी नहीं रहा करती थी। सबके कल्याण में अपने कल्याण की भावना प्रबल थी। उन्हें लोकयश या आत्मा प्रसिद्धि का स्पर्श नहीं था केवल कर्म करने का विश्वास ही उनका आत्मविश्वास था, जिसके कारण लोग उन्हें महात्मा कहते थे। अंग्रेजी शासन की भारत दुर्दशा के साक्षी थे।इस लिए भारतीय धर्म, संस्कृति ज्ञान, विज्ञान के मूल्य को समझते थे और सबको समझाने का भी प्रयास करते थे।उनका मानना था कि भारतीय धर्म और संस्कृति में वह चेतनता है जो शाश्वतता की ओर मनुष्य को प्रवृत्त करती है। पं.द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा सागर स्थित चकरा घाट के संस्कृत विद्यालय से सम्पन्न हुई। विद्यालयी शिक्षा क्विंस कालेज, वाराणसी से सम्पन्न हुई तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। जिसका नाम अब डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय हो गया है। यही से महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी जी स्नातक तथा स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1965 ई.में 'वैश्णव पुराणों में आचार समीक्षा' विषय पर पी-एच.डी.की उपाधि प्राप्त की थी। पं.प्रेमनारायण द्विवेदी जी जन्मजात एक शिक्षक थे। उन्हें पढ़ाने का बहुत शौक था।फलत: उन्होंने 1944 ई.में अध्यापन कार्य प्रारंभ कर दिया था। द्विवेदी जी अपने अध्यापकीय रुचि के कारण खुरई ,बारधा, गढ़ाकोटा आदि के संस्कृत विद्यालयों में अध्यापन कार्य किया था।अनन्तर 22 जुलाई 1955 ई.में उनकी नियुक्ति मोराजी प्राथमिक शाला में हो गयी।1958ई. में आप संस्कृत शिक्षक के रूप में पदोन्नत होकर मोतीलाल नेहरू माध्यमिक विद्यालय कटरा, सागर,म.प्र. में पहुंच गये। वहीं शिक्षण कार्य करते हुए जून 1980ई में सेवानिवृत्त हो गए। लेकिन वे केवल सरकारी विद्यालय की सेवा से निवृत्त हुए न कि अपने अध्यापकीय जीवन शैली स और लेखन कार्य से। वे पद प्रतिष्ठा से सदा दूर एक साधक की भांति जीवन व्यतीत करने के पक्षधर थे । उन्हें सागर से बहुत लगाव था जिसके कारण अनेक महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में सेवा के अवसर को उन्होंने छोड़ दिया। लेकिन कर्म में इतनी बड़ी शक्ति होती है कि इच्छा न रहते हुए भी उसका फल मिलता ही है। सेवा निवृत्ति के बाद पं.प्रेमनारायण द्विवेदी ने संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में अतिथि आचार्य के रूप में अध्यापन कार्य किया तत्पश्चात सामवेद संस्कृत महाविद्यालय, सागर में प्राचार्य के रूप में भी अपने दायित्व का निर्वहन किये थे। प्रेमनारायण द्विवेदी किसी विश्वविद्यालय में स्थाई रूप से शिक्षण कार्य न करते हुए भी संस्कृत साहित्य का जो प्रकाश पुंज प्रकाशित किया वह विश्व संस्कृत आलय के समान अगाध और महत्वपूर्ण है। उन्होंने 'काव्य निर्झर' और 'स्तुतिकुसुममाला' नामक मौलिक रचनाएं की हैं। इसके साथ-साथ लघुकाव्य संग्रह के रूप में अनेक पद्य 'विविधकाव्य संग्रह' के नाम से प्रकाशित है ।इस संग्रह में अनेक समसामयिक विषयों पर संस्कृत भाषा में पद्य प्रकाशित हैं। संयोग से विश्व पर्यावरण दिवस के दिन ही द्विवेदी जी का जन्म दिवस भी पड़ता है इसलिए उन्होंने पर्यावरण से सम्बन्धित अनेक संस्कृत पद्यों भी की रचना की है। पं. प्रेमनारायण द्विवेदी के द्वारा जो संस्कृतानुवाद की परम्परा विकसित की गई है वह बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृत काव्यों का अन्य भाषाओं में अनुवाद की परम्परा तो मिलती है लेकिन अन्य काव्यों का संस्कृत में अनुवाद कम ही मिलते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी, बुन्देली, अवधी, ब्रजभाषा आदि भाषाओं की रचनाओं का छन्दमय संस्कृतानुवाद किया है। सबसे बड़ी बात उनके अनुदित साहित्य की यह है कि कहीं भी उनमें भाव और गाम्भीर्यता में कोई कमी नहीं बल्कि उत्तरोत्तर काव्य गुणों से समन्वित तत्वों को ग्रहण किया गया है। उन्होंने तुलसीदासकृत ये श्रीरामचरितमानस का ‘श्रीमद्रामचरितमानसम्’ नाम से, विहारी सतसई का ‘सप्तशती’ संग्रह नाम से संस्कृत भाषा में अनुवाद किया है।साथ ही तुलसीदास , सूरदास के पद्यों का संस्कृत अनुवाद “तुलसीसूरकाव्यसंग्रह” के रूप में किया है। हिन्दी के अन्य कवियों कबीरदास, मीरा, रसखान,उद्धव, जयशंकर प्रसाद, महादेव वर्मा, आदि के साथ बुन्देली कवि ईसुरी तथा ब्रजभाषा के कवि पद्माकर के भी अनेक कविताओं का पं. प्रेमनारायण द्विवेदी संस्कृत अनुवाद किए हैं। इस तरह द्विवेदी जी का अनुदित साहित्य विशाल और उन्नत है। संस्कृत भाषा में प्रेमनारायण द्विवेदी से बड़ा अनुवादक आज तक कोई नहीं हुआ है इस लिए उन्हें संस्कृत अनुवाद का अग्रदूत भी कहा जाता है। पं.प्रेमनारायण द्विवेदी की सारस्वत साधना के लिए भारत सरकार ने संस्कृत विद्वत् सम्मान एवं राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित किया है। दिल्ली संस्कृत अकादमी तथा कालिदास संस्कृत अकादमी आदि के द्वारा भी इन्हें प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।पं. प्रेमनारायण द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के आधार पर डांकटर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन, तथा केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, (भोपाल परिसर) मध्यप्रदेश से अनेकों शोध कार्य हुएं हैं। इस प्रकार पं.प्रेमनारायण द्विवेदी विना थके साहित्य सर्जना में आजीवन संलग्न रहे। सदैव नित नूतन साहित्य से संस्कृत साहित्य एवं भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में अहम भूमिका का निर्वाह किये हैं। उनके काव्य और अनुदित साहित्य दोनों ही भारतीय ज्ञान- विज्ञान, परम्परा, दर्शन, धर्म और संस्कृति की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। उनका अनुदित साहित्य भारतीय जीवन दर्शन का स्पष्ट झांकी प्रस्तुत करता है और पाठक को काव्य लोक में प्रतिष्ठित करता है।जीवन के अन्तिम क्षणों में भी अध्ययन,लेखन, और अध्यापन की सारस्वत साधना करते हुए २८अप्रैल, २००६ ई. को अपने भौतिक शरीर का त्याग कर देवलोक में प्रतिष्ठित हो गये। बताया जाता है कि महात्मा पं. प्रेमनारायण द्विवेदी महाप्रयाण के दिन प्रयाण से कुछ क्षण पूर्व 'हृदि तोषो नानीत:' कविता लिखे तदोपरांत पद्मासन में ओंकार मंत्र के ध्वनि के साथ अपनी पंच भौतिक शरीर को त्याग कर हमेशा हमेशा के लिए अनन्त में विलीन हो गये। ऐसे संस्कृत के समुपासक महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी के जन्म जयंती के अवसर पर हम उन्हें शब्द्कुशुमांजलि अर्पित करते हैं।