Wednesday 13 July 2022

कोरोना काल में पर्यावरण से तादात्म्य यानी जीवनरक्षा

कोरोनाकाल में पर्यावरण से तादात्म्य यानी जीवनरक्षा 
डॉ सञ्जय कुमार
सहायक आचार्य संस्कृत विभाग, डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर,म.प्र
Mo. 8989713997
Email: drkumarsanjaybhu@gmail.com
र्यावरण दिवस पर विशेष आलेख 
पृथ्वी,जल,तेज, वायु और आकाश के समष्टि का नाम पर्यावरण है।यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।हम अपने जीवन का कोई भी क्षण पर्यावरण से विरहित होकर नहीं व्यतीत करते हैं। पर्यावरण से ही हम सर्वतोभावेन सदैव पोषित होते हैं।यह हमे रहने के लिए आवास, खाने के लिए अन्न, पीने के लिए जल श्वास लेने के लिए वायु और पहनने के लिए वस्त्र और शरीर को पुष्ट करने के लिए तेज देता है। मनुष्य इन्ही पंचभौतिक तत्त्वों का साकार रूप है। इसलिए इन तत्वों से उसका सम्बन्ध स्वाभाविक ही है। पर्यावरण हमें सब कुछ देता है उसी से हमारा जीवन परिवर्धित होता है लेकिन बड़ी बात यह है कि बदले में हमसे कुछ अपेक्षा नहीं रखता। संसार में के सभी सम्बन्ध आदान प्रदान पर अवलम्बित होते हैं लेकिन पर्यावरण ऐसाहै जो केवल देने के लिए जाना जाता है।वह मनुष्य को अमृतमय अपना सत्व देकर सहज सम्बन्ध को स्थायित्व प्रदान करता है।वह हमे हर क्षण विना किसी भेद के देता रहता है।जो सदैव देता है वह देव है-यो ददाति सा देवता।
पर्यावरण प्राणिमात्र के कल्याण हेतु का विधान करता है।ऐसा करना उसके स्वभाव में है। उसके अन्दर न किसी के प्रति राग होता है और न द्वेष।वह सदैव निरपेक्ष भाव से रहते हुए लोक मंगल ही करता है।वह हमसे किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखता है लेकिन त्याग पूर्वक जीवन यापन की शिक्षा अवश्य देता है क्योंकि त्याग ही उसके संरक्षण मूल तत्व है।पर्यावरण यज्ञ स्वरूप है।यज्ञ उसे कहते हैं जो सदैव उपकार करे। पर्यावरण भी हमारा सदैव उपकार ही करता है,वह हमें जीवन देता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं-अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।।कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवम्।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।(श्रीमद्भगवद्गीता ३/१४-१५)
अर्थात् सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं,अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है।वृष्टि से यज्ञ होता है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।कर्म समुदाय को तुम वेद से उत्पन्न और अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जानो। इससे यह सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम ब्रह्म परमात्मा सदा से ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हो लोक का कल्याण करते हैं। सम्पूर्ण प्रकृति यज्ञमय है।यज्ञ एक सद्भावना का नाम है, प्रकृति पूजा का प्रतीक है। इससे विश्व का कल्याण होता है, वायुमंडल शुद्ध और पुष्ट होता है।
पर्यावरण का त्रिविध स्वरूप चाहे वह आधिभौतिक हो या आधिदैविक या उसका आध्यात्मिक स्वरूप हों।सभी एक दूसरे पर अवलम्बित हैं। समस्त पर्वत,पठार, नदी, जलाशय, सागर, वनस्पति पशु- पक्षी इत्यादि दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ पर्यावरण के भौतिक स्वरूप हैं। इनमें व्याप्त जीवनदायिनी शक्ति ही इनका आधिदैविक स्वरूप है।एक ही सत् चिद् आनन्द स्वरूप जो विविध रूप धारण किए हुए हैं वही पर्यावरण आध्यात्मिक स्वरूप है।ये सभी एक-दूसरे के बहुत निकट है।इसलिए भारतीय मनीषा सदा से पर्यावरण के प्रति महत्बुद्धि रख कर एकं सद् विप्रा बहुधा बदन्ति और ईशावास्यमिदं सर्वम् की भावना रखती है।
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय पर्यावरण के प्रति दैवी भाव रखता है। सम्पूर्ण प्रकृति में देवत्त्व का ही बोध करता है।द्युलोक,अन्तरिक्ष लोक एवं पृथ्वी लोक की इसी महनीयता के कारण स्तुति की गयी है-द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वदेवा: शान्तिब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति सा मा शान्ति शान्तिरेधि।(यजुर्वेद ३७/१७)
अर्थात् स्वर्गलोक , अंतरिक्षलोक तथा पृथ्वीलोक हमें शान्ति प्रदान करे।जल शान्तिप्रदायक हो,औषधियां तथा वनस्पतियां शान्ति प्रदान करने वाली हों। सभी देवगण शान्ति प्रदान करें। सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत् में शान्ति स्थापित करें। शान्ति भी हमे परम शांति प्रदान करे। उक्त मंत्र में सम्पूर्ण सृष्टि के पर्यावरणीय स्वरूप की मंगलकामना की गई है। चराचर जगत परम सत्ता का साकार स्वरूप ही है। ऋषियों ने मन्त्रों के माध्यम से पर्यावरण को देव यानि ईश्वर स्वरूप माना है।इसी भावना से मंडित होकर पं.राजगन्नाथ कहते हैं-धत्ते भरड़्कुसुमपत्रफलावलीनां, घर्म्यंव्यथा स्पृशतिसीतभवांरूजं च।यो देहमर्पयति चान्यसुखस्य हेतोस्तस्मै वदान्यगुरवे तरवे नमोऽस्तु।। (भामिनीविलास 92)
अर्थात् जो फूलों, पत्तों और फलों के बोझ को धारण करता है।धूप से उत्पन्न होने वाली व्यथा का अनुभव करता है और दूसरों के सुख के निमित्त अपने शरीर को समर्पित कर देता है,दानियों में श्रेष्ठ उस वृक्ष को नमस्कार है। इसी प्रकार सभी प्राकृतिक तत्व पशु-पक्षी,नदी,पर्वत पठार, जलाशय,सूर्य, चन्द्र, वायु, जल,पृथ्वी आदि सभी हमारे उपकारक हैं। इसलिए पूजनीय और संवर्धनीय हैं। इनमें दैवी निवास का भी यही संकेत है कि इनका प्रत्येक क्षण मानव रंजन के लिए ही समर्पित है। प्रकृति के लिए सब बराबर हैं चाहे वह विपन्न हो या साधन संपन्न। सबको वह समान भाव से ही रंजित करती है। इस लिए सबको समान मन से इसका संरक्षण करना चाहिए। किसी गांव में आग लगी हो तो वह किसी एक घर तक सीमित नहीं रहती है। यदि आप घर सुखपूर्वक सोते रहे तो एक-एक करके आग सबके घरों को जला डालेगी। यही स्थिति विकृत पर्यावरण का भी है।आज कोविड १९ से बचने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है अपनी प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाई जाय।यह प्रतिरोधी क्षमता स्वस्थ और अविकृत पर्यावरण से ही सम्भव है। क्योकि पुष्ट पर्यावरण हमारे शरीर के अंदर प्रतिरोधी क्षमता का विकास करता है।इसलिए आइए हम पर्यावरण को बचाएं पर्यावरण हमें बचाएगा। अभी तक विश्व जलवायु समस्या, आपदा को लेकर दुनिया भर में जितने भी सम्मलेन और कन्वेंशन हुए हैं वे इस बात पर जोर देते रहे हैं कि पर्यावरण की अहम भूमिका हमारे जीवन के लिए है तो हमें इसके संरक्षण पर भी ध्यान देना चाहिए किन्तु चिंताजनक यह है कि दुनिया के विकसित देश कचरा कि समस्या को दिन-प्रतिदिन बढ़ा रहे हैं और समुद्र, नदियाँ और सामरिक महत्त्व की चीजें बहुत ही बुरी स्थिति में पहुँचने जा रही हैं. प्रश्न यह है कि यदि यह सब अंधाधुंध तरीके से होता रहा तो जिस पर्यावरणीय-देवत्त्व की संकल्पना हम अपने पर्यावरण के सदर्भ में कर रहे हैं, उसका सत्व बचा रह सकेगा?

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