Wednesday 13 July 2022

स्वामी विवेकानन्द और आधुनिक संस्कृत साहित्य

स्वामी विवेकानन्द और आधुनिक संस्कृत साहित्य
              डा.संजय कुमार 
  सहायक आचार्य – संस्कृत विभाग
 डाक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय ,सागर म.प्र. 
 न कोड - 470003 मो.न. 8989713997


             संस्कृत साहित्य चरित्र प्रधान साहित्य है |वह चरित्र की शिक्षा देता है और ऐसे समाज को गढ़ना चाहता है जिसका मानसिक स्तर ऊंचा एवं उन्नत बनें | राम, कृष्ण,के भांति महात्मा गांधी , रविन्द्रनाथ टैगोर , स्वामी दयानन्द सरस्वती और डा.भीमराव अम्बेडकर आदि ऐसे जीवन चरित हैं जिन्हें आधुनिक संस्कृत ने केवल अपनाया ही नहीं है बल्कि उनके आदर्शों ,चरित्रों ,मूल्यों को सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय के रूप में प्रस्तुत किया है | ऐसे ही व्यक्तित्त्व के धनी स्वामी विवेकानन्द भी हैं जिनका जन्म 12 जनवरी 1963 ईस्वी को कोलकाता में हुआ था जिनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथदत्त था | विवेकानंद जी की माता का नाम श्रीमति भुनेश्वरी देवी तथा पिता का नाम श्रीविश्वनाथदत्त था| माता कुशल गृहिणी थी और पिता कोलकाता उच्च न्यायालय में एक वरिष्ठ वकील थे | जिसके कारण समाज में एक पारिवारिक प्रतिष्ठा बनी हुई थी |माता श्रीमति भुनेश्वरी देवी धार्मिक भावना से ओत-प्रोत महिला थी जिनके व्यक्तित्त्व का विशेष प्रभाव विवेकानंद के ऊपर पड़ा | दुर्भाग्य से पिता की असामयिक मृत्यु हो जाने पर भी विवेकानन्द कभी भी घबड़ाये नही बल्कि परिस्थिति का डट सामना किये | उन्हें जीवन की अनेक कठिनाइयों से जूझना भी पड़ा लेकिन उनका नाम नरेंद्र दत्त था| नरेंद्र का अर्थ होता है श्रेष्ठनर| इसलिए उन्होंने अपनी श्रेष्ठता का परिचय देते हुए संपूर्ण कठिनाइयों को पार कर विवेकानंद नाम से विख्यात हो गये | ऐसे महान कर्मयोगी साधक एवं समाज चिंतक की मृत्यु दुर्भाग्य से 4 जुलाई 1902 ईसवी रामकृष्णमठ बेलूर, कोलकाता में अनायास हो गयी थी | ऐसे महान कर्मयोगी साधक एवं समाज चिंतक की मृत्यु दुर्भाग्य से 4 जुलाई 1902 ईसवी रामकृष्णमठ बेलूर, कोलकाता में अनायास हो गयी थी |
          स्वामी विवेकानन्द के स्वप्नों का भारत ऐसा था जहां धर्म, जाति, ऊंच, नीच, लिंग- भेद के लिए कोई स्थान नहीं था| जिसके लिए उन्होंने वेदांत को सामने रक्खा और संपूर्ण सृष्टि की ईश्वर के अंश के रूप में व्याख्या किया | सबको समानता का अधिकार उनके द्वारा प्रदान करने की बात कही गयी | स्वामी विवेकानंद का ध्येय वाक्य था - उठो जागो और अब तक चलते रहो जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो | हमारे यहां वेदों में भी चरैवेति- चरैवेति की बात कही गई है| भारतीय परंपरा में माना जाता है कि जब व्यक्ति चलता है यानी कार्य करता है तभी तक उसकी भाग्य भी चलती है| इसलिए स्वामी जी ने सबको कार्य करने का उपदेश देते रहते थे |कर्म ही पूजा है और कर्म ही व्यक्ति को महान बनता है |
             स्वामी विवेकानंद मैकाले द्वारा व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली के विरोधी थे क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य केवल उद्यमी तैयार करना था ,वे ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहते थे जिससे व्यक्ति का संपूर्ण विकास हो, उसके व्यक्तित्व में उसका चरित्र और ज्ञान दर्पण की तरह स्वच्छ दिखाई दे| वे शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को स्वयं के पैरों पर खड़ा करना चाहते थे|व्यक्ति स्वालंबी बने और आत्म ज्ञानी भी | स्वामी विवेकानंद ने प्रचलित शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा की संज्ञा देते हुए कहा था कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली है तथा जो अच्छा भाषण दे सकता है |पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती ,जो चरित्र निर्माण नहीं करती ,जो समाज की सेवा की भावना को विकसित नहीं करती, जो सिंह जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती ऐसी शिक्षा से भला क्या लाभ ? स्वामी जी शिक्षा के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन को सुगम बनाना चाहते थे |लौकिक दृष्टि से शिक्षा का संबंध उन्होंने कहा था कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, आत्मबल बड़े, बुद्धि विकसित हो और मनुष्य स्वावलंबी बने और पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा था शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति करे| आज की शिक्षा प्रणाली कुछ उसी और पढ़ रही है लेकिन नई शिक्षा नीति में जो 64 कलाओं को आधार मानकर के शिक्षा संचालित करने की बात कही गई है वह भी हमारी भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं है| हमारी भारतीय परंपरा शिक्षा का उद्देश्य आत्म ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान है, शिक्षा अमरता प्रदान करने वाली मानी गई थी| लेकिन नई शिक्षा नीति के द्वारा शिक्षा केवल श्रमिक वर्ग तैयार करने की ओर उन्मुख है| जो भारतीय परंपरा और स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में उचित नहीं है| यह शिक्षा नीति श्रम के साथ ज्ञान से दूर ले जाने की ओर अग्रसर होगी | विवेकानन्द तो शिक्षा को विज्ञान और वेदांत की दृष्टी से व्यवस्थित करना चाहते थे |
              विवेकानन्द का व्यक्तित्त्व अत्यधिक विशाल है इसलिए अनेक भाषाओँ में उनके व्यक्तित्त्व को प्रकाशित करने के लिए कवियों ,आलोचकों ,समीक्षकों ने अनेक प्रकार से प्रयास किये हैं जिनका उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों पर चलने के लिए समाज को प्रेरित करना है |साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है अर्थात् काव्य रूपी दर्पण में समाज का प्रेरणात्मक व्यक्तित्व प्रकाशित रहता है | जिससे सम्पूर्ण समाज प्रेरणा लेता है | लौकिक दर्पण में और काव्य दर्पण में यही अन्तर है कि लौकिक दर्पण में जब तक सम्मुख विम्ब रहता है तभी तक उनमें प्रतिविम्ब दिखलाई पड़ता है लेकिन काव्य दर्पण में जब एक बार कोई व्यक्तित्व प्रतिबिम्बित हो जाता है तब वह विम्ब के न रहने पर भी भाषमान ही होता है | इसलिए संस्कृत कवियों के द्वारा स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व को विविधता के साथ प्रकाशित किया गया है | विवेकानन्द का ऐसा व्यक्तित्व है जिससे लोग युगों- युगों तक प्रेरणा लेते रहेंगे | उनका जीवन लोंगो के दुःख दर्द के समाप्त के लिए सदैव संलग्न रहा |यदि संस्कृत साहित्य में विवेकानन्द पर लेखन पर बात की जाय तो महाकाव्य ,नाटक ,गीति काव्य ,गद्य काव्य आदि सबमें मिलता है | यथा –त्र्यंबक शर्मा भंडारकर प्रणीत रसाभि -विवेकानन्दचरितम्, संनिधानम सूर्य नारायण प्रणीत विवेकानन्दचरितम्,श्री विश्वनाथ केशव छत्रे प्रणीत पी.के.नारायण पिल्लई प्रणीत विवेकानन्दम्, और विश्वभानु महाकाव्य | डा. यतीन्द्र विमल चौधरी कृत भारत विवेकम् ,डा.श्री धर भास्कर कृत विवेकानन्द विजयम् नाटक हैं |पलसुखे रचित विवेकानन्दचरितम्, गद्यकाव्य ,श्री के. एस. नागराजन रचित विवेकानन्दचरितम्, गद्यकाव्य तथा डा. यतीन्द्र विमल चौधरी रचित श्री श्री विवेकानन्दचरितम्, चम्पू काव्य आदि आधुनिक संस्कृत जगत आलोकित है |  
    स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्त्व , जीवन - दर्शन और चिन्तन को विभिन्न कवियों ने प्रकाशित किया है | त्र्यंबक शर्मा भंडारकर अपने महाकाव्य रसाभिविवेकानंदचरितम् में विवेकानन्द के भारतीय दर्शन के प्रति अनुराग को व्यक्त करते हुआ कहा है –आत्मेव नित्यमचलस्थितिभारतं न: शुद्धं प्रबुद्धमभयं परमद्वितीयम्|आचन्तशून्यमजशरमप्यमेयं देशस्य तस्य बलिनस्तनया|| यहाँ उनके मन भरतीय दर्शन के स्थितप्रज्ञ भाव को कवि ने व्यक्त किया है| इसी तरह विवेकानन्दचरितम् महाकाव्य में भारत देश की सांस्कृतिक समृद्धि के स्मरण के साथ वर्तमान भारत का यथार्थ चित्रण किया गया है |यहाँ पर रामकृष्ण परमहंश के प्रिय शिष्य विवेकानन्द के विषय में कहा गया है - श्रीराम कृष्ण प्रियशिष्यवर्य: प्रबोधयन् स्नेहमय लोकान्|विवेक आनन्द यति पृथिव्यां कालानुवतीविमुनिश्चकास || भारत एक कृषि प्रधान देश है इस लिए विवेकानन्द को कृषक जीवन और उसके खेत मनोहर लगते थे |इस सम्बन्ध विश्वभानु महाकाव्य में कहा गया है - गोधुम सान्द्रहरितां नयनस्य पुण्य धारां विदूर परिचुम्बितवक्रवालाम्|संस्कृत्य कर्षकजनै: परिलाल्यमानां केदार भूमि भविशत् विकस्वरात्मा|| इस तरह विवेकानन्द के राष्ट्र प्रेम ,धर्म ,अहिंसा ,सत्य ,शिक्षा ,पर्यावरण आदि विषयों को संस्कृत कवियों के द्वारा सामने लाने का प्रयास किया गया है | संस्कृत ही संस्कृति की सम्बाहिका है | जहाँ उत्तम चरित्र ,कर्म ,दर्शन ,साहित्य को लोक के कल्याण के निमित्त ही गढ़ा जाता है | विवेकानन्द का उज्ज्वल जीवन सदैव भारतीय मानस का प्रक्षालन करता रहेगा और एक राष्ट्र के अमर स्वरूप प्रस्तुत करता रहेगा जहाँ उच्च विचार एवं श्रेष्ठ शिक्षा व कर्म की पूजा होगी |
 सादर स्मृति में .......

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