Wednesday 13 July 2022

दर्पदलन के उपदेशात्मक तथ्यों की समीक्षा

दर्पदलन के उपदेशात्मक तथ्यों की समीचीनता 
                                        

     संस्कृत साहित्य परंपरा में कवि क्षेमेन्द्र का अन्यतम स्थान है | उन्होंने कथा साहित्य व काव्यशास्त्र के साथ अनेक लघुकव्यों की भी रचना किया है जिसमें दर्पदलन नामक लघु काव्य का विषेश महत्त्व है |सामाजिक दोषों का निराकरण कर एक स्वस्थ समाज की स्थापना ही इस लघु कव्य का मुलोद्देश्य है | दर्पदलन के नाम से ही विदित हो जाता है कि यह काव्य अहंकार का दलन करने वाला है | अंहकार समस्त पापों का बीज है |संसार में मनुष्य की उन्नति तभी संभव है जब उसके अन्दर अंहकार का रंच मात्र भी उदय न हो |यद्यपि सामाजिक दोषों के उन्मूलन के लिए संस्कृत साहित्य में अनेक ग्रन्थ लिखे गए है फिर भी क्षेमेन्द्र कृत दर्पदलन काव्य का इस सम्बन्ध में विषेश महत्त्व है क्यों कि उन्होंने क्रमशः और सभी दोषों के निराकरण का विधान यहाँ बतलाएं है |कवि दर्प का परिणाम यहाँ बताया है |इस रूप में सर्व प्रथम क्षेमेन्द्र के द्वारा सात राजरोग बतलाये गए हैं |यही इस महारोग के बीज हैं जिसके विषय में क्षेमेन्द्र स्वयं लिखते हैं –
                    कुलं वित्तं श्रुतं रूपं शौर्यं दानं तपस्तथा |
                    प्राधान्येन मनुष्या.kka प्तैते मदहेतव : ||१/४
 vFkkZr~ कुल ,धन, विद्या, रूप, पराक्रम ,दान और ताप ये सात मुख्य रूप से मनुष्य के अभिमान के हेतु हैं |इन्ही कारण मनुष्य के अन्दर अहंकार का उदय होता है | इसी अहंकार की समाप्ति ही इस ग्रन्थ का प्रयोजन है |उन्होंने कहा है-
                     अहंकारभिभूतना भुतानामिव देहिनाम् | 
                     हिताय दर्पदलनं क्रियते मोहशान्तये || १/५
 vFkkZr~ भूतों से ग्रस्त होने के समान अहंकार से अभिभूत मनुष्यों की मोह्शान्ति तथा हित के लिए दर्पदलन नामक काव्य की रचना की जा रही हैं | इस निमित्त महाकवि क्षेमेन्द्र कुलविचार,धन विचार , विद्याविचार ,रूपविचार ,शौर्य विचार ,दानविचार,और तपविचार से इस ग्रन्थ का विभाजन कर उनके दोष की व्याख्या किये हैं| कुल का अभिमान ,धन का अभिमान ,विद्या का अभिमान, रूप का अभिमान , शौर्य का अभिमान ,दान का अभिमान तथा ताप के अभिमान से मनुष्य का अधोपतन हो जाता है |इसलिए मनुष्य के अहंकार के बीज के रूप में स्वीकार किये गये हैं |साथ ही यहाँ यह भी बताया गया कि वशिष्ठ तो गणिका के संतान थे और कर्ण की माता तो कन्या ही थी लेकिन इन्होने अपने कर्म के द्वार स्वयं को स्थापित किया | धन के सम्बन्ध में क्षेमेन्द्र का कहना यह है कि लक्ष्मी तो नेत्र कटाक्ष की भांति चंचल है |इसे कितना भी सजोकर रखा जाय अन्तिम समय में यह साथ नहीं जाता है |क्षेमेन्द्र की दृष्टी में अभिमान का एक कारण विद्या भी है लेकिन अहंकार युक्त विद्या वास्तव में विद्या नहीं है |जो विद्या गौरव के बशीभूत होकर शील का परित्याग कर देते हैं वे उपहास के योग्य हैं|रूप विचार के अंतर्गत क्षेमेन्द्र का राजा पूरुरवा और अश्विनीकुमारों का प्रसंग निश्चित ही बहुत प्रभावकारी है जिसका मात्र एक उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना है जहाँ चारो ओर प्रेम सहानुभूति की निर्मल छाया में सभी सुखी और शुभ संकल्प मति से जीवन यापन कर सकें |
         


                                                                                                              डॉ. संजय कुमार 
                                                                                            सहायक आचार्य –संस्कृत विभाग 
                                                                 डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर .म प्र.४७०००३
                                                                                                Mo.No.-8989713997
                                                                                              drkumarsanjaybhu@gmail.com

No comments:

Post a Comment