Sunday 14 February 2021

साहित्य- संगीत की अनन्य उपासिका वनमाला भवालकर

साहित्य- संगीत की अनन्य उपासिका वनमाला भवालकर (जन्म जयंती विशेष ८ फरवरी ) डॉ. सञ्जय कुमार सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,( म.प्र.) Mo.No.8989713997,9450819699 Email-drkumarsanjayBhu@gmail.com डॉ.वनमाला भवालकर आधुनिक संस्कृत काव्य गरिमा के उन्नायक लेखकों में से एक हैं।इनकी संस्कृत संगीतकाएं, गद्य, रूपक, स्तोत्र और संस्कृत कविताओं से संस्कृत जगत् आलोकि है। साहित्य और संगीत के द्वारा डॉ.वनमाल भवालकर का अभिनव काव्य रूप विधान, मौलिक रचना प्रक्रिया व प्रभावपूर्ण भावोद्बोधन की क्षमता अद्वितीय है। हासिए पर रहे स्त्री शिक्षा एवं सम्वर्धन की सदैव प्रेरणा स्रोत बनने वाली डॉ.वनमाला भवालकर का जन्म कर्नाटका के बेलगांव नगर में ८ फरवरी १९१४ ई को ‌हुआ था। इनके पिता महामहिम श्री नारायण राव लोकूर बम्बई उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश थे तथा माता श्रीमती लक्ष्मी बाई लोकूर एक गृहिणी थी।उनका परिवार बहुत सम्पन्न था लेकिन भारत विपन्न।गुलामी की अर्गला में जकड़े हुए भारत की दुर्दशा वनमाला भवालकर अपने आंखों से देखा था। अशिक्षा और गरीबी से उनका हृदय प्रारम्भ से द्रवित था और स्त्रियों की दशा ने तो उन्हें करुणा का सागर बना दिया था। एतदर्थ पहले वे स्वयं शिक्षा ग्रहण करने के लिए मुम्बई विश्वविद्यालय से स्नातक तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विषय में स्नातकोत्तर की कक्षा में प्रवेश ली। अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण कर डां.भवालकर सन् १९४५ ई.में गोखले मेमोरियल कालेज, कलकत्ता में अध्यापन कार्य भी प्रारंभ कर दिया था।यह उनके स्त्री शिक्षा के प्रति समर्पण का प्रमाण है।उनका सागर आना तब हुआ जब उनके पति प्रो.डी.आर.भवालकर की नियुक्ति सागर विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान विभाग में हुई।इस तरह डा. भवालकर भी विश्वविद्यालय के स्थापना के समय १९४६ ई.में संस्कृत विभाग में मानद व्याख्याता के रूप में नियुक्त हो गई। विद्वत्ता और समर्पण के कारण इनकी १९५३ ई.में स्थायी व्याख्याता के रूप में कर दी गई । इस प्रकार आपको सागर विश्वविद्यालय जिसका अब डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय नाम हो गया है उसका प्रथम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है। अध्यापन कार्य करते हुए डॉ भवालकर 'महाभारत में नारी' विषय पर पी-एच.डी.की उपाधि प्राप्त की थी।स्वतन्त्रता पश्चात संस्कृत विषय में पी-एच.डी.की उपाधि भी एक महिला के लिए गर्व की बात थी।जिसका बाद में ग्रंथाकार में प्रकाशन भी हुआ।यह ग्रंथ स्त्री विमर्श के केन्द्र में मील का पत्थर के समान आलोचक वर्ग में समादृत है। डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के अनेक गतिविधियों में डां भवालकर का योगदान अविस्मरणीय है। जिनमें उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य बालिका छात्रावास के वार्डेन पद के दायित्व का निर्वाह है। उन्होंने छात्रावास में छात्राओं की समस्या तथा उनके व्यक्तित्व को सबल एवं सशक्त बनाने में सदैव संलग्न रहा करती थी। उन्होंने स्वतन्त्रता पश्चात सागर में स्त्री शिक्षा का अलख जगाने का कार्य किया था। इसी रूप में व्यापक दृष्टिकोण के साथ उनका लेखन कार्य भी महत्वपूर्ण है। उन्हें संस्कृत, के साथ हिन्दी, मराठी, कन्नड़,जर्मन, तथा, अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान था ‌।वे संस्कृत को लोकोपयोगी बनाने के पक्षधर थी। इस लिए उन्होंने विवाह, यज्ञोपवीत, जन्म दिवस आदि का मंगलाष्टक और गणेश, सरस्वती,लक्ष्मी,व्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं पर स्तोत्र लिखा है। डॉ भवालकर ने दो संस्कृत संगीतकाएं लिखा है- रामवनगमनम् और पार्वतीपरमेश्वरीयम्। ये दोनों रचनाएं संगीत के ताल,लय, और छन्द पर आधारित हैं।जो उनके संगीत के मर्मज्ञ होने के प्रमाण स्वरूप है।रामवनगमनम् संगीतिका के ४० पद्य और पार्वती परमेश्वरीयम् संगीतिका के ६५ पद्य विविध रागों में उपनिबद्ध है। जिसे बड़े सहज रूप में गाया जा सकता है ‌। इन्ही विशेषताओं के कारण डॉ.भवालकर को साहित्य एवं संगीत की अनन्य उपासिका कहा जाता है। इनके रूपक साहित्य के क्षेत्र में दो एकांकी नाटक-पाददण्ड: और अन्नदेवता। गीतनाट्य- सीताहरणम् तथा अनुदित नाट्य के रूप में दीपदानम् का बड़ा नाम है। डॉ वनमाला भवालकर ने द्रोपदी गद्य काव्य लिखकर अपने को गद्य विधा से अछुता नहीं छोड़ा है। इन्होंने प्रेमोपहार: ,शुभाशीर्वचनम्, संस्कृत दिवस समारोह:,गौरोहरि: आदि संस्कृत कविताएं भी लिखा है।इनकी अनेक रचनाएं अभी भी अप्रकाशित हैं। इस प्रकार निरन्तर संस्कृत साहित्य-संगीत का उन्नयन करते हुए विश्वविद्यालय सेवा से रीडर पद पर कार्य करते हुए १९७६ ई. सेवा निवृत्त हो गयी। उन्हें अध्यापन व कार्यशैली के कारण विश्वविद्यालय द्वारा दो साल के लिए एक्सटेंशन भी दिया गया था।इस प्रकार डॉ भवालकर केवल विश्वविद्यालय सेवा से निवृत्त हो गई न कि लेखन और सामाजिक कार्यों से। वे अवकाश प्राप्त के बाद भी संस्कृत साहित्य, संगीत एवं भारतीय संस्कृति के उत्थान के साथ साथ स्त्री शिक्षा के उन्नयन के लिए लगातार कार्य करती रही। उन्होंने अपने जीवन में किसी कार्य को असम्भव नहीं माना। लेखन उनके जीवन की पूंजी थी। जिसके लिए उन्हें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश से अनेक पुरस्कार भी दिए गए हैं।उनका हिन्दी नाटक 'उधार का पति' अपने समय का बहुत लोकप्रिय नाटक है।इसका मंचन सम्पूर्ण भारत में किया जा चुका है।वनमाला भवालकर ने 'संसाराचा सारीपाट' तथा 'मीतु झा आहे' नामक दो मराठी नाटक भी लिखा है ।'ओमेन इन द महाभारता 'एवं 'इमनेंट ओमेन इन द महाभारता' नामक दो ग्रंथ की रचना इन्होंने अंग्रेजी भाषा में किया है। डा. भवालकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व पर संस्कृत विभाग डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से डा.देवेन्द्र प्रसाद तिवारी पी -एच.डी उपाधि भी प्राप्त की है | वानमाला भावालकर की प्रेम नारायण द्विवेदी ,राधाबल्लभ त्रिपाठी ,कुसुम भूरिया दत्ता आदि जैसी शिष्य परम्परा भी रही है | इस तरह निरन्तर विना थके -हारे मां भारती की उपासना करने वाली डॉ भवालकर अपने जीवन के अन्तिम अवस्था में कैंसर जैसे असाध्य विमारी से पीड़ित होने के कारण इन्दौर में ३०जुलाई २००३ ई.को अपनी भोतिक शरीर को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए यश:शरीर में विलीन हो गयी। उन्हें जन्म जयंती पर शत शत नमन।