Sunday 18 August 2019

नाट्यशास्त्रीय परम्परा और अग्निपुराण

नाट्यशास्त्रीय परम्परा और अग्निपुराण



      संस्कृत शास्त्र परम्परा में नाट्यशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नाट्य का नाम सुनते ही हमारे अन्दर दृश्य भाव प्रकट होने लगता है और अपने स्वाभाविक अनुशासन को प्राप्त कर वह नाट्य रूप में परिणित हो जाता है। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार नाट्यशास्त्र नट् (नमनार्थक) धातु से निष्पन्न है जहाँ पात्र अपने स्वभाव का त्याग कर पर भाव ग्रहण करे तो वह नाट्य रूप हो जाता है। वैयाकरण पाणिनि अष्टाध्यायी में लिखते हैं- ‘‘नटानां धर्म आश्रयो वा नाट्यम्’’1 नटों के धर्म या चेष्टाओं के अतिरिक्त उनके सम्पाद्य कर्म का प्रतिपादक नाट्य है। आचार्य भरत नाट्य की व्यापक चर्चा अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में करते हैं तथा उस वाक्यार्थ को अभिनय द्वारा अभिव्यक्ति करते हुए सहृदय के चित्त में रसोत्पत्ति का आधायक तत्त्व मानते हैं। इस प्रकार नाट्य रसाश्रय हो जाता है। इसका लक्षण देते हुए आचार्य भरत कहते हैं- ‘‘त्रैलोकस्यास्य सर्वस्य नाट्यं भावानुकीर्तनम्’’2

      अर्थात् नाट्य इस सम्पूर्ण त्रैलोक के भावों का अनुकीर्तन है। इसी अर्थ में ‘आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी’ भी काव्य लक्षण देते हुए लिखते हैं- लोकानुकीर्तनम् काव्यम्3 कहने का भाव यह है कि सम्पूर्ण लोक के सुख-दुःख, लाभ-हानि, राग-द्वेष इत्यादि विषयों का चित्रण ही नाट्य है। यह चित्रण वस्तु चित्रण नहीं बल्कि रसयुक्त हुआ करता है। उसके सुखात्मक और दुःखात्मक सभी चित्रण आनन्ददायक ही हुआ करते हैं। यही नाट्य की विलक्षणता है। जब हम ‘उत्तररामचरित’ नाटक में सीता के वियोग में रामचन्द्र को रोते हुए देखते हैं तो वहाँ ‘‘अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्’’4 अर्थात पत्थरों को भी रोते हुए पाते हैं। तब भी उस करूण रस में आनन्द की अनुभूति होती है। नाट्य और लोक में यही अन्तर है कि नाट्य में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द होता है लेकिन लोक में जहाँ शोक की स्थिति है वहाँ हम आनन्द की कथमपि कल्पना नहीं कर सकते हैं।

      नाट्य साहित्य की एक अनुपम विधा है। कहा जाता है कि कोई भी विधा बिना अनुशासन की स्थायी नहीं बन पाती है। अतः नाट्य विधा को स्थिरता प्रदान करने के निमित्त हमारे आचार्यों द्वारा नाट्यशास्त्र की एक वृहद् परम्परा प्राप्त होती है। इस परम्परा में आचार्य भरत प्रणीत ‘नाट्यशास्त्र’ का महनीय स्थान है। लेकिन आचार्य भरत से पूर्व में भी ‘नाट्यशास्त्रीय’ ग्रन्थ विद्यमान थे जिनका उल्लेख करना उचित ही होगा। ‘नाट्यशास्त्र’ के आदिकर्ता स्वयभ्यू ब्रह्म कहे जाते हैं। शारदातनय ने उन्हें नन्दिकेश्वर का शिष्य बतलाया है। शारदातनय के अनुसार नाट्यवेद के आविस्कर्ता शिव हैं ब्रह्म नहीं, शिव ने नाट्य का सृजन कर तण्ड (नन्दिकेश्वर) को शिक्षा दी थी।5 ‘नाट्यशास्त्र’ और ‘अभिनयदर्पण’ के अनुसार भगवती पार्वती ने लास्य का आविष्कार किया था। लास्य का नाट्य विधा से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। नन्दिकेश्वर ने अपने भरतार्णव नाट्यग्रन्थ में पार्वती के ग्रन्थ का नाम ‘भरतार्थचन्द्रिका’ बतलाया है।6 नाट्यशास्त्रीय आचार्यों के रूप में वैदिक ऋषि याज्ञवल्क्य का भी नाम आता है। उनके ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ में बताया गया है कि सामगीतों के गायन के साथ भद्रक, अपरान्तक, प्रकरी, सरोबिन्दु, आवेणक, उल्लोप्यक और उत्तर नामक सात प्रकार के गीतों का उल्लेख किया है। महर्षि याज्ञवल्क्य जीव आत्मा को नट की उपमा से समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार नट अनेक रूपों को बनाने के लिए रंगों आदि नाना प्रकार के वेष धारण करता है उसी प्रकार यह जीवात्मा भी तत्तत कर्मों के द्वारा नाना प्रकार के शरीर को धारण करता है।7 आचार्य नन्दिकेश्वर ने अपने भरतार्णव में आचार्य वृहस्पति का उल्लेख करते हुए उनके सत्ताईस हस्त विनियोगों का वर्णन किया है।8 महर्षि नारद ब्रह्मा के शिष्य एवं गान्धर्व के प्रतिपादक आचार्य थे,9 ब्रह्मा ने नाट्यवेद की रचना कर नारद को नाट्य प्रयोग के लिए नियुक्त किया था। ‘महाभारत’ में नारद को गन्धर्ववेद का प्रवर्तक कहा गया है।10 नाट्यशास्त्रीय आचार्यों में तुम्बुरू का भी नाम आता है जो नारद के समकालीन माने जाते हैं। ‘वाल्मीकिरामायण’ में तुम्बुरू का उल्लेख अप्सराओं के गान शिक्षक के रूप में आया है।11 स्वाति को ब्रह्मा ने नाट्य प्रयोग में वाद्य वादन के लिए नियुक्त किया था। वे संगीतशास्त्र के एक प्रामाणिक आचार्य माने जाते हैं। ‘अग्निपुराण’ में काश्यप को छन्द शास्त्रकार के रूप में उल्लेख किया गया है12 तथा आचार्य दण्डी के काव्यादर्श के ‘हृदयङ्गमा टीका’ में काश्यप को अलंकारशास्त्र का प्रणेता माना गया है13 नाट्यशास्त्र में वासुकि अथवा महानाग का उल्लेख देवताओं के साथ हुआ है। शारदातनय अपने ‘भावप्रकाशन’ में रसोत्पत्ति के प्रसंग में वासुकि के मत का उल्लेख किया है।14 वादरायण के रूप में उल्लेख नाट्याचार्य का रूप है नाट्यशास्त्र में उल्लेख मिलता है। नाट्यशास्त्र में भरत पुत्रों की सूची में वादरायण का नाम दिया गया है।15 नाट्यशास्त्र के अन्तिम अध्याय में कोहल के साथ वात्स्य, शान्डिल्य एवं धूत्र्तिल का नाम आया है।16 ये नाम अन्य आचार्य व भरत आदि के ग्रन्थों में किसी न किसी रूप में प्राप्त होते हैं इससे विदित होता है कि आचार्य भरत के पीछे नाट्य शास्त्र की एक वृहद परम्परा थी जिसके दृढ़ आधारशिला पर पैर रखकर भरत चले ही नहीं अपितु नाट्यशास्त्र की प्राचीन थाती को सहेजा और उसके प्रयोगधर्मिता को विकसित किया।

      इसी क्रम में अग्निपुराण का भी नाम आता है। यहाँ नाटक, पूर्वरङ्ग, वस्तुविधान, पात्र, अभिनय, वृत्ति एवं रस आदि विषयों पर बहुत ही सम्यक् विचार किया गया है। यहाँ सत्ताइस प्रकार के नाटकों का उल्लेख मिलता है-

नाटकं सप्रकरणं डिन इहामृगोऽपि वा।
ज्ञेयः समवकारश्च भवेत्प्रहसनं तथा।।
व्यायोग भाणवीथ्यंक त्रोटकान्यथ नाटिका।
सट्टकं शिल्पकः कर्णाएको दुर्मल्लिका तथा।
प्रस्थानं भाणिका भाणीं गोष्ठी हल्लीशकानि च।
काव्यं श्रीगदिनं नाट्यरासकं रासकं तथा।
उल्लाप्यकं प्रेङक्षणं च सप्तविंशतिधैव तत्।।17

      अर्थात यह दृश्य काव्य सत्ताईस प्रकार का होता है- नाटक, प्रकरण, डिम, इहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, कर्ण, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य श्रीगदित, नाट्यारासक, उल्लायक प्रेक्षण। नाट्यशास्त्र में केवल दश प्रकार के रूपकों को ही बतलाया गया है। जबकि ‘साहित्यदर्पण’ में दश प्रकार के रूपक और अट्ठारह प्रकार के उपरूपकों की चर्चा की गयी है।18 अतः अग्निपुराण के रूपक का सत्ताईस भेद अपने आप में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहां नाटक का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है-

त्रिवर्गसाधनं नाट्यमित्याहुः कारण च यत्।19

      अर्थात् नाटक त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम की प्राप्ति) का मूल साधन है। तात्पर्य यह है कि नाटक से धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। यहां मोक्ष को सम्मिलित नहीं किया गया है। इसका कारण यह है कि शान्तरस को नाटक में स्वीकार नहीं किया जाता है। आचार्य धनंजय भी तीन ही नाट्य का प्रयोजन माने हैं।20 अग्निपुराण में पूर्वरङ्ग विधान पर भी विस्तृत चर्चा मिलती है। वहां कहा गया है-

इतिकर्तव्यता तस्य पूर्वरङ्गो यथाविधि

नान्दीमुख्यानि द्वात्रिशंङ्ानि पूर्वरङ्गके।।

देवतानां नमस्कारो गुरूणामपि च स्तुतिः।

ग्रोब्राह्मणनृपादिनामाशीर्वादादि गीयते।।21

      अर्थात् पूर्वरङ्ग में विधिपूर्वक नान्दी आदि वत्तीस अङ्गों का निर्वाह करना चाहिए। इस स्थल पर देवताओं को नमस्कार, गुरूजनों की प्रशंसा, गौ, ब्राह्मण और राजा के आशीष का गायन किया जाता है। पूर्वरङ्ग के रूप में जिन वत्तीस अङ्गों का उल्लेख किया गया है उसमें पांच प्रकार की नान्दी, पांच निर्देश, तीन आमुख, दो प्रकार के इतिवृत्त, पांच अर्थप्रकृतियाँ, पांच चेष्टाएं, पांच सन्ध्यिा और देश काल का संकलन है। इस प्रकार अग्निपुराण में समस्त वस्तु तत्व की भी विधिवत व्याख्या मिलती है। यहां इतिवृत्र के दो भेद बतलाए गये हैं-

सिद्धमुत्प्रेक्षितं चेति तस्य भेदावुभौ स्मृतौ।

सिद्धमागमदृष्टं च सृष्टमुत्प्रेक्षितं कवेः।।22

      अर्थात इतिवृत्त के दो भेद हैं- सिद्ध और उत्प्रेक्षित। आगम शास्त्र से प्राप्त कथानक सिद्ध कहलाता है और कवि कल्पना प्रसूत उत्प्रेक्षित कहा जाता है। नाट्य पात्रों के रूप में भी अग्निपुराण में वर्णन प्राप्त होता है। यहाँ नायक के सम्बन्ध में बताया गया है-

आलम्बनविभावोऽसौ नायकादिभवस्तथा।

धीरोदात्तो धीरोद्धतः स्याद्वीरललितस्तथा।।

धीरप्रशान्त इत्येवं चतुर्धा नायकः स्मृतः।

अनुकूलो दक्षिणश्चशठो धृष्टः प्रवर्तितः।।23

      अर्थात् यह आलम्वन वियाव नायकादि में ही होता है अथवा नायकादि को आलम्वन विभाव कहते है। धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरप्रशान्त ये चार प्रकार के नायक होते हैं। प्रत्येक भेद के अनुकूल, दाक्षिण, शठ और धृष्ट ये चार नायक के उपभेद हैं। इसके साथ ही पीठमर्द, विट और विदूषक इत्यादि पात्रों के भी विषय में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

      नाट्य अभिनय में स्त्री पात्रों की महती भूमिका होती है। एतदर्थ अग्निपुराण में कौशिक का मत उल्लेख करते हुए तीन प्रकार की नायिकाओं का निर्देश किया गया है-

स्वकीया परकीया च पुनर्भूरिति कौशिकाः।

सामान्य न पुनर्भूरि इत्याद्या बहुभेदतः।।24

      अर्थात् कौशिक के मत में नायिकाएं तीन प्रकार की होती हैं- स्वकीया, परकीया और पुनर्भू। कई विद्वानों के विचार में सामान्य नायिका होती हैं, पुनर्भू नहीं होती है। इस प्रकार नायिका के अनेक भेद हो जाते हैं। इस प्रकार पात्रों के संदर्भ में भी आवश्यकतानुसार यहाँ चिन्तन किया गया है। नाट्य सदैव अभिनय के लिए ही जाना जाता है। आचार्य भरत से लेकर आधुनिक आचार्यों तक नाट्य के मूल धर्म के रूप में अभिनय को स्वीकार किया गया है। ‘अग्निपुराण’ में अभिनय के सम्बन्ध में कहा गया है-

अभिमुख्यं नयन्नर्थान्विज्ञेयोऽभिनयो बुधैः।

चतुर्धा संभवः सत्त्ववागङ्गहरणाश्रयः।।25

      अर्थात नाटक की वण्र्य-वस्तु को दर्शकों के समक्ष लाने वाला अभिनय ही होता है। वह अभिनय चार प्रकार का होता है- सत्त्वाश्रय, वागाश्रय, अंगाश्रय और आहरणाश्रय। जहाँ सुख-दुःख मनोभावों का अभिव्यंजन होता है उसे सत्त्वाश्रय अभिनय कहा जाता है। वाणी के द्वारा काव्य एवं सम्वादादि का अभिनय वाणाश्रय या वाचिक अभिनय कहलाता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के अंगों का प्रदर्शन किया जाता है उसे अंगाश्रय या आङ्गिक अभिनय कहते हैं तथा वेश-भूषा आदि नेपथ्य-विधान से सम्बन्धित अभिनय आहरणाश्रय या आहार्य अभिनय कहलाता है। नाट्य प्रयोग की दृष्टि से वृत्तियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। नायक के व्यापार को वृत्ति कहते हैं। ‘अग्निपुरण’ में वृत्तियों के संबंध में कहा गया है-

क्रियास्वविषमा वृत्तिभारत्यारभटी तथा।

कौशिकी सात्त्वती चेति सा चतुर्धा प्रतिष्ठिता।।26

      अर्थात् क्रियाओं (नायकादि के कार्यों) में नियमपूर्वक व्यवहार को वृत्ति कहते हैं। इसके भारती आरभटी कौशिकी (कौशिकी) और सात्त्वती ये चार भेद हैं। ये वृत्तियाँ पात्रनिष्ठ होती हैं, पात्रों के क्रिया-कलाप का नियमपूर्वक व्यावहार वृत्ति कहलाती है। यह एक ऐसा अभिनय व्यापार है जिसका कर्ता स्वहित की साधना से सम्बन्धित नहीं होता है अपितु सामाजिक का रसास्वादन ही इसका मूलोद्देश्य हुआ करता है। वृत्ति इत्यादि के अतिरिक्त यहां गुण और अलंकार के विषय में भी विस्तार पूर्वक विमर्श किया गया है। गुण के विषय में अग्निपुरण में कहा गया है-

अलंकृतमपि प्रीत्यै न काव्यं निर्गुणं भवेत।

वपुष्यललिते स्त्रीणां हारो भारायते परम्।।27

      अर्थात जिस प्रकार असुन्दर शरीर वाली नारियों के लिए रत्नाहार भार बन जाता है उसी प्रकार माधुर्यादि गुणों से रहित काव्य अलंकृत होने पर भी आह्लादक नहीं होता है। यहां श्लेष आदि दश गुण माने गये हैं। अलंकारों के रूप में भी यहां शब्दालंकार28, अर्थालङ्कार29 और शब्दार्थालकार30 की चर्चा की गयी है। अग्निपुराण में रस का बहुत ही सम्यक् विवेचन किया गया है। रस ही नाट्य (काव्य) प्राण होता है। रसौ वै सः31 इस वैदिक श्रुति के आधार पर रस को आनन्द स्वरूप ब्रह्म माना गया है। इसी श्रुतिवाक्य के आलोक में भारतीय मनीषियों ने जीवन के परम उद्देश्य के रूप में अलौकिक आनन्द को परिभाषित करने का प्रयास किया है। वही रस काव्यजगत् में अपने अनुभूयात्मकता के कारण विगलित वेद्यान्तर आनन्दम् के रूप में स्वीकार किया जाता है। रस जीवन का सार है। यह प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान रहता है और अवसर पाकर प्रस्फूटित हो जाता है। उस रस के विषय में अग्निपुरण में कहा गया है-

अक्षरं परमं ब्रह्म सनातनमजं विभुम्।
वेदान्तेषु वदन्त्यैकं चैतन्यं ज्योतिरीश्वरम्।।
आनन्दः सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन।
व्यक्ति सा तस्य चैतन्यचमत्कार रसाह्वया।।31

      अर्थात् वह परमब्रह्म परमेश्वर अक्षय है। वह शाश्वत अजन्मा और समस्त सृष्टि में परिव्याप्त है। वेदान्त ग्रन्थों में उसे अद्वितीय ज्योतिर्मान् और सामथ्र्यवान कहा गया है। उसका आनन्द स्वाभाविक है पर उसकी अभिव्यक्ति कभी-कभी होती है। उसकी अभिव्यक्ति का नाम चैतन्य, चमत्कार अथवा रस है। अतः अग्निपुराण के अनुसार ब्रह्म की अभिव्यक्ति का नाम रस है। यहां रस की संख्या नव बतलाई गयी है। शृंगाररस, हास्यरस, करूणरस, रौद्ररस, वीररस, भयानकरस, वीभत्सरस, अद्भुतरस और शान्तरस। शान्तरस यहां नाट्य रूप में स्वीकार नहीं किया गया है किन्तु नाटक प्रकरण में निर्दिष्ट होने के कारण उसका भी निरूपण किया गया है। जब विवेक, वैराग्य आदि के कारण कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती तब शान्तरस होता है। अग्निपुराण का एक और विशेष मनत्वय है कि भारत भूमि ही नाट्य मर्यादा की पोशिका भूमि है। यहीं नाट्य पुष्पित एवं पल्लवित होने के योग्य है-

देशेषु भारतवर्षं कालेकृतयुगत्रयम्।
नर्ते ताभ्यां प्राणभृता सुखदुःखोदयः क्वचित्।।32

      अर्थात् नाटक के दृश्य तत्व सदा भारत के ही होने चाहिए और कालों में सत्युग, त्रेता और द्वापर इन तीनों का उल्लेख होना चाहिए। देशकाल के सम्यक् उल्लेख के बिना दर्शकों को सुख और दुःख की अनुभूति ठीक प्रकार से नहीं करायी जा सकती। अभिप्राय यह है कि जब तक नाट्य लोक से नहीं जुड़ता तब तक वह सामाजिक के र´्जन का विषय नहीं बन सकता है। जो लोक में होता है वही शास्त्र बनता है। वही नाट्य बनता है। इसलिए भारत जैसे देश की उर्वर भूमि में विकसित नाट्य यहां के इतिहास, भूगोल के साथ जुड़कर सामाजिक को रसानुभूति कराने में सक्षम हो सकेगा। यही रसानुभूति की प्रक्रिया है। वह सामाजिक के व्यवहार जगत् से सम्बन्धित होकर ही रसोद्रेक करता है। जिससे भारतीय संस्कृति का जुड़ाव भी और गहरा होता चला जाता है। किसी देश की संस्कृति उसकी पहचान होती है। उसकी र´्जन की विभिन्न शाखाएं उसे अत्यधिक समृद्ध बनाती है। इन्हीं सभी उपागमों के साथ अग्निपुरण का नाट्यशास्त्रीय सिद्धांत व्यापक एवं विलक्षण हो जाता है। इस प्रकार देखते हैं कि अग्निपुराण नाट्यशास्त्रीय सिद्धांत के महनीय अभिधानों को अपने साथ लेकर साहित्य जगत् में पर्दापण करता है और एक प्रतिमान को स्थापित करता है।  



संदर्भ -

1.         अष्टाध्ययी, 4/3/129

2.         नाट्यशास्त्र 7/108

3.         अभिनवकाव्यालङ्कारसूत्रम्, 1/1/1

4.         उत्तररामचरित 7/28

5.         भावप्रकाशन, पृ. 55-57

6.         भरतार्णव, 10/636

7.         याज्ञवल्क्यस्मृति, 3/162

8.         भरतार्णव 4/139-205

9.         द्विवेदी डाॅ. पारसनाथ नाट्यशास्त्र का इतिहास, पृ. 15

10.      महाभारत शन्तिपर्व, 168-58

11.      वाल्मीकिरामायण, 2/9/18

12.      अग्निपुराण 336/22

13.      काव्यादर्श- हृदयङ्गमा- 1/2 तथा 11/17 पूर्वेषां काश्यपवररूचि प्रभृतीनामाचार्याणां लक्षणशास्त्राणि संहृत्य पर्यालोच्य . . ।

14.      भावप्रकाशन, पृ.37

15.      नाट्यशास्त्र, 1/32

16.      नाटक लक्षण रत्नकोश, पृ. 109, 263, 306

17.      अग्निपुराण, 338/1-4

18.      साहित्यदर्पण, 6/3-6

19.      अग्निपुराण, 338/7

20.      दशरूपक, 1/16

21.      अग्निपुराण, 338/8-9

22.      वही, 338/18

23.      वही, 339/37-38

24.      वही, 339/41

25.      अग्निपुराण, 342/1

26.      वही, 340/5

27.      वही, 346/1

28.      वही, 343

29.      वही, 344

30.      वही, 345

31.      वही, 339/1-2

32.      वही, 338/27

  

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