Tuesday 16 November 2021

महर्षि बाल्मीकि का विश्व विख्यात रामायण और भ्रातृत्व स्नेह

( २० अक्तूबर ,२०२१ बाल्मीकि जयंती विषेश ) महर्षि बाल्मीकि का विश्व विख्यात रामायण और भ्रातृत्व स्नेह डा. संजय कुमार सहायक आचार्य –संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,म प्र .470003 मो. न. 8989713997 आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भारतीय भूमि पर एक अद्भुत घटना के रूप में महर्षि वाल्मीकि का आविर्भाव हुआ जिन्होंने आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण की रचना की |यह आदिकाव्य रामचरित के रूप में केवल प्रसिद्ध ही नहीं है अपितु यह आचरण, व्यवहार, जीवन- दर्शन ,कर्म ,त्याग ,प्रेम ,समर्पण और वैराग्य का ऐसा समुच्चय प्रस्तुत करता है जिसके कारण उसे भारतीय संस्कृति का प्रतीक माना जाता है| कथा प्रसिद्ध है कि व्याध के बाण से विधि हुए क्रौंच पक्षी के लिए विलाप करने वाली क्रोंची के करुण- क्रंदन को सुनकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से अकस्मात ही प्रथम लौकिक छंद निकल पड़ा था- मा निषाद प्रतिष्ठास्त्वमगम:शाश्वती:समा: | यत क्रौंच मिथुनादेकमवधी: काममोहितम || अर्थात हे निषाद तुमने काम से मोहित इस क्रौंच पक्षी को मारा है अतः सदा- सदा के लिए प्रतिष्ठा को मत प्राप्त होओ| महर्षि वाल्मीकि के हृदय में स्थित शोक ही श्लोक रूप में परिणित होकर चतुर्विंशति साहस्री संहिता से युक्त बाल्मीकीय रामायण नाम से प्रसिद्ध हो गया|चतुर्विंशति साहस्री संहिता का अभिप्राय चौबीस हजार श्लोक से है|यह संख्या उतने ही हजार है जितने गायत्री मंत्र में अक्षर हैं| प्रत्येक हजार प्रथम गायत्री मंत्र के अक्षर से ही प्रारंभ होता है| यद्यपि महर्षि वाल्मीकि के जीवन परिचय के विषय में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त नहीं होती है| कहीं उन्हें बल्मीक( दीमक )के कारण बाल्मीकि नाम से अभिहित किया गया है तो कहीं जन- सामान्य से जुड़ा एक व्यक्ति बताया गया है| एक किंबदंती के अनुसार यह भी कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकि प्रारंभ में चोरी का कार्य करते थे जिनका नाम रत्नाकर था| उस चोरी के कार्य से ही रत्नाकर अपने परिवार का भरण -पोषण करते थे |किसी समय उन्हें नारदमुनि से भेट हुई |उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि यह चोरी का कार्य क्यों करते हो ? तब रत्नाकर ने उत्तर दिया हैं कि मैं इसीसे अपने परिवार का पालन- पोषण करता हूं| पुनः नारद ने कहा कि इससे पाप का भागी बनना पड़ेगा | इस पाप कर्म से अर्जित धन से जिस परिवार को पालते हो क्या वे भी इसके भागी बनेगें ? इस प्रश्न पर बाल्मीकि मौन हो जाते हैं और पूछने के लिए अपने परिवार के पास जाते हैं| परिवार के लोग सीधे-सीधे कहते हैं कि जो करेगा वह भ रेगा| यानी पाप कर्म तो आप कर रहे हैं तो पाप का फल भी आप ही भोगेगें | परिवार जनों की यह बात सुनकर महर्षि वाल्मीकि को बहुत ही कष्ट हुआ और वे महर्षि नारद के शरण में आ गए | महर्षि नारद ने उन्हें राम-राम का जांप मंत्र दिया और इसी राम नाम से वे रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि बन गये | पौराणिक मान्यता के अनुसार यह भी माना जाता है कि महर्षि वाल्मीकि का जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नवे पुत्र वरूण और उनकी पत्नी चर्षणी के कोख से हुआ है| इन्हें भृगु का छोटा भाई भी कहा जाता है|अश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन इनका जन्म हुआ था|इसलिए आश्विन पूर्णिमा को बाल्मिकीय जयंती के मनाया जाता है | इस दिन आकाश से अमृत की वर्षा होती है| जिसका भरतीय परम्परा में विशेष महत्व माना जाता है| इस तरह महर्षि बाल्मीकि कोई भी रहे हों यह अलग विषय है| लेकिन जो उनका अवदान है , उससे संपूर्ण भारत की प्रतिष्ठा विश्व के आकाश मंडल में व्याप्त हो गई है| इनकी कृति बाल्मीकीयरामायण को भारत का गौरव ग्रंथ कहा जाता है और महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि | बल्मिकीयरामायण के राम से ही प्रभावित होकर विश्व की अनेक भाषाओं में रामचरित लिखा गया |संपूर्ण विश्व वाड्मय का प्रेरणा स्रोत बाल्मीकि रामायण को माना जाता है| क्योंकि यहां जो समाज दर्शन का प्रतिबिंबन किया गया है वह अन्यत्र दुर्लभ है |सभी साहित्य इसके त्याग, पारिवारिक संबंध ,सामाजिक संबंध , समर्पण और कर्तव्य से प्रभावित हैं| महर्षि बाल्मीकि ने ऐसे रामचरित का निर्माण किया है जिनका नाम सुनते ही प्रजा वत्सल राजा, आज्ञाकारी पुत्र ,स्नेही भ्राता, विपद ग्रस्त मित्रों के बंधु का चित्र हमारे मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं |वहीं जनकनंदिनी सीता का नाम आते ही पतिव्रता स्त्री की ऐसी मूर्ति उपस्थित हो जाती है जो युगों युगों तक अपने आदर्शमय जीवन से सबके हृदय को रंजीत करती रहेगी| यदि पिता के स्नेह को देखा जाए तो वह पुत्र वियोग में अंतिम परिणति तक पहुंचता है| माता सदैव पुत्र का उपकार ही करती है और पुत्र का लाख अपकार करने वाली माँ को भी सदैव पूजनीय, वन्दनीय रूप में ही स्वीकार किया गया है| इस रामायण को मित्रता की कसौटी के रूप में भी देखा जाता है|इस तरह यह एक व्यावहारिक शास्त्र के रूप में सामने आता है | मानव जीवन में भ्रातृत्वभाव का यहां अद्भुत स्वरूप दिखलाया गया है |यहां राम के बिना लक्ष्मण, भरत , शत्रुघ्न या लक्ष्मण के बिना राम या भरत के बिना राम आदिका जीवन नगण्य है |यद्यपि बाली सुग्रीव को अत्यधिक प्रताड़ित किया हुआ रहता है फिर भी जब राम बाली का वध करते हैं तब सुग्रीव का भ्रातृत्व वियोग पाषाण हृदय को भी द्रवित करने वाला दृष्टिगोचर होता है |कुंभकरण की मृत्यु पर रावण का क्रंदन और रावण की मृत्यु पर विभीषण का रुदन भ्रातृ प्रेम के उत्कट निदर्शन के रूप में सामने आया हुआ है| इतना ही नहीं महर्षि वाल्मीकि ने तो पशु- पक्षियों के भ्रातृत्वभाव स्नेह को भी अपने रामायण में अंकित किया है|यहाँ संपाति और जटायु के मध्य भ्रातृत्व प्रेम को देखा जाए तो वह बहुत महत्वपूर्ण है| जब कपियों के मुख से जटायु के विनाश की बात संपाति सुनता है तो वह दु:खी होकर कहता है यह कौन है जो मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय मेरे भाई जटायु के वध की बात कर रहा है| यह बात सुनकर मेरा ह्रदय कंपित हो रहा है| संपाति जटायु के गुणों को व्यक्त करता हुआ कहता है कि जटायु मुझसे छोटा , गुणज्ञ और पराक्रमी है| उसके बिना मैं जीवन धारण नहीं कर सकूंगा |रावण जैसा घमंडी भी अपने भाइयों से अगाध स्नेह करता था |कुंभकरण के मारे जाने पर वह विलाप करता हुआ कहता है कि अब मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है |सीता को लेकर भी मैं अब क्या करूंगा| कुंभकरण के बिना मैं एक क्षण थी जीवित नहीं रहना चाहता हूँ| इस तरह अद्भुत रूप में महर्षि बाल्मीकि अपने आदि काव्य बाल्मीकि रामायण में भ्रातृत्व स्नेह का वर्णन किये हैं | उनके भ्रातृत्व प्रेम के विषय में यह श्लोक अत्यंत प्रसिद्ध है जिसमे वे कहते हैं- देशे देशे कलास्त्राणी देशे देशे च बांधवा: | तं तु देशे न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरा|| अर्थात स्थान- स्थान पर स्त्रियां मिल सकती है तथा बंदुजन भी प्राप्त हो सकते हैं परंतु मैं ऐसा कोई देश ,कोई स्थान नहीं देखता हूं जहां सहोदर भ्राता उन्हें इस जीवन में मिल सके| इस तरह से हम देखते हैं की यह बाल्मीकि रामायण आदि काव्य भारतीय संस्कृति, सभ्यता, जीवन मूल्य, दर्शन को प्रस्तुत करते हुए भ्रातृत्व स्नेह का अद्भुत रूप उपस्थित किया है |ऐसा भ्रातृत्व स्नेह संपूर्ण वांग्मय मैं दुर्लभ है |यह बाल्मीकीयरामायण मनुष्य के जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं का भी सहज समाधान प्रस्तुत करने के साथ यह राजधर्म, लोकधर्म, पर्यावरण,शिक्षा, स्वस्थ्य आदि से संबंधित सर्वत्र लोक कल्याण का विधान करता है|ऐसे आदि काव्य के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि की जयंती है पर हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं|

महात्मागांधी और आधुनिक संस्कृत साहित्य

महात्मागांधी और आधुनिक संस्कृत साहित्य डा. संजय कुमार सहायक आचार्य –संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,म प्र .470003 मो. न. 8989713997 भारत महापुरुषों का देश है | यहाँ पर मानव क्या ईश्वर भी अवतरित हुए हैं ,राम और कृष्ण को हमारी परम्परा में ईश्वर माना जाता है |इसी तरह चाणक्य ,चन्द्रगुप्त , महाराणा प्रताप ,गुरुगोविन्द सिंह , महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस सरदार बल्लभभाई पटेल बालगंगाधर तिलक आदि लोकनायक महापुरुष भी अवतरित हुए हैं जिनके पराक्रम ,पौरुष .त्याग और समर्पण से राष्ट्र का मस्तक सदैव गौरवान्वित होता रहता है |ऐसे ही महापुरुष महात्मा गांधी भी हैं ,जिन्हें राष्ट्रीय प्रतीक पुरुष के रूप में जाना जाता है |महात्मा गांधी का मूल नाम मोहनदासकर्मचंद गांधी था | जिनका जन्म ०२ अक्तूबर १८६९ ई.में गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान में हुआ था |महात्मा गांधी के पिता का नाम कर्मचंद गांधी तथा माता का नाम श्रीमति पुतली बाई था | गांधीजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि सम्पन्न और अधिकार के प्रति सदा सचेत रहने वाले महामानव थे |भारतीय समाज एवं संस्कृति की गंभीर समझ उन्हें युवावस्था में प्राप्त हो गयी थी |उन्हें राष्ट्र और राष्ट्रीय समस्याओं की बहुत चिंता थी |जिसके समाधान के लिए वे सर्व प्रथम अध्ययन किये ,उनका मानना था कि अध्ययन ही सभी समस्याओं के निराकण का साधन है |इसलिए महात्मा गांधी आजीवन सबके लिए शिक्षा को अनिवार्य मानते थे | वे कहते थे कि शिक्षा सबको सर्व सुलभ होनी चाहिए | यद्यपि महात्मा गांधी का विवाह कस्तूरबा बाई मनक से १८८३ ई.में ही हो गया था लेकिन मन में बैठे राष्ट्रीयप्रेम की भवना , स्वतंत्रता की भावना और उच्च अध्ययन की अभिलाषा की पूर्ति में कोई व्यवधान कभी नहीं आया बल्कि वे भी अहर्निश महात्मा गांधी की सहगामी होकर एक साथ कदम मिलकर चलने वाली महिला थी | महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख राजनेता एवं सुधारवादी चिन्तक के साथ - साथ वैश्विक समस्याओं के समाधान के प्रति प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति थे | दक्षिण अफ्रीका इस बात का प्रमाण है | महात्मा गांधी के मन में भारत की दुर्दशा,बेरोजगारी ,स्वास्थ्य ,पर्यावरण और संस्कृति के उन्नयन की बेजोड़ कमाना थी | उन्होंने सविनय ,सत्याग्रह ,भारत छोडो आन्दोलनों द्वारा देश में ऐसी राष्ट्रीय भावना को जागृत किया जिससे भारत को स्वतंत्रता मिली |उनका मानना था प्रत्येक व्यक्ति या राष्ट्र की स्वतंत्रता उसका अधिकार है |किसी के लिए भी दासता या परतंत्रता अभिशाप है |महात्मा गांधी के कार्य ,सहस और धैर्य के कारण उन्हें कालिदास ,महात्मा ,बापू (पिता ),राष्ट्रपिता आदि नामों से उन्हें संबोधित किया जाता है |उनके जन्म दिवस २ अक्तूबर को गांधी जयंती और अंतराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है |महात्मा गांधी को एक राजनीतिज्ञ,अधिवक्ता ,पत्रकार ,दार्शनिक ,निबंधकार ,संस्मरण लेखक तथा क्रन्तिकारी लेखक के रूप में याद किया जाता है |उन्होंने अनेक पुस्तकों का प्रणयन भी किया है | जिनमें से कुछ प्रमुख है – सत्य के प्रयोग ,हिन्दस्वराज , दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास ,गांधी की आत्म कथा ,मेरे स्वप्नों का भारत सर्वोदय , गीता माता , ग्रामस्वराज, रामनाम ,महात्मा गांधी के विचार ,कुदरती उपचार ,आरोग्य की कुंजी ,सच्चाई भगवान है और सांप्रदायिक सद्भावना आदि |महात्मा गांधी के दो अस्त्र बहुत प्रसिद्द हैं – सत्य और अहिंसा ,इन्ही दो वैचारिक अस्त्रों से वे देश को आजादी दिलाये | ऐसे महान विचारक ,स्वतंत्रता सेनानी ,लेखक तथा समाजसुधारक की दुर्भाग्य बस ३० जनवरी १९४८ को मृत्यु हो गयी | महात्मा गांधी के मृत्योपरांत उन पर अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओँ में और अधिक ग्रन्थ लिखे जाने लगे | उनके मूल्य , जीवन- दर्शन ,आदर्श ,स्वतंत्रता आन्दोलन के कार्य को ,इतिहास आदि के ग्रंथों के साथ साथ साहित्य में भी साहित्यकारों ने गढ़ना प्रारम्भ कर दिया | जिसमे संस्कृत भी बढ़- चढ़कर सहगामी बनी क्योंकि संस्कृत का इतिहास साक्षी है |उसका तो ध्येय ही आदर्श चरित निर्माण है |उसी की पूर्ति में राम , कृष्ण भीष्म ,सीता ,कुंती ,द्रोपदी चन्द्रगुप्त आदि के साथ महात्मा गांधी जैसे महनीय व्यक्तित्व से आधुनिक संस्कृत आलोकित है |आधुनिक संस्कृत कवियों के द्वारा काव्य ,महाकाव्य ,नाटक ,खंड काव्य आदि के रूप महात्मा गांधी का चरित प्रकाशित है |आधुनिक संस्कृत कवि समवाय का एक बड़ा वर्ग या तो गांधी चरित को आदि से अंत तक प्रस्तुत किया है या तो उनके सिद्धांत सत्य ,अहिंसा आदि को सामाजिक धरातल पर उकेरा गया है| संस्कृत साहित्य में चरित लेखन की परंपरा महर्षि बाल्मिकीय प्रणीत रामायण से ही हो जाती है |उन्होंने आदर्श चरित के रूप में राम चरित को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया |इसी रूप में भारतीय समाज को उन्नतिशील बनाने और स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय भावना को जागृत करने के लिए आधुनिक संस्कृत साहित्य राष्ट्र पिता महात्मा गांधी जीवन चरित आधारित साहित्य की सर्जना भी की गयी है | इस तरह यदि महाकाव्यों की बात की जय तो गांधीचरित नाम से अनेक महाकाव्य लिखे गए हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं- स्वामी भगवदाचार्य का गांधीचरितम , इस महाकाव्य के तीन खंड – भारतपारिजात ,पारिजातापहार, तथा पारिजत्सौराभ हैं |जिनमें महात्मा गांधी के जन्म से लेकर दक्षिण अफ्रीका आदि का वर्णन करते हुए उनके स्वतंत्रता आन्दोलन के कड़े संघर्षों को दिखाया गया है |प्रभुदत्त व्रह्मचारी का गांधीनांदीश्रद्धाम्, साधुशरणमिश्र का गांधीचरितम् , विद्यानिधि का गांधीचरितम्~ (अप्रकाशित ) सुधाकरशुक्ल का गांधीसौगंधिकम् ,त्रिपुरारीशरण पाण्डेय का महत्मायन ,श्री मधुकरशास्त्री का गांधीगाथा , शिवगोविन्द त्रिपाठी का गांधीगौरवम् और प. क्षमाराव के द्वारा महात्मा गांधी जीवन चरित आधारित तीन महाकाव्य लिखे गए हैं – सत्याग्रहगीता, उत्तर सत्याग्रहगीता और स्वराजविजयम्| ये तीनों महाकाव्य महात्मा गांधी के विराट व्यक्तित्त्व को प्रकाशित करते हैं | प. क्षमाराव ने सत्याग्रहगीता महाकाव्य के एक स्थल पर महात्मा गांधी के शांति दर्शन के सार को बतलाती हुई लिखि हैं – दुर्बला ननु गण्यन्ते शांतिमार्गावालम्बिन:| परं सत्याग्रहाद् विद्धि नास्ति तीव्रतरं बलम्||१०/२५ || अर्थात् शांति के मार्ग पर चलने वालों को कमजोर समझा जाता है ,परन्तु यह जान लेना चाहिए कि सत्याग्रह से अधिक शक्तिशाली और कोई बल नहीं है |वहीँ आगे महात्मा गांधी के जीवटता , पौरुष, और भगवतस्वरूप को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है – निक्षिप्तं विधिना तेजस्तस्मिन गंधौ महात्मनि|जन्मभूमिं तमोग्रस्तां विद्योतयितुमात्मन:|| न परं भारतं वर्ष विदुरा अपि भूमय: | भासिता:सत्यदीपेन ज्वालितेन महात्मा || तस्मादधर्मनाशाय प्रशान्ते: स्थापनाय च |गांधीरूपेण भगवानवतीर्ण: किमु स्वयम् ||१८/१५-१९ || अर्थात् महात्मा गांधी में ईश्वर ने एक तेज स्थापित कर दिया है ,जिससे अंधकार से व्याप्त पृथिवी को वे आलोक दे सके | केवल भारतवर्ष ही नहीं दूर – दूर के देश भी महात्मा के सत्यदीप के प्रकाश से आलोकित हैं |अत:ऐसा मालूम पड़ता है कि अधर्म के नाश व शांति की स्थापना के लिए स्वयं ईश्वर ही गांधी के रूप में अवतरित तो नहीं हो गये हैं?इसी तरह अनेक बातों को महात्मा गांधी के संदर्भ में यहाँ कहा गया है |गांधी सिद्धांत और व्यवहार को अन्य काव्यों में भी आधुनिक संस्कृत कवियों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है |यथा रामजी उपाध्याय अपने द्वासुपर्णा संस्कृत उपन्यास में सुदामा और कौमुदी के माध्यम से गांधी के हिन्दस्वराज को व्याख्यायित किया है |प.प्रेमनारायण आदि ने महात्मा गांधी पर अनेक कविताओं का भी प्रणयन संस्कृत में किया है |मथुरा प्रसाद दीक्षित ने गांधीविजयम और डा.बोम्मकंठी रामलिंग शास्त्री ने सत्याग्रहोदय: नाटक लिखा है|इस तरह आधुनिक संस्कृत सहित महात्मा गांधी के जीवन दर्शन को केवल साथ लेकर चलने वाला साहित्य नहीं है बल्कि उसे आत्मसात करने वाला साहित्य है | आधुनिक संस्कृत साहित्य के कवियों के द्वारा महात्मा गांधी को राष्ट्र उन्नायक ,स्वतंत्रता सेनानी ,सामाजिक चिंतक महामानव के रूप में चित्रित किया गया है जिनका आदर्श और व्यक्तित्व सभी मानव के लिय अनुकरणीय और कठिन समय में प्रेरणा प्रदान करने वाला है | ............................................................

आधुनिक संस्कृत और भारतीय ज्ञान परम्परा के संवाहक प्रभुनाथ द्विवेदी

आधुनिक संस्कृत और भारतीय ज्ञान परम्परा के संवाहक प्रभुनाथ द्विवेदी (पूण्यस्मरण ) डा .संजय कुमार सहायक आचार्य –संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,म प्र .470003 मो. न. 8989713997 Email-drkumarsanjaybhu@gmail.com आधुनिक संस्कृत के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित आचार्य प्रभुनाथ द्विवेदी का जन्म २५ अगस्त १९४७ ई.को मीरजापुर ,उत्तर प्रदेश के भैसा (कछवा) ग्राम में हुआ था |इनके पिता का नाम श्री नन्दकिशोर द्विवेदी तथा माता का नाम श्रीमति रामकुमारी देवी था | बचपन से ही द्विवेदी जी का विशेष लगाव संस्कृत भाषा साहित्य से था| जिसके कारण स्नातक विज्ञान विषय से उत्तीर्ण होने के बाद भी इन्होने संस्कृत विषय में स्नातकोत्तर और पी–एच .डी .की उपाधि प्राप्त कर महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ,वाराणसी, उ.प्र. में जनवरी १९७८ सहायक आचार्य के पद पर न्यूक्त हो गए , यहीं सह आचार्य एवं आचार्य पद पर रहते हुए संकायाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद का निर्वाह करते हुए जून २०१० ई. में सेवा निवृत्त हो गए लेकिन उनके ह्दय में विराजमान अध्यापकत्व उन्हें कभी भी सेवा निवृत्त नहीं होने दिया फलस्वरूप वे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय ,वाराणसी , शंकरशिक्षायतन , नई दिल्ली , विश्वभारती, शान्तिनिकेतन (प.ब.),कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ,कुरुक्षेत्र एवं रानी पद्मावतीतारायोगतंत्र आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, शिवपुर ,वाराणसी में मानद आचार्य के रूप में अध्यापन करते रहे | द्विवेदी जी के अध्यापन के सामान ही लेखन कार्य भी महत्त्वपूर्ण है | उन्होंने कथासंग्रह के रूप में श्वेतदुर्वा , कथाकमौदी ,अंतर ध्वनि ,कनकलोचन,शालिवीथी आदि के साथ लगभग ६० ग्रंथों का प्रणयन किया है |इन्होने रामानन्दचरित एक संस्कृत भाषा में उपन्यास लिखा है | इस कोरोना महामारी पर भी इनके द्वारा कोरोनशतकम काव्य लिखा गया है |जिसमे १०८ श्लोक है |यह काव्य विषेश रूप से कोरोना से बचाव तथा वैश्विक परिदृश्य के साथ ही राजनीतिक दृष्य को भी उपस्थित करता है | २०१८ ई .में इनके द्वारा स्वच्छ्ताशतकम काव्य की रचना की गयी जिसमे सम्पूर्ण भारत को स्वच्छ रखने की कमना की गयी है |प्रभुनाथ द्विवेदी अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकर थे |इन्होंने अभी- अभी सनातन धर्म पर एक ग्रन्थ लिखा है |अलंकारोदारणम यह ग्रन्थ वस्तुतः किसी अंग्रेजी ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद है | इनके द्वारा इसके अतरिक्त २२९ शोध निबन्ध ,२४५ ललित निबन्ध भी द्विवेदी जी के प्रकाशित हैं | प्रो. प्रभुनाथ द्विवेदी जी के अध्यवसाय का यह प्रमाण है कि उनके निर्देशन में ३६ शोधार्थी शोध उपाधि प्राप्त किये हैं | द्विवेदी जी के आकशवाणी और दूरदर्शन पर ९१ प्रसारण कार्यक्रम भी हुए हैं |इनके कृतित्त्व और व्यक्तित्व पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोधकार्य भी चल रहा है | डा.प्रभुनाथ द्विवेदी के साहित्यिक अवदान पर विभिन्न संस्थाओं से ३४ पुरस्कार दिए गये है जिनमे राष्ट्रपति पुरस्कार(२०१७ ) साहित्य अकादमी पुरस्कार (२०१४ ) बाल्मिकीय पुरस्कार , बाणभट्ट पुरस्कार ,कालिदास पुरस्कार ,श्रीरामानंदचार्य पुरस्कार मुख्य हैं |प्रो.द्विवेदी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी , विद्वान, महामनीषी थे |विषम परिस्थिति में कभी भी विचलित नहीं होते थे,ह्दय रोग से पीड़ित होने पर भी सतत अपने लेखन कार्य से भारतीय ज्ञान परंपरा को सुगम और सुबोध बनाने का प्रयत्न करते रहे | लेकिन दाम्पत्य जीवन के घनीभूत प्रेम अनुरागी पत्नी श्रीमति निर्मला देवी के स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण ईधर कुछ दिनों से हतास और निराश हो गए थे जिसके कारण अचानक मस्तिष्क में विकार उतपन्न हुआ और लाख चिकित्सीय प्रयास करने पर भी १५ नवम्बर ,२०२१ को मध्य रात्रि में अपने नश्वर शारीर कि छोड़कर शिवसायुज्य के लिए अनन्त पथ के गामी हो गए | संस्कृत के ऐसे महामनीषी के देव लोक गमन पर हम अपनी पूत ह्दय भावांजलि अर्पित करते हैं |

Tuesday 22 June 2021

संस्कृत अनुवाद के अग्रदूत महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी

संस्कृत अनुवाद के अग्रदूत महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी ( जन्म जयंती विशेष-5 जून) डॉ.सञ्जय कुमार सहायक आचार्य-संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर,म.प्र. मो. न. 8989713997 Email- drkumarsanjaybhu@gmail.com विश्व साहित्य में संस्कृत साहित्य का स्थान श्रेष्ठ है।इसका व्याकरण और भाषा चिन्तन का जो स्वरूप निर्मित किया गया है वह अद्भुत है। बाल्मीकि, कालिदास,अश्वघोष,भारवि,माघ, भवभूति, बाणभट्ट , दण्डी और श्रीहर्ष आदि कवियों ने संस्कृत काव्य गरिमा की धवल अजस्र धारा को प्रवाहित किया है।यह प्रवाह केवल यहीं तक प्रवाहित नहीं हुआ बल्कि आज तक अपने प्रवाहमान स्थिति में वर्तमान है। रामजी उपाध्याय,रेवाप्रसाद द्विवेदी, श्रीनिवास रथ, शिवजी उपाध्याय, अभिराराजेन्द्र मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी, प्रभुनाथ द्विवेदी इत्यादि के साथ महात्मा पं.प्रेमनारायण द्विवेदी ने भी आधुनिक संस्कृत सरिता का जो जलप्लावन किया है वह बारिश की फूहार जैसी मनोरम और शीतलता प्रदान करने वाली है।इन आधुनिक संस्कृत कवियों में महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी का स्थान इस लिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्होंने अपने मौलिक रचनाओं के साथ संस्कृत अनुवाद की जो परम्परा विकसित की वह अतुलनीय है। उन्होंने हिन्दी, बुन्देली, ब्रजभाषा,अवधी आदि भाषाओं के अनेक काव्यों का संस्कृत भाषा में लगभग २१ हजार श्लोकों के रूप में अनुवाद किया है। जिसके लिए द्विवेदी जी को अनुवादक शिरोमणि भी कहा जाता है। महात्मा पं. प्रेमनारायण द्विवेदी का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जनपद अन्तर्गत बड़ा बजार क्षेत्र में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी दिन सोमवार ५ जून,१९२२ ई.को हुआ था। इनके पिता का नाम परमानन्द द्विवेदी तथा माता का नाम रूक्मिणी देवी था। इनके पिता पं. परमानन्द द्विवेदी धार्मिक एवं कर्मकांड से जुड़े विद्वान ब्राह्मण थे।जिनका प्रभाव बालक प्रेमनारायण द्विवेदी पर भी पड़ा।पं.प्रेमनारायण द्विवेदी को बचपन से ही भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति अगाध स्नेह और विश्वास था। जिसके कारण उनका जीवन सहज और अत्यंत सरल था। उनके मन में किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना रंच मात्र भी नहीं रहा करती थी। सबके कल्याण में अपने कल्याण की भावना प्रबल थी। उन्हें लोकयश या आत्मा प्रसिद्धि का स्पर्श नहीं था केवल कर्म करने का विश्वास ही उनका आत्मविश्वास था, जिसके कारण लोग उन्हें महात्मा कहते थे। अंग्रेजी शासन की भारत दुर्दशा के साक्षी थे।इस लिए भारतीय धर्म, संस्कृति ज्ञान, विज्ञान के मूल्य को समझते थे और सबको समझाने का भी प्रयास करते थे।उनका मानना था कि भारतीय धर्म और संस्कृति में वह चेतनता है जो शाश्वतता की ओर मनुष्य को प्रवृत्त करती है। पं.द्विवेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा सागर स्थित चकरा घाट के संस्कृत विद्यालय से सम्पन्न हुई। विद्यालयी शिक्षा क्विंस कालेज, वाराणसी से सम्पन्न हुई तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। जिसका नाम अब डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय हो गया है। यही से महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी जी स्नातक तथा स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1965 ई.में 'वैश्णव पुराणों में आचार समीक्षा' विषय पर पी-एच.डी.की उपाधि प्राप्त की थी। पं.प्रेमनारायण द्विवेदी जी जन्मजात एक शिक्षक थे। उन्हें पढ़ाने का बहुत शौक था।फलत: उन्होंने 1944 ई.में अध्यापन कार्य प्रारंभ कर दिया था। द्विवेदी जी अपने अध्यापकीय रुचि के कारण खुरई ,बारधा, गढ़ाकोटा आदि के संस्कृत विद्यालयों में अध्यापन कार्य किया था।अनन्तर 22 जुलाई 1955 ई.में उनकी नियुक्ति मोराजी प्राथमिक शाला में हो गयी।1958ई. में आप संस्कृत शिक्षक के रूप में पदोन्नत होकर मोतीलाल नेहरू माध्यमिक विद्यालय कटरा, सागर,म.प्र. में पहुंच गये। वहीं शिक्षण कार्य करते हुए जून 1980ई में सेवानिवृत्त हो गए। लेकिन वे केवल सरकारी विद्यालय की सेवा से निवृत्त हुए न कि अपने अध्यापकीय जीवन शैली स और लेखन कार्य से। वे पद प्रतिष्ठा से सदा दूर एक साधक की भांति जीवन व्यतीत करने के पक्षधर थे । उन्हें सागर से बहुत लगाव था जिसके कारण अनेक महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में सेवा के अवसर को उन्होंने छोड़ दिया। लेकिन कर्म में इतनी बड़ी शक्ति होती है कि इच्छा न रहते हुए भी उसका फल मिलता ही है। सेवा निवृत्ति के बाद पं.प्रेमनारायण द्विवेदी ने संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर में अतिथि आचार्य के रूप में अध्यापन कार्य किया तत्पश्चात सामवेद संस्कृत महाविद्यालय, सागर में प्राचार्य के रूप में भी अपने दायित्व का निर्वहन किये थे। प्रेमनारायण द्विवेदी किसी विश्वविद्यालय में स्थाई रूप से शिक्षण कार्य न करते हुए भी संस्कृत साहित्य का जो प्रकाश पुंज प्रकाशित किया वह विश्व संस्कृत आलय के समान अगाध और महत्वपूर्ण है। उन्होंने 'काव्य निर्झर' और 'स्तुतिकुसुममाला' नामक मौलिक रचनाएं की हैं। इसके साथ-साथ लघुकाव्य संग्रह के रूप में अनेक पद्य 'विविधकाव्य संग्रह' के नाम से प्रकाशित है ।इस संग्रह में अनेक समसामयिक विषयों पर संस्कृत भाषा में पद्य प्रकाशित हैं। संयोग से विश्व पर्यावरण दिवस के दिन ही द्विवेदी जी का जन्म दिवस भी पड़ता है इसलिए उन्होंने पर्यावरण से सम्बन्धित अनेक संस्कृत पद्यों भी की रचना की है। पं. प्रेमनारायण द्विवेदी के द्वारा जो संस्कृतानुवाद की परम्परा विकसित की गई है वह बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृत काव्यों का अन्य भाषाओं में अनुवाद की परम्परा तो मिलती है लेकिन अन्य काव्यों का संस्कृत में अनुवाद कम ही मिलते हैं। द्विवेदी जी ने हिन्दी, बुन्देली, अवधी, ब्रजभाषा आदि भाषाओं की रचनाओं का छन्दमय संस्कृतानुवाद किया है। सबसे बड़ी बात उनके अनुदित साहित्य की यह है कि कहीं भी उनमें भाव और गाम्भीर्यता में कोई कमी नहीं बल्कि उत्तरोत्तर काव्य गुणों से समन्वित तत्वों को ग्रहण किया गया है। उन्होंने तुलसीदासकृत ये श्रीरामचरितमानस का ‘श्रीमद्रामचरितमानसम्’ नाम से, विहारी सतसई का ‘सप्तशती’ संग्रह नाम से संस्कृत भाषा में अनुवाद किया है।साथ ही तुलसीदास , सूरदास के पद्यों का संस्कृत अनुवाद “तुलसीसूरकाव्यसंग्रह” के रूप में किया है। हिन्दी के अन्य कवियों कबीरदास, मीरा, रसखान,उद्धव, जयशंकर प्रसाद, महादेव वर्मा, आदि के साथ बुन्देली कवि ईसुरी तथा ब्रजभाषा के कवि पद्माकर के भी अनेक कविताओं का पं. प्रेमनारायण द्विवेदी संस्कृत अनुवाद किए हैं। इस तरह द्विवेदी जी का अनुदित साहित्य विशाल और उन्नत है। संस्कृत भाषा में प्रेमनारायण द्विवेदी से बड़ा अनुवादक आज तक कोई नहीं हुआ है इस लिए उन्हें संस्कृत अनुवाद का अग्रदूत भी कहा जाता है। पं.प्रेमनारायण द्विवेदी की सारस्वत साधना के लिए भारत सरकार ने संस्कृत विद्वत् सम्मान एवं राष्ट्रपति सम्मान से विभूषित किया है। दिल्ली संस्कृत अकादमी तथा कालिदास संस्कृत अकादमी आदि के द्वारा भी इन्हें प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।पं. प्रेमनारायण द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के आधार पर डांकटर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय, उज्जैन, तथा केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, (भोपाल परिसर) मध्यप्रदेश से अनेकों शोध कार्य हुएं हैं। इस प्रकार पं.प्रेमनारायण द्विवेदी विना थके साहित्य सर्जना में आजीवन संलग्न रहे। सदैव नित नूतन साहित्य से संस्कृत साहित्य एवं भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में अहम भूमिका का निर्वाह किये हैं। उनके काव्य और अनुदित साहित्य दोनों ही भारतीय ज्ञान- विज्ञान, परम्परा, दर्शन, धर्म और संस्कृति की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। उनका अनुदित साहित्य भारतीय जीवन दर्शन का स्पष्ट झांकी प्रस्तुत करता है और पाठक को काव्य लोक में प्रतिष्ठित करता है।जीवन के अन्तिम क्षणों में भी अध्ययन,लेखन, और अध्यापन की सारस्वत साधना करते हुए २८अप्रैल, २००६ ई. को अपने भौतिक शरीर का त्याग कर देवलोक में प्रतिष्ठित हो गये। बताया जाता है कि महात्मा पं. प्रेमनारायण द्विवेदी महाप्रयाण के दिन प्रयाण से कुछ क्षण पूर्व 'हृदि तोषो नानीत:' कविता लिखे तदोपरांत पद्मासन में ओंकार मंत्र के ध्वनि के साथ अपनी पंच भौतिक शरीर को त्याग कर हमेशा हमेशा के लिए अनन्त में विलीन हो गये। ऐसे संस्कृत के समुपासक महात्मा प्रेमनारायण द्विवेदी के जन्म जयंती के अवसर पर हम उन्हें शब्द्कुशुमांजलि अर्पित करते हैं।

Sunday 14 February 2021

साहित्य- संगीत की अनन्य उपासिका वनमाला भवालकर

साहित्य- संगीत की अनन्य उपासिका वनमाला भवालकर (जन्म जयंती विशेष ८ फरवरी ) डॉ. सञ्जय कुमार सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,( म.प्र.) Mo.No.8989713997,9450819699 Email-drkumarsanjayBhu@gmail.com डॉ.वनमाला भवालकर आधुनिक संस्कृत काव्य गरिमा के उन्नायक लेखकों में से एक हैं।इनकी संस्कृत संगीतकाएं, गद्य, रूपक, स्तोत्र और संस्कृत कविताओं से संस्कृत जगत् आलोकि है। साहित्य और संगीत के द्वारा डॉ.वनमाल भवालकर का अभिनव काव्य रूप विधान, मौलिक रचना प्रक्रिया व प्रभावपूर्ण भावोद्बोधन की क्षमता अद्वितीय है। हासिए पर रहे स्त्री शिक्षा एवं सम्वर्धन की सदैव प्रेरणा स्रोत बनने वाली डॉ.वनमाला भवालकर का जन्म कर्नाटका के बेलगांव नगर में ८ फरवरी १९१४ ई को ‌हुआ था। इनके पिता महामहिम श्री नारायण राव लोकूर बम्बई उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश थे तथा माता श्रीमती लक्ष्मी बाई लोकूर एक गृहिणी थी।उनका परिवार बहुत सम्पन्न था लेकिन भारत विपन्न।गुलामी की अर्गला में जकड़े हुए भारत की दुर्दशा वनमाला भवालकर अपने आंखों से देखा था। अशिक्षा और गरीबी से उनका हृदय प्रारम्भ से द्रवित था और स्त्रियों की दशा ने तो उन्हें करुणा का सागर बना दिया था। एतदर्थ पहले वे स्वयं शिक्षा ग्रहण करने के लिए मुम्बई विश्वविद्यालय से स्नातक तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विषय में स्नातकोत्तर की कक्षा में प्रवेश ली। अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण कर डां.भवालकर सन् १९४५ ई.में गोखले मेमोरियल कालेज, कलकत्ता में अध्यापन कार्य भी प्रारंभ कर दिया था।यह उनके स्त्री शिक्षा के प्रति समर्पण का प्रमाण है।उनका सागर आना तब हुआ जब उनके पति प्रो.डी.आर.भवालकर की नियुक्ति सागर विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान विभाग में हुई।इस तरह डा. भवालकर भी विश्वविद्यालय के स्थापना के समय १९४६ ई.में संस्कृत विभाग में मानद व्याख्याता के रूप में नियुक्त हो गई। विद्वत्ता और समर्पण के कारण इनकी १९५३ ई.में स्थायी व्याख्याता के रूप में कर दी गई । इस प्रकार आपको सागर विश्वविद्यालय जिसका अब डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय नाम हो गया है उसका प्रथम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है। अध्यापन कार्य करते हुए डॉ भवालकर 'महाभारत में नारी' विषय पर पी-एच.डी.की उपाधि प्राप्त की थी।स्वतन्त्रता पश्चात संस्कृत विषय में पी-एच.डी.की उपाधि भी एक महिला के लिए गर्व की बात थी।जिसका बाद में ग्रंथाकार में प्रकाशन भी हुआ।यह ग्रंथ स्त्री विमर्श के केन्द्र में मील का पत्थर के समान आलोचक वर्ग में समादृत है। डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के अनेक गतिविधियों में डां भवालकर का योगदान अविस्मरणीय है। जिनमें उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य बालिका छात्रावास के वार्डेन पद के दायित्व का निर्वाह है। उन्होंने छात्रावास में छात्राओं की समस्या तथा उनके व्यक्तित्व को सबल एवं सशक्त बनाने में सदैव संलग्न रहा करती थी। उन्होंने स्वतन्त्रता पश्चात सागर में स्त्री शिक्षा का अलख जगाने का कार्य किया था। इसी रूप में व्यापक दृष्टिकोण के साथ उनका लेखन कार्य भी महत्वपूर्ण है। उन्हें संस्कृत, के साथ हिन्दी, मराठी, कन्नड़,जर्मन, तथा, अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान था ‌।वे संस्कृत को लोकोपयोगी बनाने के पक्षधर थी। इस लिए उन्होंने विवाह, यज्ञोपवीत, जन्म दिवस आदि का मंगलाष्टक और गणेश, सरस्वती,लक्ष्मी,व्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं पर स्तोत्र लिखा है। डॉ भवालकर ने दो संस्कृत संगीतकाएं लिखा है- रामवनगमनम् और पार्वतीपरमेश्वरीयम्। ये दोनों रचनाएं संगीत के ताल,लय, और छन्द पर आधारित हैं।जो उनके संगीत के मर्मज्ञ होने के प्रमाण स्वरूप है।रामवनगमनम् संगीतिका के ४० पद्य और पार्वती परमेश्वरीयम् संगीतिका के ६५ पद्य विविध रागों में उपनिबद्ध है। जिसे बड़े सहज रूप में गाया जा सकता है ‌। इन्ही विशेषताओं के कारण डॉ.भवालकर को साहित्य एवं संगीत की अनन्य उपासिका कहा जाता है। इनके रूपक साहित्य के क्षेत्र में दो एकांकी नाटक-पाददण्ड: और अन्नदेवता। गीतनाट्य- सीताहरणम् तथा अनुदित नाट्य के रूप में दीपदानम् का बड़ा नाम है। डॉ वनमाला भवालकर ने द्रोपदी गद्य काव्य लिखकर अपने को गद्य विधा से अछुता नहीं छोड़ा है। इन्होंने प्रेमोपहार: ,शुभाशीर्वचनम्, संस्कृत दिवस समारोह:,गौरोहरि: आदि संस्कृत कविताएं भी लिखा है।इनकी अनेक रचनाएं अभी भी अप्रकाशित हैं। इस प्रकार निरन्तर संस्कृत साहित्य-संगीत का उन्नयन करते हुए विश्वविद्यालय सेवा से रीडर पद पर कार्य करते हुए १९७६ ई. सेवा निवृत्त हो गयी। उन्हें अध्यापन व कार्यशैली के कारण विश्वविद्यालय द्वारा दो साल के लिए एक्सटेंशन भी दिया गया था।इस प्रकार डॉ भवालकर केवल विश्वविद्यालय सेवा से निवृत्त हो गई न कि लेखन और सामाजिक कार्यों से। वे अवकाश प्राप्त के बाद भी संस्कृत साहित्य, संगीत एवं भारतीय संस्कृति के उत्थान के साथ साथ स्त्री शिक्षा के उन्नयन के लिए लगातार कार्य करती रही। उन्होंने अपने जीवन में किसी कार्य को असम्भव नहीं माना। लेखन उनके जीवन की पूंजी थी। जिसके लिए उन्हें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश से अनेक पुरस्कार भी दिए गए हैं।उनका हिन्दी नाटक 'उधार का पति' अपने समय का बहुत लोकप्रिय नाटक है।इसका मंचन सम्पूर्ण भारत में किया जा चुका है।वनमाला भवालकर ने 'संसाराचा सारीपाट' तथा 'मीतु झा आहे' नामक दो मराठी नाटक भी लिखा है ।'ओमेन इन द महाभारता 'एवं 'इमनेंट ओमेन इन द महाभारता' नामक दो ग्रंथ की रचना इन्होंने अंग्रेजी भाषा में किया है। डा. भवालकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व पर संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से डा.देवेन्द्र प्रसाद तिवारी पी -एच.डी उपाधि भी प्राप्त की है | वानमाला भावालकर की प्रेम नारायण द्विवेदी ,राधाबल्लभ त्रिपाठी ,कुसुम भूरिया दत्ता आदि जैसी शिष्य परम्परा भी रही है | इस तरह निरन्तर विना थके -हारे मां भारती की उपासना करने वाली डॉ भवालकर अपने जीवन के अन्तिम अवस्था में कैंसर जैसे असाध्य विमारी से पीड़ित होने के कारण इन्दौर में ३०जुलाई २००३ ई.को अपनी भोतिक शरीर को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए यश:शरीर में विलीन हो गयी। उन्हें जन्म जयंती पर शत शत नमन।