Friday 22 July 2022

बालगंगाधर तिलक की राष्टवादी पत्रकारिता


                                                  (जयंती विशेष)

                             डॉ. सञ्जय कुमार
                           संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,( म.प्र.)
                                             Mo.No.8989713997,9450819699
                                          Email-drkumarsanjaybhu@gmail.com
                                                   भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राष्ट्रवाद के जनक बालगंगाधर तिलक का जन्म  23 जुलाई 1856  ईस्वी में  हुआ था |  इनके पिता का नाम श्री गंगाधरपंत था तथा जो एक  मराठी पाठशाला में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत थे| बालगंगाधर तिलक को  जीवन की थाती  पिता से ही प्राप्त हुई थी | उन्हीं से  प्रेरणा प्राप्त करके बालगंगाधर तिलक भारतीय स्वतंत्रता, भारतीय संस्कृति,अशिक्षा , गरीबी  और भारतीय दुर्दशा आदि समस्याओं पर विचार करते थे एवं समाधान का चिंतन करते थे |वे ऐसे देश की कल्पना करते थे जो स्वतंत्र हो ,जहाँ के लोग अपने मन के अनुसार कार्य कर सके और मन की बात कर सके |  मनुष्य स्वतंत्र जन्म लिया है इसलिए स्वतंत्रता पूर्वक जीवन जीने का वह अधिकारी है | इसी  लिए उन्होंने एक नारा दिया - स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है |यह नारा इतना लोकप्रिय  हुआ कि प्रत्येक भारतवासी इस नारे पर कुर्बान होने के लिए तत्पर हो गया | स्वतंत्रता की चाहत और बढ़ने लगी |बच्चे ,बूढ़े ,जवान सबमें स्वतंत्रता भूख  अग्नि के समान बढ़ने लगी और देश स्वतंत्रता के लिए अति उत्साहित हो गया | जब बालगंगाधर तिलक इस धरा –धाम जब  पर अवतरित हुए तब भारत अनेक प्रकार की समस्याओं से जूझ रहा था | देश की विषम अवस्था जग जाहिर थी |लोग हताश –निराश थे |आशा की एक किरण भी दूर –दूर तक नजर नहीं आ रही थी |लेकिन माँ भारतीके कोख से उस समय  ऐसे अनेक रत्नों ने जन्म लिये जिन्मे बालगंगाधर तिलक एक थे |  
         उस समय  अशिक्षा, बेरोजगारी अपनी चरम पर थी और इससे भी कष्टकर थी   अंग्रेजों की परतंत्रता , जो प्रत्येक भारतीय के लिए अभिशाप बन गयी थी |  परतंत्रता मनुष्य की के लिए कलंक  के समान होती है|यह जीवन को निरुपाय बना देती है | जरा विचार कीजिए कि जब आप अपने मन की बात किसी से न कर सकते और न वह कर सकते हैं जिसे आपकी चेतना करना चाहती है| तो आप उस समय  स्वयं को कितना विवश और असहाय समझेगें | इस विकट समस्या से बालगंगाधर तिलक  देश को मुक्त करना चाहते थे | जिसके लिए वे  सबसे बड़ा अस्त्र शिक्षा और पत्रकारिता को मानते थे | वे ऐसी शिक्षा के पक्षधर थे जिससे भारत की आर्थिक दशा में सुधार हो और देश अंग्रेजों के शासन से मुक्त हो सके | आधुनिक शिक्षा को बालगंगाधर तिलक इसलिए अनिवार्य मानते थे क्योंकि अंग्रेजों का सामना बिना आधुनिक शिक्षा या भाषा को जाने संभव नहीं था | आधुनिक शिक्षा के द्वारा ही भारतीय समाज के पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है| जिसके लिए  वे 2 जनवरी 1880 में आगरकर और विष्णुशास्त्री  चिपलूणकर की सहायता से एक न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना किए| इस स्कूल में शिक्षक के रूप में महादेव जोशी और शिवराम आप्टे भी कार्यरत थे | शिवराम आप्टे संस्कृत के बड़े विद्वान अध्यापक थे |उन्होंने संस्कृत ,हिंदी, अंग्रेजी के अनेक  कोशों का निर्माण किया है   |
         बालगंगाधर तिलक शिक्षा के लिए पूरे भारत को आवाहन करते हुए किसी सभा में कहा था कि साथियों ! हमारा देश शिक्षा के अभाव में पिछड़े देशों में गिना जाता है| यही कारण है कि अंग्रेज भारत की जनता का शोषण कर रहे हैं| उन्हें गुलाम बनाकर रखें हैं | ऐसे में हर भारतवासी को शिक्षा प्राप्त करने की जरूरत है | इसके लिए हमने एक स्कूल का श्रीगणेश भी किया है |  इस स्कूल में भारत के सभी लोग आ सकते हैं ,यहां सभी को भारत की आधुनिक शिक्षा से अवगत कराया जायेगा | जिससे देश की जनता को बाहर की दुनिया का ज्ञान भी होगा | सभी  अपने देश की दशा को समझे , समाज की दशा को समझे| इससे उनके  व्यक्तित्व का  विकास होगा |अतः  मेरी आप सभी से प्रार्थना है कि आप हमारे स्कूल में आकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें| बालगंगाधर तिलक कुप्रथा के रूप में बालविवाह, सतीप्रथा, पर्दाप्रथा,  विधवा दुर्दशा आदि का कारण अशिक्षा को ही मानते थे | इस तरह शिक्षा के द्वारा अपने देश को हर प्रकार से  स्वतंत्र और सशक्त बनाने का दृढ़ निश्चय बाल गंगाधर तिलक के मानस  में विद्यमान था |एक बात और महत्वपूर्ण है कि वे  शिक्षा को आय के साधन के रूप में नहीं मानते थे यही कारण था कि स्वयं स्थापित किया हुआ स्कूल जब डेक्कन एजुकेशन सोसायटी के अंतर्गत आ गया और सोसायटी द्वारा निरन्तर पैसे को लेकर तनाव बढने  लगा तो इन्होंने सोसायटी और स्कूल दोनों इस्तीफा दे दिया |  
        स्वतंत्रता के लिए  दूसरा  अस्त्र वे  पत्रकारिता को मानते थे | पत्रकारिता किसी समस्या को समाज के सामने बड़े प्रभावकारी  रूप से केवल  उपस्थित ही नहीं करती है बल्कि  उस समस्या से समाज को अवगत कराती हुई उसके समाधान का मार्गप्रशस्त करती है |इसलिए उन्होंने मराठी में केसरी  और अंग्रेजी में मराठा साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ  किया था| इन दोनों समाचारपत्रों से लोगों में राजनीतिक चेतना का गहरा प्रभाव  राष्ट्रीय स्तर पर पड़ा | स्वतंत्रता किसी देश के लिए क्यों आवश्यक है और अंग्रेजी सरकार भारत  के प्रति अपना क्या दृष्टिकोण रखते हैं एवं उनकी उपभोगवादी नीति को सबके सामने लाने में इन समाचारपत्रों की भूमिका अग्रणी थी  | बालगंगाधर तिलक का मानना था कि जब – तक अंग्रेजों का भारतीय जनता के प्रति  विचार और दृष्टिकोण सम्पूर्ण जन-मानस तक नहीं पहुचेगा तबतक स्वतंत्रता का संघर्ष राष्ट्र व्यापी नहीं बान सकेगा |पत्रकारिता ही देश और समाज को संरक्षण – संबर्धन प्रदान करने की सशक्त स्थली है | इस पत्रकारिता को जितने ईमानदारी और कर्मठता से संचालित किया जायेगा देश उतना ही सशक्त और उन्नतशील बनेगा | उन्हें अध्यात्म से बड़ा लगाव था जिसके पूर्ति के लिए वे निरंतर श्रीमद्भागवद्गीता का अध्ययन करते थे, परिणामत: उन्होंने गीतारहस्य का प्रणयन किया |जिसमें बालगंगाधर तिलक ने बताया है कि   मानवता का  नि:स्वार्थ भाव से सेवा करना ही  श्रीमद्भागवद्गीता का सन्देश है | श्रीमद्भागवद्गीता  मनुष्य को संसार से कभी विमुख होने की प्रेरणा नहीं देती बल्कि निष्काम कर्म का प्रतिपादन करती है| देश सेवा का गुरुभार निष्काम कर्मयोगी के द्वारा ही संभव है | बालगंगाधर तिलक वास्तव में भारतीय इतिहास और संस्कृति के प्रति बहुत निष्ठा भी रखते थे |उन्होंने वेदों में आर्कटिक होम नामक एक ग्रन्थ भी लिखा है जिसमें वेदों के कालखंड के सम्बन्ध में गंभीर विवेचना की गयी है | बालगंगाधर तिलक भारतीय जनता को एक  सूत्र में बाधना चाहते थे | जीवन की सुघरता समूह  में ही निखरती है| इसलिए  गणेश उत्सव और शिवाजी दिवस का आयोजन उनके द्वारा किया जाता था | बालगंगाधर तिलक का मानना था कि  इस भूमि पर जो लोग पैदा हुएं हैं ,जो लोग  यहाँ रहते हैं उन सब का कर्तव्य है कि इस भूमि के संरक्षण –संबर्धन में अपना योगदान दें | बालगंगाधर तिलक के व्यक्तित्व कृतित्व पर आधारित अनेक भाषाओं में काव्य रचनाएं  भी की गई है  जिसमें संस्कृत भाषा का भी  नाम आता है| माधवहरी अणे द्वारा तिलकयशोर्णव: नामक वृहद् महाकाव्य की रचना की गयी है| माधवहरी अणे के  बालगंगाधर तिलक राजनीतिक गुरु थे| तिलक की प्रेरणा से वे  स्वतंत्रता संग्राम के प्रहरी बने | इसलिए उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित होकर  तिलक की राष्ट्रभक्तिमय   व्यक्तित्व इस महाकाव्य में प्रदान किया  है| तिलक गाथा के दूसरे बड़े संस्कृत कवि अप्पाशास्त्री राशिवडेकर का नाम आता है |  उनके द्वारा  तिलकमहाशयस्य कारागृहनिवास: नामक गीतिकाव्य लिखा गया है| इसमें अनेक पद्यों द्वारा  तिलक  के स्वतंत्रता संघर्ष और मांडले जेल की कार्यशैली को रेखांकित किया गया है |
   बालगंगाधर तिलक एक राष्ट्र प्रहरी के समान अडिग रूप राष्ट्र सेवा में तत्पर रहने वाले स्वतंत्रता सेनानी थे | वे कभी परिस्थिति से निराश होने वाले नहीं थे | उन्होंने  सदैव राष्ट्र सेवा को आगे रखा | पारिवारिक जीवन राष्ट्र सेवा में कभी बाधक नहीं अपितु साधक ही रहा |बालगंगाधर तिलक निरंतर अंग्रेजी सरकार की गलत  नीतियों का विरोध करते रहे | उनके फूट डालो और राज्य करो को कभी भी सफल नहीं होने दिए | उनके द्वारा होमरूल लीग की स्थापना की गयी |बताया जाता है कि 1915 ई.में पुणे में राष्ट्रवादियों का एक सम्मलेन आयोजित किया गया  था | जिसका आयोजन तिलक ने अपने साथियों के सहयोग से किया था | सम्मलेन में उन्होंने राष्ट्रवादी आन्दोलन के लिए लोगों से आवाहन किया तथा यह भी कहा कि अब देश में  होमरूल लाने की आवश्यकता है  |किन्तु नरमपंथियों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किया गया लेकिन कुछ मतभेदों के साथ अन्तत:1916  ई.में होमरूल लीग की स्थापना हो गयी |जिसका उद्देश्य अंग्रेजी सरकार से वैधानिक रूप से स्वशासन ग्रहण करना था | इसके संस्थापक बालगंगाधर तिलक थे लेकिन उन्होंने इससे सम्बंधित किसी पद को स्वीकार नहीं किया था |
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Wednesday 13 July 2022

रामजी उपाध्याय

कोरोना काल में पर्यावरण से तादात्म्य यानी जीवनरक्षा

कोरोनाकाल में पर्यावरण से तादात्म्य यानी जीवनरक्षा 
डॉ सञ्जय कुमार
सहायक आचार्य संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर,म.प्र
Mo. 8989713997
Email: drkumarsanjaybhu@gmail.com
र्यावरण दिवस पर विशेष आलेख 
पृथ्वी,जल,तेज, वायु और आकाश के समष्टि का नाम पर्यावरण है।यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।हम अपने जीवन का कोई भी क्षण पर्यावरण से विरहित होकर नहीं व्यतीत करते हैं। पर्यावरण से ही हम सर्वतोभावेन सदैव पोषित होते हैं।यह हमे रहने के लिए आवास, खाने के लिए अन्न, पीने के लिए जल श्वास लेने के लिए वायु और पहनने के लिए वस्त्र और शरीर को पुष्ट करने के लिए तेज देता है। मनुष्य इन्ही पंचभौतिक तत्त्वों का साकार रूप है। इसलिए इन तत्वों से उसका सम्बन्ध स्वाभाविक ही है। पर्यावरण हमें सब कुछ देता है उसी से हमारा जीवन परिवर्धित होता है लेकिन बड़ी बात यह है कि बदले में हमसे कुछ अपेक्षा नहीं रखता। संसार में के सभी सम्बन्ध आदान प्रदान पर अवलम्बित होते हैं लेकिन पर्यावरण ऐसाहै जो केवल देने के लिए जाना जाता है।वह मनुष्य को अमृतमय अपना सत्व देकर सहज सम्बन्ध को स्थायित्व प्रदान करता है।वह हमे हर क्षण विना किसी भेद के देता रहता है।जो सदैव देता है वह देव है-यो ददाति सा देवता।
पर्यावरण प्राणिमात्र के कल्याण हेतु का विधान करता है।ऐसा करना उसके स्वभाव में है। उसके अन्दर न किसी के प्रति राग होता है और न द्वेष।वह सदैव निरपेक्ष भाव से रहते हुए लोक मंगल ही करता है।वह हमसे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता है लेकिन त्याग पूर्वक जीवन यापन की शिक्षा अवश्य देता है क्योंकि त्याग ही उसके संरक्षण मूल तत्व है।पर्यावरण यज्ञ स्वरूप है।यज्ञ उसे कहते हैं जो सदैव उपकार करे। पर्यावरण भी हमारा सदैव उपकार ही करता है,वह हमें जीवन देता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं-अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।।कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।(श्रीमद्भगवद्गीता ३/१४-१५)
अर्थात् सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं,अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है।वृष्टि से यज्ञ होता है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।कर्म समुदाय को तुम वेद से उत्पन्न और अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जानो। इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम ब्रह्म परमात्मा सदा से ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हो लोक का कल्याण करते हैं। सम्पूर्ण प्रकृति यज्ञमय है।यज्ञ एक सद्भावना का नाम है, प्रकृति पूजा का प्रतीक है। इससे विश्व का कल्याण होता है, वायुमंडल शुद्ध और पुष्ट होता है।
पर्यावरण का त्रिविध स्वरूप चाहे वह आधिभौतिक हो या आधिदैविक या उसका आध्यात्मिक स्वरूप हों।सभी एक दूसरे पर अवलम्बित हैं। समस्त पर्वत,पठार, नदी, जलाशय, सागर, वनस्पति पशु- पक्षी इत्यादि दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ पर्यावरण के भौतिक स्वरूप हैं। इनमें व्याप्त जीवनदायिनी शक्ति ही इनका आधिदैविक स्वरूप है।एक ही सत् चिद् आनन्द स्वरूप जो विविध रूप धारण किए हुए हैं वही पर्यावरण आध्यात्मिक स्वरूप है।ये सभी एक-दूसरे के बहुत निकट है।इसलिए भारतीय मनीषा सदा से पर्यावरण के प्रति महत्बुद्धि रख कर एकं सद् विप्रा बहुधा बदन्ति और ईशावास्यमिदं सर्वम् की भावना रखती है।
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय पर्यावरण के प्रति दैवी भाव रखता है। सम्पूर्ण प्रकृति में देवत्त्व का ही बोध करता है।द्युलोक,अन्तरिक्ष लोक एवं पृथ्वी लोक की इसी महनीयता के कारण स्तुति की गयी है-द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वदेवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति सा मा शान्ति शान्तिरेधि।(यजुर्वेद ३७/१७)
अर्थात् स्वर्गलोक , अंतरिक्षलोक तथा पृथ्वीलोक हमें शान्ति प्रदान करे।जल शान्तिप्रदायक हो,औषधियां तथा वनस्पतियां शान्ति प्रदान करने वाली हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करें। सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत् में शान्ति स्थापित करें। शान्ति भी हमे परम शांति प्रदान करे। उक्त मंत्र में सम्पूर्ण सृष्टि के पर्यावरणीय स्वरूप की मंगलकामना की गई है। चराचर जगत परम सत्ता का साकार स्वरूप ही है। ऋषियों ने मन्त्रों के माध्यम से पर्यावरण को देव यानि ईश्वर स्वरूप माना है।इसी भावना से मंडित होकर पं.राजगन्नाथ कहते हैं-धत्ते भरड़्कुसुमपत्रफलावलीनां, घर्म्यंव्यथा स्पृशतिसीतभवांरूजं च।यो देहमर्पयति चान्यसुखस्य हेतोस्तस्मै वदान्यगुरवे तरवे नमोऽस्तु।। (भामिनीविलास 92)
अर्थात् जो फूलों, पत्तों और फलों के बोझ को धारण करता है।धूप से उत्पन्न होने वाली व्यथा का अनुभव करता है और दूसरों के सुख के निमित्त अपने शरीर को समर्पित कर देता है,दानियों में श्रेष्ठ उस वृक्ष को नमस्कार है। इसी प्रकार सभी प्राकृतिक तत्व पशु-पक्षी,नदी,पर्वत पठार, जलाशय,सूर्य, चन्द्र, वायु, जल,पृथ्वी आदि सभी हमारे उपकारक हैं। इसलिए पूजनीय और संवर्धनीय हैं। इनमें दैवी निवास का भी यही संकेत है कि इनका प्रत्येक क्षण मानव रंजन के लिए ही समर्पित है। प्रकृति के लिए सब बराबर हैं चाहे वह विपन्न हो या साधन संपन्न। सबको वह समान भाव से ही रंजित करती है। इस लिए सबको समान मन से इसका संरक्षण करना चाहिए। किसी गांव में आग लगी हो तो वह किसी एक घर तक सीमित नहीं रहती है। यदि आप घर सुखपूर्वक सोते रहे तो एक-एक करके आग सबके घरों को जला डालेगी। यही स्थिति विकृत पर्यावरण का भी है।आज कोविड १९ से बचने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है अपनी प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाई जाय।यह प्रतिरोधी क्षमता स्वस्थ और अविकृत पर्यावरण से ही सम्भव है। क्योकि पुष्ट पर्यावरण हमारे शरीर के अंदर प्रतिरोधी क्षमता का विकास करता है।इसलिए आइए हम पर्यावरण को बचाएं पर्यावरण हमें बचाएगा। अभी तक विश्व जलवायु समस्या, आपदा को लेकर दुनिया भर में जितने भी सम्मलेन और कन्वेंशन हुए हैं वे इस बात पर जोर देते रहे हैं कि पर्यावरण की अहम भूमिका हमारे जीवन के लिए है तो हमें इसके संरक्षण पर भी ध्यान देना चाहिए किन्तु चिंताजनक यह है कि दुनिया के विकसित देश कचरा कि समस्या को दिन-प्रतिदिन बढ़ा रहे हैं और समुद्र, नदियाँ और सामरिक महत्त्व की चीजें बहुत ही बुरी स्थिति में पहुँचने जा रही हैं. प्रश्न यह है कि यदि यह सब अंधाधुंध तरीके से होता रहा तो जिस पर्यावरणीय-देवत्त्व की संकल्पना हम अपने पर्यावरण के सदर्भ में कर रहे हैं, उसका सत्व बचा रह सकेगा?

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कोरोना काल में जीवन रक्षक योग

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस विशेष 
      कोरोना काल में जीवनरक्षक योग
                  
                   डॉ.सञ्जय कुमार
                    सहायक आचार्य
 संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,
सागर ,म.प्र.
                                                                    drkumarsanjaybhu@gmail.com
                                                                  Mo.No.8989713997

योग हमारे जीवन का महामूल्य है। इससे पंचभूतात्मक शरीर और मन स्वस्थ रहता है।यह मनुष्य जीवन को सुवर्धित करता है तथा चिर सजग प्रहरी के भांति मनुष्य की रक्षा करता है। उसके रोम-रोम को पुलकित करता है और जीवन आयु को आगे बढ़ाता है।साथ ही स्वस्थ चिन्तन - मनन की प्रक्रिया विकसित कर यथार्थ का बोध कराता है। यही बोधात्मक प्रक्रिया उसे दर्शन की श्रेणी में प्रतिष्ठित करती है। इसलिए मनुष्य जीवन के लिए योग का अत्यधिक महत्व है। मनुष्य को अपने जीवन शैली में योग को उसी प्रकार उतारना चाहिए जिस प्रकार वह नियमित रूप से भोजन और जल को ग्रहण करता है। आज योग को जीवनचर्या का अंग बनाने की आवश्यकता है। वैसे तो योग का निर्देश वैदिक युग से ही प्राप्त होता है। लेकिन उसको व्यावहारिकता प्रदान करने वाले महर्षि पतञ्जलि ही हैं। उन्होंने परम्परागत रूप से प्राप्त योग को स्वयं धारण किया तत्पश्चात् उसे लोक कल्याण की दृष्टि से योगसूत्र के रूप में प्रतिष्ठित किया।वे योग के विषय में कहते हैं-योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:।(योगसूत्र 1/2) अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध योग है।चित्त का चांचल्य स्वभाव है। फलस्वरूप चित्त विषयों की ओर दौड़ता है।जिसके निरोध (रोकने)के दो उपाय हैं-वैराग्य और अभ्यास। सभी प्रकार की इच्छाओं से विरक्तभाव वैराग्य है और चित्त को स्थिर करने के लिए योग साधनों का अनुष्ठान रूप प्रयत्न करना अभ्यास है।योग के साधन हैं-यम, नियम,आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,और समाधि। यही योग के आठ अंग कहे जाते हैं।वितर्क जन्य बाधाओं से रहित होकर इनका निरन्तर अनुष्ठान करने से योगाभ्यासी को लौकिक एवं पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है।
  यह योग ही सभी कार्यों का मूल है। इसलिए कहा गया है-यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन।स धीनां योगमिन्वति। ऋग्वेद-( 1/18/7) अर्थात् योग के विना विद्वान का कोई यज्ञकर्म (शुभ कर्म) सिद्ध नहीं होता है। योग ही मनुष्य के सम्पूर्ण कामनाओं का भी मूल है। इससे हमारा शरीर और मन पुष्ट होता है। मनुष्य अपना सब कार्य मन और शरीर के द्वारा ही करता है।मन और शरीर की स्थिरता ही योग का महात्म्य है। यही हमारे स्वास्थ्य का नियामक भी है। अतः योग के सम्बन्ध में महाभारत में ठीक ही कहा गया है-न तु योगमृते शक्या प्राप्तुं सा परमा गति:।(महा.शांति.331/52) अर्थात् योग के विना परम महत्वशील कार्य सिद्ध नहीं होता है। योग के द्वारा ही मनुष्य अपनी कामनाओं को साकार रूप दे पाता है। इसके महात्म्य के सम्बन्ध में श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है-पृथ्व्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।न तस्य रोग न जरा न मृत्यु:प्राप्तस्य योगग्निमयं शरीरम्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद् 2/12)अर्थात् पृथ्वी,जल,तेज, वायु और /आकाश इन पांच महाभूतों का सम्यक प्रकार से उत्थान होने पर तथा इनसे सम्बन्ध रखने वाले पांच प्रकार के योग सम्बन्धी गुणों की सिद्धि हो जाने पर एवं योग निर्मित अग्निमय शरीर को प्राप्त कर लेने वाले साधक को न तो रोग होता है,न बुढ़ापा आता है और न अकाल मृत्यु ही होती है।जब पंचभुतात्मक शरीर पंच महाभूतों से तादात्म्य स्थापित करती है तो एक अलग प्रकार की तन्मय शक्ति का संचार होता है जो हमारे जीवन रेखा को केवल बढ़ाती ही नहीं है बल्कि शरीर को पुष्ट और सशक्त भी बनाती है।
  हमारा यह शरीर एक रथ के समान है।आत्मा इस रथ का अधिष्ठाता स्वामी है,बुद्धि इस रथ का सारथी है।मन घोड़ों के मुख में बंधी लगाम या रस्सी है,इन्द्रियां घोड़े हैं।इन सबका स्वामी योग है क्योंकि यह यथार्थ दर्शन के साथ सबका पोषण करता है।योग केवल दर्शन नहीं जीवन जीने की कला है। जिसके आगे-पीछे मानव कल्याण ही।जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र का सर्वविध कल्याण चाहता है उसी प्रकार यह योग है इसे जो अपने जीवन में अपनाते हैं उनका योग भी सर्वविध कल्याण ही करता है।यह सुख-दु:ख में समभाव रहने के लिए प्रेरित करता।मन में अवसाद को रूकने नहीं देता और कठिन से कठिन समय में विचलित भी नहीं होने देता है। इसलिए आज सबको घर -परिवार के साथ योग को अपनाने की जरूरत है।वायरस कोविड-19 से सुरक्षित रहने की दृष्टि से अपनी प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाने के लिए योग सबसे सहज और सुरक्षित उपाय है।विशेषकर योगाङ्गों में आसन और प्राणायाम तो प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने की दृष्टि बहुत ही उपयुक्त हैं साथ ही आहार –विहार पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है| जो यम और नियम से सम्बंधित है | वस्तुत:यम और नियन हमारे आचरण और व्यवहार को परिष्कृत करते हैं जिससे सयंमित जीवन विकास होता है | सयंमित जीवन आज इस विषम परिस्थिति का समाधान है |त्यागपूर्वक जीवन जीने का उपदेश उपनिषदें भी देती हैं |  
   जैसे एक अच्छे काम में एक- एक करके लोग जुड़ते चले जाते हैं और कारवां बनता चला जाता है वैसे ही लोगों को योग से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए । सौभाग्य से योग को आज अंर्तराष्ट्रीय दिवस के रूप भी मान्यता मिल गई है जो प्रत्येक भारतीय के लिए गौरव की बात है। योग जाति-धर्म से ऊपर उठकर मानव मात्र के लिए कल्याण का विधान करता है यह किसी में भेद नहीं अभेद का अनुशासन मानता है। इस धरा धाम के लोगों को अपना मानता है। सबको समान भाव से योग फल देता है।इसलिए सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों को योग से तादात्म्य स्थापित कर जीवेम शरद:शतम् की संकल्पना पूर्ण करनी चाहिए।

दर्पदलन के उपदेशात्मक तथ्यों की समीक्षा

दर्पदलन के उपदेशात्मक तथ्यों की समीचीनता 
                                        

     संस्कृत साहित्य परंपरा में कवि क्षेमेन्द्र का अन्यतम स्थान है | उन्होंने कथा साहित्य व काव्यशास्त्र के साथ अनेक लघुकव्यों की भी रचना किया है जिसमें दर्पदलन नामक लघु काव्य का विषेश महत्त्व है |सामाजिक दोषों का निराकरण कर एक स्वस्थ समाज की स्थापना ही इस लघु कव्य का मुलोद्देश्य है | दर्पदलन के नाम से ही विदित हो जाता है कि यह काव्य अहंकार का दलन करने वाला है | अंहकार समस्त पापों का बीज है |संसार में मनुष्य की उन्नति तभी संभव है जब उसके अन्दर अंहकार का रंच मात्र भी उदय न हो |यद्यपि सामाजिक दोषों के उन्मूलन के लिए संस्कृत साहित्य में अनेक ग्रन्थ लिखे गए है फिर भी क्षेमेन्द्र कृत दर्पदलन काव्य का इस सम्बन्ध में विषेश महत्त्व है क्यों कि उन्होंने क्रमशः और सभी दोषों के निराकरण का विधान यहाँ बतलाएं है |कवि दर्प का परिणाम यहाँ बताया है |इस रूप में सर्व प्रथम क्षेमेन्द्र के द्वारा सात राजरोग बतलाये गए हैं |यही इस महारोग के बीज हैं जिसके विषय में क्षेमेन्द्र स्वयं लिखते हैं –
                    कुलं वित्तं श्रुतं रूपं शौर्यं दानं तपस्तथा |
                    प्राधान्येन मनुष्या.kka प्तैते मदहेतव : ||१/४
 vFkkZr~ कुल ,धन, विद्या, रूप, पराक्रम ,दान और ताप ये सात मुख्य रूप से मनुष्य के अभिमान के हेतु हैं |इन्ही कारण मनुष्य के अन्दर अहंकार का उदय होता है | इसी अहंकार की समाप्ति ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है |उन्होंने कहा है-
                     अहंकारभिभूतना भुतानामिव देहिनाम् | 
                     हिताय दर्पदलनं क्रियते मोहशान्तये || १/५
 vFkkZr~ भूतों से ग्रस्त होने के समान अहंकार से अभिभूत मनुष्यों की मोह्शान्ति तथा हित के लिए दर्पदलन नामक काव्य की रचना की जा रही हैं | इस निमित्त महाकवि क्षेमेन्द्र कुलविचार,धन विचार , विद्याविचार ,रूपविचार ,शौर्य विचार ,दानविचार,और तपविचार से इस ग्रन्थ का विभाजन कर उनके दोष की व्याख्या किये हैं| कुल का अभिमान ,धन का अभिमान ,विद्या का अभिमान, रूप का अभिमान , शौर्य का अभिमान ,दान का अभिमान तथा ताप के अभिमान से मनुष्य का अधोपतन हो जाता है |इसलिए मनुष्य के अहंकार के बीज के रूप में स्वीकार किये गये हैं |साथ ही यहाँ यह भी बताया गया कि वशिष्ठ तो गणिका के संतान थे और कर्ण की माता तो कन्या ही थी लेकिन इन्होने अपने कर्म के द्वार स्वयं को स्थापित किया | धन के सम्बन्ध में क्षेमेन्द्र का कहना यह है कि लक्ष्मी तो नेत्र कटाक्ष की भांति चंचल है |इसे कितना भी सजोकर रखा जाय अन्तिम समय में यह साथ नहीं जाता है |क्षेमेन्द्र की दृष्टी में अभिमान का एक कारण विद्या भी है लेकिन अहंकार युक्त विद्या वास्तव में विद्या नहीं है |जो विद्या गौरव के बशीभूत होकर शील का परित्याग कर देते हैं वे उपहास के योग्य हैं|रूप विचार के अंतर्गत क्षेमेन्द्र का राजा पूरुरवा और अश्विनीकुमारों का प्रसंग निश्चित ही बहुत प्रभावकारी है जिसका मात्र एक उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना है जहाँ चारो ओर प्रेम सहानुभूति की निर्मल छाया में सभी सुखी और शुभ संकल्प मति से जीवन यापन कर सकें |
         


                                                                                                              डॉ. संजय कुमार 
                                                                                            सहायक आचार्य –संस्कृत विभाग 
                                                                 डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर .म प्र.४७०००३
                                                                                                Mo.No.-8989713997
                                                                                              drkumarsanjaybhu@gmail.com

स्वामी विवेकानन्द और आधुनिक संस्कृत साहित्य

स्वामी विवेकानन्द और आधुनिक संस्कृत साहित्य
              डा.संजय कुमार 
  सहायक आचार्य – संस्कृत विभाग
 डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर म.प्र. 
 न कोड - 470003 मो.न. 8989713997


             संस्कृत साहित्य चरित्र प्रधान साहित्य है |वह चरित्र की शिक्षा देता है और ऐसे समाज को गढ़ना चाहता है जिसका मानसिक स्तर ऊंचा एवं उन्नत बनें | राम, कृष्ण,के भांति महात्मा गांधी , रविन्द्रनाथ टैगोर , स्वामी दयानन्द सरस्वती और डा.भीमराव अम्बेडकर आदि ऐसे जीवन चरित हैं जिन्हें आधुनिक संस्कृत ने केवल अपनाया ही नहीं है बल्कि उनके आदर्शों ,चरित्रों ,मूल्यों को सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय के रूप में प्रस्तुत किया है | ऐसे ही व्यक्तित्त्व के धनी स्वामी विवेकानन्द भी हैं जिनका जन्म 12 जनवरी 1963 ईस्वी को कोलकाता में हुआ था जिनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथदत्त था | विवेकानंद जी की माता का नाम श्रीमति भुनेश्वरी देवी तथा पिता का नाम श्रीविश्वनाथदत्त था| माता कुशल गृहिणी थी और पिता कोलकाता उच्च न्यायालय में एक वरिष्ठ वकील थे | जिसके कारण समाज में एक पारिवारिक प्रतिष्ठा बनी हुई थी |माता श्रीमति भुनेश्वरी देवी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत महिला थी जिनके व्यक्तित्त्व का विशेष प्रभाव विवेकानंद के ऊपर पड़ा | दुर्भाग्य से पिता की असामयिक मृत्यु हो जाने पर भी विवेकानन्द कभी भी घबड़ाये नही बल्कि परिस्थिति का डट सामना किये | उन्हें जीवन की अनेक कठिनाइयों से जूझना भी पड़ा लेकिन उनका नाम नरेंद्र दत्त था| नरेंद्र का अर्थ होता है श्रेष्ठनर| इसलिए उन्होंने अपनी श्रेष्ठता का परिचय देते हुए संपूर्ण कठिनाइयों को पार कर विवेकानंद नाम से विख्यात हो गये | ऐसे महान कर्मयोगी साधक एवं समाज चिंतक की मृत्यु दुर्भाग्य से 4 जुलाई 1902 ईसवी रामकृष्णमठ बेलूर, कोलकाता में अनायास हो गयी थी | ऐसे महान कर्मयोगी साधक एवं समाज चिंतक की मृत्यु दुर्भाग्य से 4 जुलाई 1902 ईसवी रामकृष्णमठ बेलूर, कोलकाता में अनायास हो गयी थी |
          स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों का भारत ऐसा था जहां धर्म, जाति, ऊंच, नीच, लिंग- भेद के लिए कोई स्थान नहीं था| जिसके लिए उन्होंने वेदांत को सामने रक्खा और संपूर्ण सृष्टि की ईश्वर के अंश के रूप में व्याख्या किया | सबको समानता का अधिकार उनके द्वारा प्रदान करने की बात कही गयी | स्वामी विवेकानंद का ध्येय वाक्य था - उठो जागो और अब तक चलते रहो जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो | हमारे यहां वेदों में भी चरैवेति- चरैवेति की बात कही गई है| भारतीय परंपरा में माना जाता है कि जब व्यक्ति चलता है यानी कार्य करता है तभी तक उसकी भाग्य भी चलती है| इसलिए स्वामी जी ने सबको कार्य करने का उपदेश देते रहते थे |कर्म ही पूजा है और कर्म ही व्यक्ति को महान बनता है |
             स्वामी विवेकानंद मैकाले द्वारा व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली के विरोधी थे क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य केवल उद्यमी तैयार करना था ,वे ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहते थे जिससे व्यक्ति का संपूर्ण विकास हो, उसके व्यक्तित्व में उसका चरित्र और ज्ञान दर्पण की तरह स्वच्छ दिखाई दे| वे शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को स्वयं के पैरों पर खड़ा करना चाहते थे|व्यक्ति स्वालंबी बने और आत्म ज्ञानी भी | स्वामी विवेकानंद ने प्रचलित शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा की संज्ञा देते हुए कहा था कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली है तथा जो अच्छा भाषण दे सकता है |पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती ,जो चरित्र निर्माण नहीं करती ,जो समाज की सेवा की भावना को विकसित नहीं करती, जो सिंह जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती ऐसी शिक्षा से भला क्या लाभ ? स्वामी जी शिक्षा के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन को सुगम बनाना चाहते थे |लौकिक दृष्टि से शिक्षा का संबंध उन्होंने कहा था कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, आत्मबल बड़े, बुद्धि विकसित हो और मनुष्य स्वावलंबी बने और पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा था शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति करे| आज की शिक्षा प्रणाली कुछ उसी और पढ़ रही है लेकिन नई शिक्षा नीति में जो 64 कलाओं को आधार मानकर के शिक्षा संचालित करने की बात कही गई है वह भी हमारी भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं है| हमारी भारतीय परंपरा शिक्षा का उद्देश्य आत्म ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान है, शिक्षा अमरता प्रदान करने वाली मानी गई थी| लेकिन नई शिक्षा नीति के द्वारा शिक्षा केवल श्रमिक वर्ग तैयार करने की ओर उन्मुख है| जो भारतीय परंपरा और स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में उचित नहीं है| यह शिक्षा नीति श्रम के साथ ज्ञान से दूर ले जाने की ओर अग्रसर होगी | विवेकानन्द तो शिक्षा को विज्ञान और वेदांत की दृष्टी से व्यवस्थित करना चाहते थे |
              विवेकानन्द का व्यक्तित्त्व अत्यधिक विशाल है इसलिए अनेक भाषाओँ में उनके व्यक्तित्त्व को प्रकाशित करने के लिए कवियों ,आलोचकों ,समीक्षकों ने अनेक प्रकार से प्रयास किये हैं जिनका उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों पर चलने के लिए समाज को प्रेरित करना है |साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है अर्थात् काव्य रूपी दर्पण में समाज का प्रेरणात्मक व्यक्तित्व प्रकाशित रहता है | जिससे सम्पूर्ण समाज प्रेरणा लेता है | लौकिक दर्पण में और काव्य दर्पण में यही अन्तर है कि लौकिक दर्पण में जब तक सम्मुख विम्ब रहता है तभी तक उनमें प्रतिविम्ब दिखलाई पड़ता है लेकिन काव्य दर्पण में जब एक बार कोई व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित हो जाता है तब वह विम्ब के न रहने पर भी भाषमान ही होता है | इसलिए संस्कृत कवियों के द्वारा स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व को विविधता के साथ प्रकाशित किया गया है | विवेकानन्द का ऐसा व्यक्तित्व है जिससे लोग युगों- युगों तक प्रेरणा लेते रहेंगे | उनका जीवन लोंगो के दुःख दर्द के समाप्त के लिए सदैव संलग्न रहा |यदि संस्कृत साहित्य में विवेकानन्द पर लेखन पर बात की जाय तो महाकाव्य ,नाटक ,गीति काव्य ,गद्य काव्य आदि सबमें मिलता है | यथा –त्र्यंबक शर्मा भंडारकर प्रणीत रसाभि -विवेकानन्दचरितम्, संनिधानम सूर्य नारायण प्रणीत विवेकानन्दचरितम्,श्री विश्वनाथ केशव छत्रे प्रणीत पी.के.नारायण पिल्लई प्रणीत विवेकानन्दम्, और विश्वभानु महाकाव्य | डा. यतीन्द्र विमल चौधरी कृत भारत विवेकम् ,डा.श्री धर भास्कर कृत विवेकानन्द विजयम् नाटक हैं |पलसुखे रचित विवेकानन्दचरितम्, गद्यकाव्य ,श्री के. एस. नागराजन रचित विवेकानन्दचरितम्, गद्यकाव्य तथा डा. यतीन्द्र विमल चौधरी रचित श्री श्री विवेकानन्दचरितम्, चम्पू काव्य आदि आधुनिक संस्कृत जगत आलोकित है |  
    स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्त्व , जीवन - दर्शन और चिन्तन को विभिन्न कवियों ने प्रकाशित किया है | त्र्यंबक शर्मा भंडारकर अपने महाकाव्य रसाभिविवेकानंदचरितम् में विवेकानन्द के भारतीय दर्शन के प्रति अनुराग को व्यक्त करते हुआ कहा है –आत्मेव नित्यमचलस्थितिभारतं न: शुद्धं प्रबुद्धमभयं परमद्वितीयम्|आचन्तशून्यमजशरमप्यमेयं देशस्य तस्य बलिनस्तनया|| यहाँ उनके मन भरतीय दर्शन के स्थितप्रज्ञ भाव को कवि ने व्यक्त किया है| इसी तरह विवेकानन्दचरितम् महाकाव्य में भारत देश की सांस्कृतिक समृद्धि के स्मरण के साथ वर्तमान भारत का यथार्थ चित्रण किया गया है |यहाँ पर रामकृष्ण परमहंश के प्रिय शिष्य विवेकानन्द के विषय में कहा गया है - श्रीराम कृष्ण प्रियशिष्यवर्य: प्रबोधयन् स्नेहमय लोकान्|विवेक आनन्द यति पृथिव्यां कालानुवतीविमुनिश्चकास || भारत एक कृषि प्रधान देश है इस लिए विवेकानन्द को कृषक जीवन और उसके खेत मनोहर लगते थे |इस सम्बन्ध विश्वभानु महाकाव्य में कहा गया है - गोधुम सान्द्रहरितां नयनस्य पुण्य धारां विदूर परिचुम्बितवक्रवालाम्|संस्कृत्य कर्षकजनै: परिलाल्यमानां केदार भूमि भविशत् विकस्वरात्मा|| इस तरह विवेकानन्द के राष्ट्र प्रेम ,धर्म ,अहिंसा ,सत्य ,शिक्षा ,पर्यावरण आदि विषयों को संस्कृत कवियों के द्वारा सामने लाने का प्रयास किया गया है | संस्कृत ही संस्कृति की सम्बाहिका है | जहाँ उत्तम चरित्र ,कर्म ,दर्शन ,साहित्य को लोक के कल्याण के निमित्त ही गढ़ा जाता है | विवेकानन्द का उज्ज्वल जीवन सदैव भारतीय मानस का प्रक्षालन करता रहेगा और एक राष्ट्र के अमर स्वरूप प्रस्तुत करता रहेगा जहाँ उच्च विचार एवं श्रेष्ठ शिक्षा व कर्म की पूजा होगी |
 सादर स्मृति में .......

Tuesday 12 July 2022

भारतीय सांस्कृतिक विरासत का पर्व गुरुपूर्णिमा


                             डॉ. सञ्जय कुमार
            सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर ,( म.प्र.)
                                             Mo.No.8989713997,9450819699
                                          Email-drkumarsanjayBhu@gmail.com
         भारतीय संस्कृति में गुरु का विशेष महत्व माना गया है| गुरु ही मनुष्य में ज्ञान का आधान करता है| इसलिए आषाढपूर्णिमा के दिन गुरुपूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है| यद्यपि भारत देश ऋषि प्रधान देश रहा है, हर युग में ऋषियों के प्रति आदर - सम्मान का भाव देखने को मिलता है| काश्यप, आंगिरा ,भृगु ,वशिष्ठ, अगस्त्य, भारद्वाज ,जमदग्नि, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य , जैमिनी , बाल्मीकि, दुर्वाषा  आदि  की  एक वृहद ऋषि परंपरा देखने को मिलती   है | इन सभी के प्रति शिष्यों द्वारा अपार श्रद्धा का भाव भी  दृष्टिगोचर होता  है| यह देश ज्ञान वैभव का देश है |यहाँ अपरा और परा विद्याओं का संगम है | आत्मा तथा शारीर के साथ ही आदिभौतिक , आदिदैविक और आध्यात्मिक चिन्तन परम्परा का विकास ऋषियों के मनीषा से ही व्यक्त होती है | भारत में ज्ञान के मूलभूमि ऋषि ही हैं | क्योंकि सभी शास्त्र उन्ही के द्वारा श्रुत परंपरा से संरक्षित रहे  हैं | इसलिए ऋषि परंपरा को ही गुरुपरंपरा के रूप वन्दना की जाती है | लेकिन एक मान्यता के अनुसार महर्षि वेदव्यास का जन्म  आषाढ़ पूर्णिमा के दिन हुआ था | उन्हीं के सम्मान में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिनही  गुरुपूर्णिमा पर्व का आयोजन होता है| ऐसा भी बताया जाता है कि इसी दिन महर्षि वेदव्यास ने अपने शिष्यों व मुनियों को सर्वप्रथम श्रीमाद्भागवद्पुरण का उपदेश दिया था| श्रीमाद्भागवद्पुरण  उनके अट्ठारह  पुराणों में इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें भगवत- भक्ति के द्वारा  मोक्ष का मार्ग  बतलाया  गया है| कुछ लोगों का यह भी  मानना है कि महर्षि वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र को लिखना  इसी दिन प्रारंभ किया था| इसलिए वेदांत दर्शन के प्रारंभिक दिन को गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है|  ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का वह ग्रन्थ है  जो  जीव –व्रह्म की एकता की घोषणा करता है |यहाँ  यह भी बताना का उचित  होगा कि भक्ति काल के संत श्रीघासीदास का जन्म भी  आषाढ़पूर्णिमा के दिन ही  हुआ था| जो कबीर दास के शिष्य माने जाते हैं |पूर्णिमा के दिन का  भौगोलिक रूप से भी अत्यधिक  महत्व माना जाता है |इस दिन चंद्रमा का पृथ्वी के जल से सीधा संबंध होता है| फलत: समुद्र में ज्वार- भाटा उत्पन्न हो जाता है|  चंद्रमा समुद्र के जल को अपनी ओर खींचता है| यह क्रिया मनुष्य को भी प्रभावित करती है क्योंकि मनुष्य के शरीर में भी अधिकांश भाग जल का ही है |इसलिए मनुष्य के शरीर की  जल की गति बदल जाती है |गुण में भी परिवर्तन हो जाता है| आत्म- विस्तार की स्थिति बनने लगती है जिससे  एक अपूर्व आनंद की अनुभूति है |
      महर्षि वेदव्यास संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे| उन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाता है | वे आदि  गुरु हैं| इसलिए उनके जन्मदिन आषाढ़पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के नाम से जाना जाता है |वेदांत दर्शन व अद्वैत वाद  के संस्थापक वेदव्यास ऋषि पाराशर के पुत्र थे तथा उनकी माता का नाम सत्यवती था |  पत्नी  आरुणि से उत्पन्न महान बाल योगी सुखदेव  इनके पुत्र  हैं| एक परंपरा के अनुसार पांडू, धृतराष्ट्र और विदुर भी महर्षि वेदव्यास  के संतान माने जाते हैं | वेदव्यास ने महाभारत, ब्रह्मसूत्र ,18 पुराण ,18 उपपुराण की रचना किए हैं |इसके अतिरिक्त इन्होंने वेदों को उनके विषय के अनुसार ऋग्वेद, यजुर्वेद ,सामवेद, अथर्ववेद के रूप में चार भागों में विभाजित किया है| महर्षि वेदव्यास की शिष्य परंपरा में  पैल ,जैमिनी, वैशंपायन, समन्तु मुनि , रोमहर्षण आदि का नाम महत्वपूर्ण रूप से सामने आता है| यह आषाढ़ पूर्णिमा गुरु महात्मा का पर्व है| इस दिन गुरु की पूजा का विधान शास्त्रों में मिलता है |गुरुपूर्णिमा वर्षा ऋतु में पङती   है | इस दिन से 4  महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर बिखेरते हैं |यह 4 माह प्राकृतिक रूप से बहुत रमणीय  होता  है|  ना अधिक गर्मी पड़ती है ना सर्दी का भान होता है| इसलिए चाहे ज्ञान क्षेत्र हो या अध्ययन क्षेत्र हो दोनों दृष्टि से यह समय बड़ा ही उपयुक्त माना जाता है| ऐसे समय में साधक  द्वारा की गई साधना फलीभूत होती है| ठीक वैसे ही जैसे  सूर्य के ताप से तप्त  भूमि को वर्षा की शीतलता एवं पौधे उत्पन्न करने की शक्ति मिलती है वैसे ही गुरु के सानिध्य में उपस्थित होकर साधकों की  ज्ञानशक्ति  , भक्ति, शांति  और योग की प्राप्ति होती है|
 यद्यपि भारतीय संस्कृति  ऋषियों का आचरण –व्यावहार द्वारा परिष्कृत संस्कृति है | यहाँ पर ऋषियों –मुनियों के प्रति जीवन के प्रारम्भिक काल से ही श्रद्धा का भाव देखने को मिलता है | ऋषि अपने आचरण मात्र  से  शिष्यों के अन्त: करण में ज्ञान का प्रकाश प्रज्वलित कर देता है |ऋषि ज्ञान का  प्रकाश अत्यंत गंभीर ,गुरु  व भारी होता है | इसी लिए उपदेशक ऋषियों को गुरु की संज्ञा से विभूषित किया गया है |गुरु शब्द दो वर्णों के योग से बना है –गु और रु | गु का अर्थ होता है –अंधकार या अज्ञान  तथा रु का अर्थ होता है – हटाने वाला या अवरोधक | इसलिए गुरु शब्द का अर्थ अज्ञान को हटाने वाला या अंधकार को दूर करने वाला होता है | गुरु का ज्ञान भारी है ,गुरु का कार्य भारी है और गुरु की सेवा भी भारी ही है | इसलिए वह गुरु कहलाता है | गुरु ही अज्ञान तिमिर का अपने ज्ञानांजन शलाका से हरण कर देता है |यानि अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने का कार्य गुरु ही करता है | जिसके सम्बन्ध में ठीक ही कहा गया है –
                   अज्ञान तिमिरंध्श्च  ज्ञानांजन शलाकया |
                   चक्षुन्मिलितं   येन तस्मै श्री गुरुवे नम: ||
 एक  बात और ध्यान देने योग्य है कि गुरु का महत्व सभी धर्मों व सम्प्रदायों में है | जैन, बौद्ध , सिक्ख ,इसाई,पारसी,इस्लाम  आदि सभी किसी न किसी रूप में गुरु की सत्ता में विश्वास रखते है  | सभी गुरु का आदर करते हैं |क्योंकि गुरु ही सबके ज्ञान का आधार है | मैं ऐसा धर्म ,संप्रदाय ,जाति नहीं देखता हूँ जो विना गुरु का हो , सबके  अपने –अपने गुरु हैं |गुरु के महात्म्य के सम्बन्ध में आदिकवि वाल्मीकीय भी कहते हैं –
              स्वर्गोधनं वा धान्यं वा विद्या पुत्रा: सुखानि च |
                गुरुवृत्यनुरोधेन न किंचिदपि  दुर्लभम्   || (१/३०/३६)
अर्थात् गुरुजनों की सेवा का अनुसरण करने से स्वर्ग ,धन ,धान्य,विद्या ,पुत्र ,और सुख कुछ भी दुर्लभ नहीं होता है | यहाँ सेवा से अभिप्राय  गुरु का अनुशासन है, उसका निर्देश ही सेवा है | भारतीय परंपरा में गुरु को व्रह्म , विष्णु  और महेश के समकक्ष मानते हुए का गया है _
                   गुरुर्वह्मा  गुरुर्विष्णु  गुरुर्देवो महेश्वर:|
                 गुरु साक्षात् परव्रह्म तस्मै श्री गुरवे नाम ||
हिंदी के भक्तकवि तुलसीदास  भी गुरु -गौरव के विषय में कहा है –
                 श्रीगुरुचरन  सरोज रज निज मनु मुकुर सुधारी |
                 वरनऊँ रघुबर विमल  जसु जो दायक फल चारी ||
      इस प्रकार भारतीय संस्कृति  में गुरु का स्थान बहुत श्रेष्ठ है | सभी मनुष्य के जीवन में  ज्ञानी गुरु की महती आवश्यकता होती है  | गुरु ही जीवन लक्ष्य का प्रकाशक होता है | मनुष्य जीवन तो एक हाड.–मास के  पुतले  के समान है| उस पुतले को  ज्ञान संपन्न ,गुण सम्पन्न और विवेक संपन्न गुरु ही बनता है | उसके विना देवता भी अधूरे हैं |राम और  कृष्ण भी विना गुरु के ज्ञानी नहीं बन सके | गुरु शास्त्र और शस्त्र से  शिष्य का मार्ग प्रशस्त करता है | वही जीवन में परम ज्योति जलाता है |इतिहास साक्षी बिना गुरु के ज्ञान से कोई भी संवृद्ध नहीं हुआ है| यह गुरुपूर्णिमा पर्व समस्त ऋषि व  गुरुपरंपरा का प्रतीक शुभ दिवस है  |
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