Sunday 18 August 2019

भारतीय संस्कृति में मानव मूल्य

भारतीय संस्कृति में मानव मूल्य

डाॅ. संजय कुमार

सहायक आचार्य

संस्कृत-विभाग

डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर (म.प्र.)



            भारतीय संस्कृति सामासिक संस्कृति कही जाती है, इसमें सभी लोगों को समाहित करने की अपार क्षमता है। इसके भाव-विचार, रहन-सहन, गाम्भीर्य और सहजता से र´ित होकर लोग इसे स्वीकार ही नही करते बल्कि इसी के बन जाते हैं। वस्तुतः संस्कृति अपने देश की अन्तरात्मा होती है। इसके द्वारा उस देश और काल के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिसके आधार पर वह अपने सामाजिक या सामूहिक आदर्शों का निर्माण की हुई होती है। संस्कृति का प्रभाव हमें व्यक्तिगत या सामाजिक दायित्वों एवं पारस्परिक शिष्टाचारों के रूप में परिलक्षित होता है। संस्कृति से प्रभावित होकर ही व्यक्ति व्यक्तिगत, सामाजिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक, कलात्मक एवं धार्मिक जैसे समस्त कार्यो को करने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इसका प्रेरणाप्रद भाव ही मूल्य बन जाता है, मूल्य से हमारा यहाँ अभिप्राय उत्कट आदर्श से है। उत्कट आदर्श मानव जीवन में उस अग्निकण के समान है जिसका एक लव ही उसे प्रकाशित करने में पूर्ण सक्षम होती है।

      भारतीय चिन्तन का मुख्य धेय मानव कल्याण है। वह किस प्रकार से अपने इस धेय को क्रियान्वित करे तो वह इस रूप में अध्यात्म का सहारा लेता है। अध्यात्म एक ऐसा तत्त्व है जिसके प्रति मानव मन शुभ में सहज ही प्रवृत्त हो जाता है। संसार की वस्तुस्थिति सभी के लिए कौतुहल का विषय रहा करती है। उस कौतुहल का शमन निःश्रेयसता के ज्ञान से हो जाता है। निःश्रेयस का अर्थ मोक्ष वह तभी संभव है जब मनुष्य के अन्दर सद्-असद का विवेक हो तथा उदात्त मानवीय मूल्यों का आचरण हो। हमारे उदात्त मानव मूल्य प्राणिमात्र के प्रति दया, प्रेम, सुख की भावना है। स्वहित का त्याग परहित का ध्यान ही मानव मूल्य है, इसके बिना जीवन सही अर्थ में जीवन नहीं है। ईशावास्योपनिषद् का यही उद्घोष भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक मानव मूल्य का सूत्रपात करता है-

ऊँ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्कि´चजगत्यं जगत्।

तेन त्यक्तेन भु´जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।1

      अर्थात् जगत् में जो कुछ भी स्थावर जगम प्राणि समूह पदार्थ है यह सब कुछ ईश्वर द्वारा अच्छादनीय है। अतः उस ईश्वर के द्वारा प्रदान किये पदार्थो का मात्र जीवन निर्वाह के लिए भोग करो, किसी के भी धन की लालच मत करो। इस मूल्य शिक्षा की संकल्पना हमारे प्राचीन महर्षियों के द्वारा दी गयी थी, जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण सृष्टि में आत्मभाव का बीजांकुर पैदा करना था। सभी ईश्वर के सन्तान हैं, सभी समान है। सभी मिलकर संसार के ऐश्वर्य का उपयोग करें। सभी एक दूसरे की रक्षा करें। कठोपनिषद में कहा गया है-

     ऊँ सहनाववतु! सह नौ भुनक्तु! स वीर्यं करवावहै।

     तेजस्विनावधीतमस्तु! मा विद्विषावहै।।2

      अर्थात् हे परमात्मा हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करंे। हमारा एक साथ पालन-पोशण करें। हमें समान रूप से बल प्रदान करें, हमारा अध्ययन समान हो। हम परस्पर द्वेष न करें। यह हमारी भारतीय संस्कृति की मानव मूल्य की शिक्षा है जो सम भाव में विश्वास करती है। समानता के भाव का बहुत महत्त्व है क्योंकि इस भाव से एकत्त्व के भाव को बल मिलता है। मानव मन में किसी के प्रति राग-द्वेष का भाव नहीं रहता है। चहुओर विकास की सम्भावना बढ़ती है। यह विकास सर्वमंगलमागल्ये की दृढ़ आधारशिला पर विकसित होता है जिसका परिणाम सुदूर भूमि में समृद्धि के रूप में परिलक्षित होती है। यह भावना मनुष्य को असत् पथ पर नही, सत पथ पर ही चलने की कामना करती है। जिसके विषय में भारतीय संस्कृति की प्राणभूत उस संकल्पना को दृष्टि ओझल नही किया जा सकता जिसमें सत्य का आश्रय ही मात्र विजयता का कारण बताया गया है-

                 सत्यमेव जयते नानृतम्।3

 अर्थात् सत्य की विजय होती है, असत्य की नही। यह वाक्य भारतीय संस्कृति का वह जीवन मूल्य है, जो मनुष्य को अधीर नही होने देता है और पवित्र मन से कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करता है। यह मनुष्य में उस आशा और विश्वास को उत्पन्न करता है जिस आशा और विश्वास को अपने साथ लेकर महाराज युधिष्ठिर कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में पदार्पण करते हैं। उस समय उनके समीप सत्य का आश्रय कवच रूप में विद्यमान था। उन्हें विश्वास था अपने पौरुष पर, उनकी निष्ठा थी सत्याचरण में, जिससे विजयश्री ने उन्हें बरण की। कबीरदास भी कहते है-

सांच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदे सांच है, ता हिरदे गुरु आप।।4

 इसलिए मनुष्य को सदैव सत्य का आचरण करना चाहिए। सत्य आत्मिक बल है। वह मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ अलंकार मूल्य है। सत्य कभी वृद्ध नही होता है, वह सदैव नवयुवक की भांति रक्षा में तत्पर रहता है। अतः भारतीय मनीषा सदैव सत्य की ओर ही गमन करने की कामना करती है-

     असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।

       मृत्योर्माऽमृतं गमय।।5

 अर्थात् हे ईश्वर असत् नही सत की ओर ले चलो, अन्धकार नही ज्ञान की आरे ले चलो। मृत्यु नही अमरता की ओर ले चलो। भारतीय संस्कृति की यह उज्ज्वल प्रेरणा। युगो-युगो तक मानव मूल्य को परिभाषित करती रहेगी तथा सत्याचरण से नवल विकासक्रम को रेखांकित करती रहेगी। वस्तुतः सत्य मनुष्य जीवन का वह शाश्वत मूल्य है जिसका क्षरण संभव नहीं है और व्यवहार परम कल्याण के नियामक के रूप में सिद्ध होता है। ज्ञान प्रकाश को धारण करता है और अज्ञान अधंकार को। प्रकाश स्वरूप ज्ञान ही मनुष्य के मनुष्यत्त्व की कसौटी है। भारतीय संस्कृति में ज्ञान का आशय केवल ब्रह्म और जीव के अभेद को समझना ही नही है बल्कि जीवन के व्यावहारिक पक्ष को ठीक प्रकार से समझकर तनुसार उसका आचरण करना है। जब तक हमारा व्यावहारिक जीवन सुखी नही होगा तब तक हम आध्यात्म की ओर उन्मुख नही हो सकते हैं। प्रायः हमारा गमन स्थूल से सूक्ष्म की ओर ही संभव है, सूक्ष्म से स्थूल पर आना तो कल्पना का विषय हो जाता है क्योंकि मनुष्य पृथ्वी से ही आकाश की ओर गमन करता है और जब पृथ्वी ही नही तो आकाश में उड़ने का प्रश्न ही नही उठता। अतः मनुष्य का व्यावहारिक जीवन ही पृथ्वी के समान है जिसमें वह विभिन्न प्रकार के आचरण को करता हुआ आध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। इसी वस्तुस्थिति को समझाने के लिए भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय की स्थापना की गयी है।

भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व उसके मूल्य परकता से ही है। पुरुषार्थ एक सीढ़ी के समान है जो मनुष्य को सबकुछ प्रदान करते हुए अन्तिम लक्ष्य तक पहुचाने में सहायक सिद्ध होता है। ये पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन की विविध अवस्थाओं को संयमित एवं अनुशासित बनाकर उनका सहजता से अनुकीर्तन करते हैं। ये हमारे जीवन में सर्वे पदा हस्तिपदा निमग्ना की भांति मानव के मूल्य के रूप में समाहित हैं। इसीलिए पुरुषार्थ को ही मानव मूल्य की नवीन संज्ञा से विभूषित किया जाने लगा है। मानव-मूल्य का ही प्राचीन नाम पुरुषार्थ समझना चाहिए क्योंकि मानव मूल्य की जितनी भी अवधारणाएं और व्याख्याएं की जाती हैं वह सब पुरुषार्थ में समाहित हो जाती हैं। मनुष्य का आचरण-व्यवहार, आवश्यकता, सत्य, विद्या, विजय, इच्छा, लक्ष्य, कर्म, अकर्म ज्ञान, विराग, रक्षा, दया, प्रशंसा, प्रसन्नता इत्यादि सभी पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतर्गत आते हैं। भारतीय संस्कृति की जो समसनम् की प्रवृत्ति है उसी के अनुसार वह सम्पूर्ण मानव-मूल्यों को पुरुषार्थ चतुष्टय में समाहित कर लेती है। जिनका वर्णन क्रमशः अपेक्षित है।

मानव जीवन को संयमित और अनुशासित करने के लिए प्रथमतः धर्म की आवश्यकता होती है क्योंकि अनुशासित व्यक्ति ही सकल व्यवहार से सबको प्रभावित करता है। इसलिए पुरुषार्थो में सबसे पहले धर्म को ग्रहण किया गया है। धर्म मनुष्य जीवन की नींव ह,ै जिसमें ब्रह्यचर्य आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम प्रतिष्ठित होता है। इसीलिए आचार्य मनु धर्म के विषय में कहते है-

     वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च ताद्विदाम्।

     आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।6

अर्थात् वेद, स्मृति, सदाचार, जो अपने को प्रिय लगे तथा उचित संकल्प से उत्पन्न इच्छा। ये ही परम्परा से चले आये हुए धर्मोपादन हैं। धर्म हमें माँ की भांति पोषित करता है इसी अर्थ में धारणात् धर्म परिभाषित किया जाता है। जिसे मानव मूल्य की कसौटी पर कस कर आचार्य मनु उसका व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए लिखते है-

धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

     धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्मलक्षणम्।।7

 अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दश स्वरूप हैं। सभी समाजशास्त्री इसे मानव-मूल्य के रूप में ग्रहण करते हंै। इन दशों को एक अपना स्वरुप है जो अपने लय के साथ प्रवाहित होते हैं और एक स्वस्थ समाज व राष्ट्र के उन्नयन में अपनी महति भूमिका निर्वाह करते है। जिसके विषय में वाल्मीकीय रामायण मे भी कहा जाता है-

     धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात् प्रभवते सुखम्।

     धर्मेण लभते सर्वे धर्मसारमिदं जगत्।।8

अर्थात् धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख मिलता है धर्म से ही मनुष्य सब कुछ पाता है, इस संसार में धर्म ही सार है। कहने का भाव है कि धर्म वह मानव मूल्य है जो सम्पूर्ण सुखों का नियामक है। जिसके महत्व का प्रतिपादन करते हुए आचार्य मनु कहते हैं-

      धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।9

अर्थात् धर्म का नाश करने पर वह नाश कर देता है, धर्म रक्षित होने पर रक्षा करता है। धर्म के विषय में डाॅ. आत्रेय कहते हैं-धर्म उन नियमों को कहते हैं जिसके पालन से व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति और कल्याण होते हो, जिनके पालन से व्यक्ति को सुख, शांति और समाज में सन्तुलन और सामंजस्य तथा शांति स्थापित हो।10 अतः हम कह सकते हैं कि धर्म एक नैतिक व्यवस्था को जन्म देता है। जो सभी के प्रति सुख-शांति और कल्याणमय जीवन की कामना करता है। इसका तात्पर्य केवल आध्यात्मिक आस्था, पूजा-पाठ नहीं बल्कि आन्तरिक कर्तव्य रूप, अहिंसा, न्याय, करुणा, दया, समत्व, संतोष, आत्मदर्शन, अतिथि सत्कार, परोपकार विश्व-बन्धुत्त्व की भावना है। यही हमारा आज का मानव मूल्य है। यही हमारे जीवन जीवन्तता की कसौटी है, जिसका व्यवहार विश्व कल्याण की ओर उन्मुख करता है।

      पुरुषार्थ रूप में द्वितीय स्थान पर अर्थ का विधान किया गया है। अर्थ और काम भारतीय संस्कृति के वाह्य मूल्य है जबकि धर्म को आन्तरिक मूल्य माना जाता है। हमारी संस्कृति प्रत्येक मनुष्य को जीविकोपार्जन की अनुमति देती है। जिसके आधार पर वर्ण व्यवस्था का जन्म भी होता है। वस्तुतः हमारी भारतीय परम्परा कर्म में विश्वास करती है और सबको कर्म के लिए प्रेरित भी करती है। जिसका उद्देश्य है सभी लोग शुभकर्मों द्वारा अर्थ को प्राप्त करें। आश्रम-व्यवस्था में जो द्वितीय गृहस्थ आश्रम है उसमें अर्थ का बहुत महत्त्व है, क्योंकि हमारा सामाजिक परिवेश अर्थ पर ही निर्भर रहता है। अर्थ के अभाव में मनुष्य दरिद्र समझा जाता है, दरिद्रता मनुष्य को लज्जा प्रदान करती है। लज्जा से तेजहीन हो जाता है। तेजहीन अपमानित होता है। अपमान से ग्लानि उत्पन्न होती है। ग्लानि से शोक को प्राप्त होता है। शोकाकुल व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। विवेक शून्य नाश को प्राप्त करता है। अहो! निर्धन्ता सब आपदाओं का निवास स्थान है-

दारिद्रयादिध्र यमेति ह्ीपरिगतः प्रभश्यते तेजसो

     निस्तेजाः परिभूयते परिभवन्निर्वेदमापद्यते।

     निर्विण्णः शुचमेति शोक विहितो बुद्धया परित्यज्यते

     निर्बुद्धिः क्षयमेत्य हो निर्धनता सर्वोपदामास्पदम्।।11

इसलिए अर्थ का जीवन में विशेष महत्त्व है। धनोपार्जन के विषय में मनुस्मृति ने कहा गया है-

सर्वेषामेव शैचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।

योऽर्थे शुचिर हि स शुचिर न मृद् वारिशुचिः शुचिः।।12

अर्थात् सभी प्रकार के शौचों में धन का शौच यानि धनोपार्जन के उपाय की शुद्धता को बड़ा समझा गया है। जो धन में शुद्ध है वही शुद्ध है। केवल मिट्टी से और पानी से शरीर की शुद्धि करने वाला मनुष्य शुद्ध नही है। वास्तविक शुद्धता तो धनोपार्जन की ही शुद्धता है। अनुचित माध्यम से अर्जित किया गया धन कभी श्रेयस्कारी नही होता है। धन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए महर्षि वेदव्यास कहते हैं-

     धनमाहुपरंधर्मं धने सर्वं प्रतिष्ठितम्।

     जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः।।13

 अर्थात् धन ही परम धर्म है। धन में सब कुछ विराजमान है। समाज में धनी मनुष्य ही जीवित है। निर्धन तो मृत प्राय है। यहाँ वेदव्यास कहना चाहते हैं कि धन ही मनुष्य जीवन की सर्वोत्तम वस्तु है जिसके द्वारा सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए महर्षि याज्ञवल्क्य भी अर्थ की महनीयता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-

अलब्धमीहेद्धर्मेण लब्धं यत्नेन रक्षयेत।

पालितं वर्धयेन्नीत्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत।।14

अर्थात् अप्रापत धन को ही धर्म से प्राप्त करने की कामना करें जो प्राप्त है उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करें और जो रक्षित है उसकी नीतिपूर्वक वृद्धि करें तथा पात्रों में लगाये अर्थात् उसका सदुपयोग करें। धन का सदैव सदुपयोग ही करना चाहिए दुरुपयोग किया गया धन अनर्थकारी ही होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति में अर्थ को मनुष्य के सभी क्रिया कलापों एवं विकास की मूल भावना के रूप में स्वीकार किया गया है। अर्थ जीवन के सर्वांगीण विकास का सूचक है लेकिन उचित माध्यम से प्राप्त किया गया धन ही व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से लाभकारी सिद्ध होता है।

काम को मानव मूल्य के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय के अंतर्गत तृतीय स्थान पर रखा गया है। गृहस्थाश्रम में काम का अत्यधिक महत्त्व है। काम से धर्म, अर्थ, मोक्ष तीनों पुरुषार्थ सम्पक्त है। मनुष्य अपनी कामनाओं के आधार पर ही अर्थ संचय, धर्म एवं मोक्षादि का संकल्प करता है। अतः यह काम भी मानव मूल्य है। जो सम्पूर्ण जीवन को एक व्यवस्थित व्यवहार में नियमबद्ध करता है। जीवन में प्रवृत्ति मार्ग से इसका सम्बंध नही है बल्कि निवृत्ति मार्ग से भी इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। हम किसी का मंगल चाहते है, या अपना परमार्थ चाहते है वह सब काम के अंतर्गत आता है। काम का दूसरा नाम संकल्प इच्छा शक्ति है। हम किसी शुभ कर्म का यदि संकल्प लेते हैं वह काम ही है। काम से तात्पर्य केवल वासना, इन्द्रिय सुख व यौन-प्रवृत्तियों की संतुष्टि नहीं है बल्कि अर्थ संचय, पुत्रोत्पत्ति, धर्माचरण, लोकमंगल भावना भी है। जो एक समाज का अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग है। अतः काम एक व्यापक शब्द है। श्रीमद्भगवद्गीता में काम को अनेक रूपों में व्यक्त किया गया है-

काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः।15

प्रजहाति यदाकामान सर्वान्पार्थ मनोगतान्।16

 संगात संजायते कामः कात्क्रोधोभिजायते।

क्रोधात्भवति सम्मोह सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।।17

अतः निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि काम मानव की दृढ़ इच्छा शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। इस मूल्य की सम्यक् प्रतिष्ठा द्वारा ही स्वस्थ जीवन एवं स्वस्थ समाज का विकास संभव है। जीवन की बहुव्यापकता काम से ही परिभाषित होती है।

अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष है जिसके सम्बन्ध मे सभी दर्शन एवं सभी सम्प्रदाय एकमत हैं। मानव जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है। धर्म, अर्थ एवं काम के रास्ते चलते हुए मानव मोक्ष तक पहुचंता है। इसीलिए इसे चतुर्थ स्थान प्रदान किया गया है। यही मानव जीवन का साध्य है फलतः धर्म, अर्थ और काम को साधन के रूप में ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार मोक्ष जीवन का चरम मूल्य है। मोक्ष एक ऐसा मानवीय मूल्य है जिसकी प्राप्ति से मनुष्य को परम आध्यात्मिक शांति एवं आनन्द की प्राप्ति होती है। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदान्त सभी दर्शन जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष ही है। सभी उपनिषद इसी प्रेरणा की सम्बाहिका हैं। इसलिए ईशवास्योपनिषद् में कहा गया है-

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययामृतमश्नुते।18

 अर्थात् कर्मो का अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके ज्ञान के अनुष्ठान से मनुष्य मोक्ष (अमरता) को प्राप्त करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय की जो कल्पना की गयी है वह निश्चित रूप से मानव मूल्य की स्पष्ट व्याख्या करती है। पुरुषार्थ ही मानव मूल्य है क्योंकि पुरुषार्थ ही स्व एवं परहित की कामना करता है। वह श्रेष्ठ मानव मूल्य की असीम सीमा है, उसके बिना मनुष्य चेतना शून्य है। इसे हमारी भारतीय संस्कृति में आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया है इसी अर्थ में पुरूषार्थ को मानव मूल्य का पर्याय कहा गया है।

संदर्भ:

1.    ईशावास्योपनिषद, 1

2.    कठोपनिषद, शान्ति पाठ

3.    मुण्डकोपनिषद, 3/9/5

4.    गुप्त रमाशंकर, सूक्तिसागर, पृ. 665

5.    वृहदारण्यकोपनिषद, 1/3/28

6.    मनुस्मृति, 2/6

7.    वही, 6/12

8.    वाल्मीकीय रामायण, अरण्यकाण्ड 9/30

9.    मनुस्मृति, 8/15

10.  आत्रेय दत्त भीखनलाल, भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास, पृ. 619

11.  मृच्छकटिकम् 1/14

12.  मनुस्मृति, 5/106

13.  महाभारत, उद्योग पर्व, 70/23

14.  याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय, 317

15.  श्रीमद्भगवद्गीता, 3/37

16.  वही, 2/55

17.  वही, 2/63

18.  ईशावास्योपनिषद्, 11



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