Friday 7 August 2020

संस्कृत केवल भाषा नहीं जीवन दृष्टि है -डॉ संजय कुमार, सहायक आचार्य ,संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र. ,drkumarsanjaybhu@gmail.com Mo.No.8989713997

भारत में प्रत्येक वर्ष स्रावण पूर्णीमा के दिन संस्कृत दिवस मनाया जाता है।जिसका प्रारम्भ सन् 1969 ई.के भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के उस आदेश से प्रारंभ हुआ जिसमें केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर संस्कृत दिवस मनाने का निर्देश पारित किया गया था।इस निर्देश में स्रावण पूर्णीमा को ही संस्कृत दिवस के रूप में स्वीकार किया गया क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षा सत्र प्रारंभ होता था। गुरुकुल में विद्यार्थी इसी दिन से अध्ययन प्रारंभ करते थे जो पौष मास के पूर्णीमा तक चलता था। फलत:स्रावण मास की पूर्णिमा ही संस्कृत दिवस के लिए उपयुक्त मानी गयी। संस्कृत दिवस या संस्कृत सप्ताह मनाने का उद्देश्य संस्कृत भाषा के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के साथ उसे संरक्षण एवं संवर्धन प्रदान करना है।यह इस लिए आवश्यक है क्योंकि संस्कृत भाषा से ही सभी भारतीय भाषाएं उत्पन्न हुई हैं।प्राकृत,पालि, अपभ्रंशादि के साथ अन्य हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती, तेलगु आदि भाषाएं संस्कृत से ही निकली हुई हैं। पाणिनि व्याकरण की सर्वमान्यता के कारण इस देश की समस्त भाषाओं ने संस्कृत के वर्णक्रम को अपनाया है |फलस्वरूप संस्कृत का ब्यापक प्रसार हुआ तो उसने देश की अन्य भाषाओँ को आत्मसात कर प्रभावित किया और अपने शव्द भंडार को समृद्ध किया जिसका परिणाम यह हुआ कि कन्नड़ और तेलगु में लगभग ७० प्रतिशत और तमिल में ६० प्रतिशत शब्दवाली संस्कृत मूल के है | विश्व की अन्य भाषाओं पर भी संस्कृत का प्रभाव देखा जा सकता है। यह संस्कृत ही भारत की मूल भाषा है। इसी से भारत की पहचान और अस्मिता है।वस्तुत: भाषा ही वह तत्त्व है जिसके द्वारा हम अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। भाषा जीवन में उस प्रकाश के समान है जिसके न रहने पर तीनों लोक घोर अन्धकार के समान है। अतः भाषाओं का संरक्षण करना मानव का परम कर्तव्य है। संस्कृत की महत्ता इस बात से भी सिद्ध होती है कि संस्कृत का सम्पूर्ण भारत के विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त दुनिया के 250 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में अध्ययन- अध्यापन होता है।इस तरह संस्कृत में रोजगार का भी बड़ा क्षेत्र है। संस्कृत पढ़कर,अध्यापक, धर्मगुरु,अनुवादक,सम्पादक, आकाशवाणी-दुरदर्शन में संबाददाता तथा प्रशासनिक सेवा में अपना योगदान दें सकते हैं साथ ही शोध के क्षेत्र में भी संस्कृत में बहुत अधिक सम्भावनाएं हैं। वैदिक, पौराणिक तथा शास्त्रीय में जीवन से जुड़ी अत्यधिक सामग्री विद्यमान है जिसे शोध के माध्यम से लोकोपयोगी बनाया जा सकता है। संगणकीय उपयोग के लिए भी संस्कृत भाषा की महत्ता दिनों-दिन बढ़ रही है। पश्चिमी संगणकशास्त्रज्ञ ऐसी भाषा के खोज के में थे जिसका संगणकीय प्रणाली में उपयोग कर उसका संसार की किसी भी भाषा में उसी क्षण रूपांतरण हो जाय उन्हें ऐसी भाषा के रूप में संस्कृत ही मिली। इन्ही सब विषयों को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति में भी संस्कृत को विशेष महत्व दिया गया संस्कृत के महत्ता के सम्बन्ध में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरु ने कहा था –अगर मुझसे पूछा जाय कि भारत का सबसे बड़ा खजाना क्या है और श्रेष्ठतम विरासत क्या है तो असंदिग्ध रूप से यही कहुंगा कि संस्कृत भाषा और साहित्य और जो कुछ उसमें है यह उत्कृष्ट विरासत है और जब तक यह जीवित रहेगी तब तक भारत की मेधा अक्षुण रहेगी | स्व.शुषमा स्वराज ने भी कहा है कि संस्कृत में शब्दों का अपार भंडार है ,रचनाकार अपने व्यक्तित्व के अनुसार उसे चुनता है |जैसे लंका विजय के समय राम और रावण के स्तोत्रों को रामचरितमानस में लिखा गया है लेकिन दोनों अपने स्वभाव के अनुसार शब्द प्रयोग किये है जिससे उनमे पर्याप्त अंतर दिखलाई पड़ता है | संस्कृत के विषय में कहा जाता है किभारत की डी प्रतिष्ठाएं हैं संस्कृत और संस्कृति –भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे |संस्कृतं संस्क्रितिश्च | यह संस्कृत की महत्ता का सर्वकालिक और आधिकारिक बयानहै | भारत का संस्कृत से सम्बन्ध शारीर और आत्मा का है| दोनों एक दूसरे के विना निष्प्राण है| संस्कृत भाषा की ऐसी विशेषता है कि इसमें लिखे या सुनें हुए शब्दों का अर्थ न समझने पर भी उसके चैतन्यता एवं सात्विकता का बोध होने लगता है।इसके शब्द माधूर्य से मन मस्तिष्क पुलकित हो उठता है।भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि निरुक्त इत्यादि संस्कृत ध्वनि विज्ञान की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं| इन सबसे भिन्न संस्कृत की सबसे बड़ी विशेषता उसकी जीवन दृष्टि है।यह थके हारे समाज को एक दृष्टि प्रदान करती है जिसका परिणाम सुखद और निरापद होता है। संस्कृत भारतीय साहित्य व समाज के भव्य विचारों का दर्पण है। यहां जीवन निर्वाह के लिए शास्त्र और साहित्य का मधुर सामंजस्य स्थापित है। भारतीय समाज का मेरुदण्ड गृहस्थ आश्रम को माना जाता है जिसे संस्कृत काव्यों में भली भांति स्वीकार भी किया गया है। संस्कृत ही गार्हस्थ्य धर्म की सांगोपांग व्याख्या करती है। वेद,वेदांग ,उपनिषद ,सांख्य,योग,न्याय ,वैशेषिक , मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शन मूल रूप से संस्कृत में ही विद्यमान हैं। धर्मशास्त्र हमारे जीवन का व्यवहार शास्त्र है वह भी संस्कृत में भी है। अतः इन्हें जानने समझने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत ही समाज के आचरण और व्यवहार को अनुशासित करती है। संस्कृत साहित्य का आद्य महाकाव्य वाल्मिकीय रामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी पर घूमता है। यहां महाराज दशरथ क पितृत्व, कौशल्या का आदर्श मातृत्व, सीता का सतीत्व,भरत और लक्ष्मण का त्याग, सुग्रीव की मित्रता,और सबसे अधिक रामचंद्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गृहस्थ जीवन के चरम सीमा के रूप में वर्णित है।इन सबकी अभिव्यक्तियों से संस्कृत वाड़्मय चमत्कृत हो जाता है। वहीं महाभारत भी धर्म विजय के लिए प्रसिद्ध है। इसी रूप में कालिदास,माघ,भारवि, भवभूति,श्रीहर्ष, के विमल काव्यों से अभिनव एवं शुभ आचरण-व्यवहार की सीख मिलती है। जिसका प्रभाव स्वर्गीय सुखों से मानव मन पर कम नहीं पड़ता है। संस्कृत भाषा व साहित्य के साथ हमें अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र के साथ ही साथ आयुर्वेद, और योग को वरदान स्वरूप प्रदान करती है।आज कोरोना काल में आयुर्वेद और योग ही हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का एक मात्र आश्रय बना हुआ है। राष्ट्रीय भावना, पर्यावरण,विश्वबन्धुत्व की भावना से आज सम्पूर्ण विश्व संस्कृत के ज्ञान गरिमा से प्रभावित है। संस्कृत हमारे लोक जीवन के समीप की भषा है जहाँ वैदिक युग से ही लोकजीवन की सम्बेदना और जीवन दशा का चित्रण मिलता है |कालिदास ,बाणभट्ट ,दण्डी आदि ऐसे कवियों के रचनाओं में हमारे लोक जीवन ली स्पष्ट झलक मिलतीहै |इसलिए संस्कृत को केवल कर्मकांड की भाषा कहना उचित नहीं है |कर्मकांड का संस्कृत में क्षेत्र तो लगभग दो प्रतिशत ही होगा शेष तो शास्त्र ,साहित्य और समाज से भरा पड़ा है | तत्त्वज्ञान और यथार्थ पर आधारित भारतीय दर्शन का मूल स्रोत संस्कृत ही है। जहां आत्मा और व्रह्म का विलक्षण प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता व्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्त्रनाम,अनुगीता, भीष्मवस्तराज, गजेन्द्रमोक्ष जैसे आध्यात्मिक तथा भक्ति परायण ग्रन्थों से भला कौन परिचित नहीं है।जिसके आध्यात्मिक ताना बाना में सम्पूर्ण व्रह्माण्ड समाहित है। संस्कृत को धर्म निरपेक्ष भाषा भी का सकतें है |अकबर के समय में अल्लोपनिषद की रचना की गयी थी |दाराशिकोह और अब्दुर्रहमान खानखाना जैसे मुग़ल सामंतों ने वेड ,उपनिषद और श्रीमद्भागवद्गीता का अनिवाद संस्कृत में कराया |खानखाना तो संस्कृत के अच्छे कवि बजी थे | उन्होंने खेद्कौतुकम जैसे ग्रन्थ का प्रणयन संस्कृत भाषा में किया है |उनका लिखा हुआ गंगाष्टकं तो संस्कृत उत्कृष्ट रत्न है | संस्कृत भाषा को दैवी भाषा कहने का उद्देश्य भी यही है कि इससे दिव्यता प्रकट होती है।यह बुद्धि एवं विचार को शुद्ध रखने वाली भाषा है।यह भेद नहीं अभेद की बात करती है यह केवल शास्त्रीय रूप से ही समृद्ध नहीं है बल्कि मनोरंजनात्मक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यहां पंचतंत्र, हितोपदेश, तथा कथासरित्सागर जैसे कथा ग्रंथ हैं।कादम्बरी और दशकुमारचरित के अनेक पक्ष मानव मन को रंजित करते हैं। यहां अभिज्ञानशाकुन्तल और उत्तररामचरित भी हैं जो थके -हारे मानव के लिए आश्रय स्थल हैं।यह संस्कृत सबके सुख और कल्याण का विधान करती है इसमे कही भी द्वेष, घृणा आदि का भाव नहीं है।इस लिए सम्पूर्ण मानव जाति का यह कर्त्तव्य है कि सभी लोग संस्कृत को अपनाएं और अपने जीवन का नव निर्माण करें।