Tuesday 27 August 2019

पंचतन्त्र के राजधर्म की प्रासंगिकता

पंचतन्त्र के राजधर्म की प्रासंगिकता



      संस्कृत साहित्य विश्वसाहित्य परम्परा की अमूल्य निधि है। यह साहित्यिक मीमांसा के साथ-साथ सांस्कृतिक तत्त्वों के स्वरूप परंपरा का भी उन्नामक साहित्य है। इसमें सांस्कृतिक मूल्यों को केवल संरक्षित ही नहीं किया गया है अपितु उनको शाश्वत धर्म के रूप में स्थापित किया गया है। संस्कृत साहित्य में शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, धर्म-दर्शन, उत्सव-महोत्सव, उपदेश एवं राजधर्म आदि विषयों का समावेश प्राचीन समय से ही मिलता रहा है। जिसमें पंचतन्त्र का स्थान महत्त्वपूर्ण है। पंचतन्त्र-मित्रभेद, मित्रलाभ, सन्धिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षितकारक इन पांच तन्त्रों से सम्मिलित ग्रन्थ का नाम है। प्रत्येक तन्त्र में मुख्य कथा एक ही है जिसके अंग को पुष्ट करने के लिए विविध गौण कथाएँ कही गयी हंै। लेखक का उद्देश्य आरम्भ से ही सदाचार, नीति और राजधर्म के विविध पक्षों का उद्घाटन करना रहा है। विशेषकर राजधर्म ही पंचतन्त्र का मूल प्रतिपाध विषय है क्योंकि महिलोरोप्य के राजा अमरकीर्ति के पुत्रों को सुशिक्षित करने के लिए पंचतन्त्र की रचना विष्णुशर्मा ने किया था। विष्णुशर्मा के उपदेश शैली का ऐसा प्रभाव राजकुमारों पर पड़ा कि वे बहुत अल्प समय में ही व्यवहार कुशल, सदाचारी और राजधर्म के ज्ञाता बन गये।1

      पंचतन्त्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें पशु-पक्षियों के आधार पर राजकुमारों को उपदेशित किया गया है। पशु-पक्षी सामान्य जनमानस केन्द्रस्थल हैं। इसलिए पंचतन्त्र लोक का प्रतिनिधित्व करता है और लोक सदैव प्रासंगिक ही होता है। वैसे तो सभी साहित्य समाज के दर्पण हैं लेकिन उनमें भी पंचतन्त्र समाज के अधिक समीप है। पंचतन्त्र की कथाए भारतीय परम्परा की समृद्ध धरोहर हैं। यह युगों-युगों से मानव समाज को प्रकाशित कर रहा है। उचित-अनुचित का विवेक उत्पन्न कर पीढ़ी दर पीढ़ी ने आने वाली संतानों के लिए दुर्लभ ज्ञान पेटिका को सौंपने वाला ग्रन्थ पंचतन्त्र है।

      अनादिकाल से ही राष्ट्र के हितैषी-मनीषियों द्वारा राजधर्म का उपदेश दिया जाता रहा है। इसी रूप में पंचतन्त्र भी प्रसिद्ध है। राजव्यवस्था का उचित नियम राजधर्म कहलाता है। राजधर्म को सभी धर्मों का मूल कहा गया है। इसीलिए राजधर्म के लिए दण्डनीति, क्षत्र विद्या, नृपशास्त्र, राजशास्त्र, राजनीति आदि नामों का प्रयोग किया जाता है। इसकी प्रासंगिकता एवं उपादेयता का ज्ञान इसी से हो जाता है कि इसके विषय वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतिग्रन्थ, महाकाव्य, नाटक आदि में प्रतिपादित हैं। यहाँ तक कि आधुनिक संस्कृत काव्य लेखक, रामजी उपाध्याय, सत्यव्रत शास्त्री, अभिराजराजेन्द्र मिश्र, पण्डिता क्षमाराव एवं राधावल्लभ त्रिपाठी आदि भी राजधर्म की महत्त्वशीलता को देखते हुए इसे व्याख्यापित किये हैं। इस प्रकार राजधर्म की समुचित व्याख्या संस्कृत साहित्य में प्राप्त होती है।

      स्मृतियों को धर्म शास्त्र की संज्ञा दी जाती है एवं राजधर्म को धर्मशास्त्र का एक अंग माना जाता है। जिससे विदित होता है कि धर्मशास्त्र सामान्य धर्माचरण से भिन्न राजा के आचरण को भी धर्माचरण मानता है। ठीक ही कहा गया है- धारणाद् धर्ममित्याहु।2 से राजधर्म के समुचित पालन से ही राजा, प्रजा एवं राज्य को धारण करता है। राजा ही राज्य एवं प्रजा दोनों का भाग्य विधाता होता है। राजा के सभी कार्य का परोक्ष या अपरोक्ष रूप से दोनों पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए राजा को प्राण-पण से प्रजा का पालन करना चाहिए। आज इस प्रजातन्त्र के युग में राजा शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। आज वह प्रशासन के रूप में व्यवहृत है। समकालीन समय का अनुशासन जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में है लेकिन कार्यप्रणाली में जनता का योगक्षेम ही मूल है।

      पंचतन्त्र को अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र के समान माना जाता है इसमें वर्णित राजधर्म के विचार भलि-भांति राजनीतिक व्यवस्थाओं का विश्लेषण करता है। पंचतन्त्र में विष्णुशर्मा की मौलिक कल्पना ही नहीं है बल्कि रामायण, महाभारत, पुराण और धर्मशास्त्र ग्रन्थों के राजधर्म से अनुप्राणित भी है। इसका प्रमाण पंचतन्त्र में मंगलाचरण के रूप में अनेक ऋषियों का नमस्कार हैं।3 यहाँ भी राज्यांग के रूप में प्राचीन परम्परा का अनुसरण करते हुए सात अंगों की बात कही गयी है जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी प्राचीनकाल में रही है। ये सात अंग हैं- स्वाम्यमात्यजनपददुर्ग कोश दण्डमित्राणि प्रकृतयः।4

      अर्थात् स्वामी अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र। आज भी भारतीय शासन व्यवस्था का कार्य नवीन नाम से इसी रूप में संचालित होता है। कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का जो कार्य दर्शाया गया है वह प्राचीन सप्तांग से ही सम्बन्धित है। ‘पंचतन्त्र’ में दक्षिणात्य जनपद के राजा महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के परिचय से ही स्वामी का लक्षण स्पष्ट हो सा रहा है- तत्र सकलार्थिकल्पद्रुमः प्रवरमुकुटमणिमरीचिम´्री चर्चित चरणयुगलः सकलकलापारङ्गतोऽमरशक्तिर्नाम राजा बभूव।5

      अर्थात महिलारोप्य नगर के समस्त याचकों के लिए कल्पवृक्ष के समान, उच्चतम राजाओं की मुकुटमणियों के किरण समूह से पूजित चरणयुगल वाला और समग्र कलाओं का पारदर्शी अमरशक्ति नाम के राजा थे। राजा का कल्पवृक्ष के समान होना और सम्पूर्ण कलाओं को जानने वाला होना अपने आप में राजा का महान् गुण है। कहने का भाव यह है कि राजा प्रजापालक के साथ-साथ शास्त्रों का ज्ञाता रहे। उसे लोक और शास्त्र दोनों का ज्ञान रहे। तभी वह सम्यक् प्रकार से राज्य संचालन कार्य कर सकता है। राजा का वैभव प्रजा ही है। पंचतन्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि सुवर्ण, धान्य, रत्न, विविध प्रकार की सवारियाँ तथा और भी जो कुछ राजा के पास है वह सब उसे प्रजा से ही प्राप्त होता है।6 इसलिए राजा को प्रजापालन में दत्तचित्त होना चाहिए-

फलार्थी नृपतिर्लौकन्पालयेद्यत्नमास्थितः।

दानमानादितोयेन मालाकारोऽङ्कुरानिव।।

लोकानुग्रहकर्तारः प्रवर्धन्ते नरेश्वराः।

लोकानां संक्षयाच्चैव क्षयं यान्ति न संशयः।।7

      अर्थात् फल चाहने वाले राजा को चाहिए कि जैसे माली अंकुरों को सींचता है वैसे ही वह दान-सम्मान आदि रूपी जल से उद्योगपूर्वक प्रजा का पालन करे। प्रजा पर कृपा करने वाले राजाओं की वृद्धि होती है और प्रजा को कष्ट देने वाले राजा निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं। ‘पंचतन्त्र’ की यह पंक्ति प्रजातन्त्र में अक्षरसह सत्य सिद्ध हुई है। जो सरकार प्रजाहित को सर्वोपरि नहीं रखती है उसे प्रजा सत्ता से दखल कर देती है। इसलिए सत्ताधारी को प्रजापालन में तत्पर रहना चाहिए। ‘मनुस्मृति’ में भी कहा गया है-

मोहाद्् राजा स्वराष्ट्रं कर्षयत्यनवेक्षया।

सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज् जीविताच्च सबान्धवः।।8

      अर्थात् जो राजा अज्ञानवश अपने राष्ट्र का देखभाल नहीं करके उसको कष्ट देता है। वह राजा शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट होता है और बन्धु-बान्धवों के साथ जीवन से भी हाथ धो बैठता है।

      राज्य के सात अंगों में राजा के पश्चात् द्वितीय महत्त्वपूर्ण अंग अमात्य का है। शासन की समस्त व्यावहारिकता मन्त्री के संकेत पर ही निर्भर करती है। मंत्री के लिए सचिव, अमात्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। ‘कौटिल्य’ के अनुसार राजत्त्व पद के लिए सहायकों महती आवश्यकता होती है। रथ का केवल एक चक्र गतिमान नहीं हो सकता है। इसलिए राजा को चाहिए कि वह मन्त्रियों का नियुक्त करे और उनके परामर्श को माने।9 ‘पंचतन्त्र’ में मन्त्री के सम्बन्ध में कहा गया है-

अन्तः सारैरकुटिलैरच्छिद्रैः सुपरीक्षितैः।

मन्त्रिभिर्धार्यते राज्यं सुस्तम्भैरिव मन्दिरम्।।10

      अर्थात् जिस प्रकार अच्छे, पुष्ट, सीधे खम्भों के सहारे मन्दिर खड़े रहते हैं उसी प्रकार सावधान, निष्कपट, निर्दोष, ठीक प्रकार से परीक्षित मन्त्रियों द्वारा राज्य धारण किया जाता है। यहाँ पर मन्त्री की विविधता प्रतिपादित है। मन्त्री के कत्र्तव्य को बताते हुए ‘पंचतन्त्र’ में कहा गया है-

अशृण्वन्नपि वोद्धव्यो मन्त्रिभिः पृथिवीपतिः।

यथा स्वदोषनाशाय विदुरेणाम्बिकासुतः।।11

      अर्थात् राजा यदि न सुने तो भी मन्त्री का कत्र्तव्य है कि वह राजा को समझाये। जिस प्रकार अपना दोष दूर करने के लिए विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाया था। विदुर सदैव धृतराष्ट्र के दोषों का विरोध अपना कत्र्तव्य समझकर करते थे। राजा मन्त्री के परामर्श को अस्वीकार करता है तो भी मन्त्री को अपने परामर्श का त्याग नहीं करना चाहिए। इसलिए राजा को योग्य मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए एवं उनके परामर्श को मानना चाहिए।

      राजा सप्ताङ्गों में जनपद तृतीय स्थान पर आता है। जनपद ही वर्तमान समय में राष्ट्र है, राष्ट्र मातृभूमि है। जिसके सम्बन्ध में ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।12 अर्थात् पृथ्वी मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। पुनः वही कहा गया है- यस्यां गायन्ति नृत्यन्ति भूम्यां मत्र्या व्येलवा।13 अर्थात् सम्पूर्ण भूमि के लोग प्रसन्न हो, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो। आचार्य मनु भी अपने ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ में एक सुरक्षित राष्ट्र की कामना करते हुए कहते हैं-

राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत।

सुसंग्रहीत राष्ट्रो हि पार्थिवः सुखमेधते।।14

      अर्थात् राजा राष्ट्र की रक्षा के लिए सदैव उपाय करता रहे। जो राजा अपने राष्ट्र की ठीक प्रकार से रक्षा करता है वही सुखी रहता है। राष्ट्र की अवधारणा अग्निपुराण, याज्ञयवल्क्यस्मृति, कामन्दकीय नीतिसार एवं अर्थशास्त्र आदि में भी प्रतिपादित है। राष्ट्र के सम्बन्ध में ‘अर्थशास्त्र’ में कहा गया है- ‘‘राजा को ग्रामों का मण्डल, प्राचीन ढूहो या नवीन स्थानों पर बनवाना चाहिए। जिसमें अन्य देशों के लिए प्रेरित किये जाये। जहाँ राष्ट्र के अधिक संख्या वाले स्थानों से लोग बुलाकर बसाये जाये।’’15 पंचतन्त्र में राष्ट्र के लिए जनपद शब्द का स्पष्टतः उल्लेख किया गया है-

अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नगरम्।16

      ‘पंचतन्त्र’ में सर्वत्र राज्य रक्षा की बात कही गयी है। अपने राज्य की रक्षा करना ही राजा का प्रथम कत्र्तव्य है। इस विषय में कहा गया है-

स्वस्थानं सुदृढ़ं कृत्वा शूरैश्चातैर्महाबलैः।

पददेशं ततो गच्छेत्प्रणिधित्याप्तमग्रतः।।17

      अर्थात् महाबली और विश्वस्त शूर पुरुषों के द्वारा अपने राज्य की रक्षा का प्रबन्ध करके प्रथम से ही अपने गुप्तचरों से परिपूर्ण शत्रु देश में जाना चाहिए। राज्य बहुत व्यापक शब्द है। इससे केवल भूभाग नहीं सम्बन्धित है बल्कि उस भूभाग पर बसे मानव संसाधन एवं प्राकृतिक संसाधन सब राज्य है। राज्य की सीमा रक्षा के साथ-साथ प्रजापालन इत्यादि भी राजकीय कार्य है। राज्यरक्षा के लिए राजा को शत्रु का मर्दन करना ही धर्म है। ‘पंचतन्त्र’ में कहा गया है-



रिपुरक्तेन संसिक्ता तत्स्त्रीनेत्राम्बुभिस्तथा।

न भूमिर्यस्य भूपस्य का श्लाघा तस्य जीविते।।18

      अर्थात् जिस राज्य की भूमि शत्रुओं के रुधिर और उनकी स्त्रियों के आसुओं से नहीं सींची जाती उस राजा के जीवित रहने में क्या प्रशंसा है। यानि कुछ भी नहीं उसका समाप्त होना ही श्रेष्ठ है। राजा को शत्रु की उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए।

      राजधर्म की व्याख्या में दुर्ग का भी अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन युद्ध परम्परा में दुर्ग को जीतना ही राज्य पर अधिकार समझा जाता था। इसलिए प्रत्येक राज्य की दुर्ग सुरक्षा व्यवस्था उत्तम प्रकार की होती थी। ‘याज्ञवल्क्यस्मृति’ मंे दुर्ग के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-

रम्यं पराव्यमाजीव्यं जाङ्गलं देशमावसेत्।

तत्र दुर्गाणि कुर्वीत जनकोशात्मगुप्तये।।19

      अपने जन, कोश तथा अपने शरीर की रक्षा के लिए राजा को दुर्ग बनाना चाहिए जो रमणीय हो, पशुओं को पालने योग्य हो, साथ-साथ आजीविका का साधन भी हो और जंगल में हो। इसी महत्दृष्टि के कारण ‘पंचतन्त्र’ में भी दुर्ग के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है-

दँष्ट्राविरहितो नागो मदहीनो यथा गजः।

सर्वेषां जायते वश्यो दुर्गहीनस्तथा नृपः।।20

      अर्थात् जिस प्रकार दाढ़ो के बिना सांप और मद से रहित हाथी ये दोनों सबके वश में हो जाते हैं उसी प्रकार दुर्गहीन राजा सबके वश में हो जाता है। दुर्ग की महत्ता प्रतिपादित करते हुए ‘विष्णुशर्मा’ ने कहा है कि जो कार्य हजारों हाथियों और लाखों घोड़ों से भी सिद्ध नहीं होता है राजाओं का वह कार्य एक दुर्ग से सिद्ध हो जाता है। किले में रहने वाला एक धनुर्धारी भी सैकड़ों पर निशाना लगा सकता है। इसलिए नीतिशास्त्र के ज्ञाता लोग दुर्ग की प्रशंसा करते हैं।21 आज भी दुर्ग राजधानी के रूप में व्यवहृत है।

      विशाल शासन तन्त्र को कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए कोष की महती आवश्यकता होती है। सभी कार्य धन से ही साधित होते हैं। धन के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए ‘पंचतन्त्र’ में कहा गया है-

अशनादिन्द्रियाणीवस्युः कार्याण्यखिलान्यपि।

एतस्मात्कारणाद्वितं सर्वसाधनमुच्यते।।22

      अर्थात् जिस प्रकार भोजन करने से समस्त इन्द्रिया सबल होती हैं उसी प्रकार समस्त कार्य धन से ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए धन सर्वसाधन कहलाता है। इस शासन तन्त्र को ठीक प्रकार से संचालित करने के लिए कर व्यवस्था लागू की जाती है। इसी से प्राप्त धन से राज्यव्यवस्था चलती है। ‘मनुस्मृति’ में भी कर व्यवस्था के अनेक नियम इसी उद्देश्य से बताये गये हैं।23 महाकवि कालिदास ने ठीक ही कहा है-

प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो वलिमग्रहीत।

सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रवि।।24

      अर्थात् जैसे सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी का जल सोखता है उसका सहस्रगुना जा वरसता है। वैसे ही राजा दिलीप जो भी प्रजा से कर लेते थे वह सब अपनी प्रजा की भलाई में लगा देते थे। आज भी प्रत्येक देश में कर व्यवस्था का पालन इसी रूप में किया जाता है। लेकिन वह कर कैसा हो इस सम्बन्ध में ‘महाभारत’ में बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्प को बिना पीड़ित किये मधु निकालती है, उसी प्रकार प्रजा का उत्पीड़न किये बिना राजा को कर ग्रहण करना चाहिए।25

      राज्य व्यवस्था का मेरुदण्ड दण्ड व्यवस्था है। दण्ड ही सभी पर शासन करता है। ‘मनुृस्मृति’ में दण्ड को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

दण्डः शस्ति प्रजाः सर्वादण्ड एवाऽभिरक्षति।

दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर् वुधाः।।26

      अर्थात् दण्ड सभी प्रजाओं को कत्र्तव्याकत्र्तव्य का उपदेश देता है, दण्ड ही सभी ओर से रक्षा करता है। लोगों के सोने पर भी दण्ड जागता ही रहता है। विद्वान लोग दण्ड को ही धर्म कहते हैं। इस प्रकार दण्ड का सम्यक् पालन ही राजधर्म है।

      राजधर्म के सप्त अंगों में मित्र सबसे अन्त में आता है लेकिन यह अपने आप में विशेष महत्त्व रखता है। सभी कालखण्डों में राजनीतिक रुप से मित्र देश इत्यादि की महती भूमिका रही है। मित्र के सम्बन्ध में पंचतन्त्र में कहा गया है-

केनामृतमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्

आपदां च परित्राणं शोकसंतापभेषजम्।।27

      अर्थात् विपत्तियों से बचाने का साधन, शोक और मानसिक ताप का औषध अमृत तुल्य ‘मित्र’ ये दो अक्षर किसने बनाया यानि प्रजापति ने बनाया है। मित्र किसे बनाना चाहिए तो इस सम्बन्ध में भी पंचतन्त्रकार निर्देश करते हुए कहते हंै कि धनधान्य से पूर्ण रहते हुए समझदार मनुष्यों को मित्र बनाना चाहिए। देखों जल से परिपूर्ण समुद्र चन्द्रमा के उदय की प्रतिक्षा करता है।28 इन्हीं सप्तांग में राज्य सुख विराजता है। इनका सम्यक प्रकार से पालन ही राजधर्म कहलाता है। इसी के राष्ट्रिय और अन्ताराष्ट्रिय व्यापकता प्रदान करने के लिए षाड्गुण्य का भी गणना राजधर्म के रूप में किया जाता है। ये षड्गुण है- सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव, संश्रय। ‘पंचतन्त्र’ में सन्धि के अनेक नियम बतलाए गये हैं। सामान्यतः अपने से बलशाली राजा से मिलना ही सन्धि है। विष्णुशर्मा कहते हैं-

वैरिणा न हि संदध्यात्सुश्लिष्टेनापि संधिना।

सुतप्तमपि पानीयं शमयत्मेव पावकम्।।29

      अर्थात् अच्छी प्रकार सन्धि करने वाले भी अथवा सन्धि के द्वारा भी शत्रु के साथ मिलन करे। देखो, पानी अत्यन्त गरम होने पर भी अग्नि को बुझा ही देता है। शत्रु पर आक्रमण करना विग्रह है। अभिष्ट सिद्ध न होने पर उसको सिद्ध करने के लिए शत्रु पर आक्रमण करना यान है। अपनी रक्षा तथा शत्रु में फूट डालने की इच्छा से उचित स्थान पर रुके रहना आसन है। द्वैधीभाव दो शत्रुओं के बीच अपने को वाणी से समर्पित करना और मनःस्थिति को समझाना तथा फूट डालने से सम्बन्धित है। पंचतन्त्र में द्वैधीभाव के सम्बन्ध में कहा गया है-

अविश्वासं सदा तिष्ठेत्सन्धिना विग्रहेण च।

द्वैधीभावं समाश्रित्य पापशत्रौ बलीयसि।।30

      अर्थात् दुष्ट शत्रु के बलवान होने पर नीतिज्ञ पुरुष उसका विश्वास न करते हुए द्वैधीभाव के द्वारा यानि कभी सन्धि और कभी युद्ध का अभिनय करें। जब दो बलवान शत्रु आक्रमण के लिए तत्पर हो तो उसे उस समय अधिक बलवान् शत्रु का आश्रय लेना  संश्रय कहलाता है। इन छः गुणों संयुक्त राजा होता है। वही राजा राज्य की व्यवस्था का ठीक प्रकार से संचालित करने में सक्षम माना जाता है। ‘पंचतन्त्र’ में तीर्थ शब्द का नाम आया है। यह तीर्थ शब्द बहुत ही पारिभाषिक शब्द है। यहाँ पर वह राजधर्म का प्रतिनिधित्त्व करता है। राजधर्म में तीर्थ का तात्पर्य राजपुरुष से है। ‘पंचतन्त्र’ में इसके सम्बन्ध में कहा गया है- तीर्थ शब्दे नायुक्तकर्माभिधीयते। तद्यदि तेषां कुत्सितं भवति तत्स्वामिनोऽभिघाताय, यदि प्रधानं भवति तद्वृद्धये स्यादिति।31

      अर्थात् तीर्थ शब्द से राजकार्य में नियुक्त पुरुष अभिप्रेत है। यदि वह तीर्थ शत्रुपक्ष में मिला हुआ विश्वासघाती है तो वे स्वामी के विनाश का कारण होता है और यदि वही श्रेष्ठ हो तो उन्नति का कारण बनता है। इसलिए राज्य को तीर्थों के विषय में जानना आवश्यक है। जिसके सम्बन्ध में कहा गया है-

यस्तीर्थानि निजे पक्षे परपक्षे विशेषतः।

गुप्तैश्चारैर्नृपो वेत्ति न स दुर्गतिमाप्नुयात्।।32

      अर्थात् जो राजा गुप्तचरों द्वारा अपने पक्ष के तथा विशेषकर शत्रु पक्ष के तीर्थों (राजपुरुषों) को जानता है वह दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है। यहाँ पर यह भी बताया गया है कि शत्रु पक्ष में 18 तीर्थ और अपने पक्ष में 15 तीर्थ होते हैं।33 शत्रुपक्ष के तीर्थ हैं- मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, द्वाररक्षक, अन्तःपुररक्षक, प्रशासक, मालगुजारी एकत्र करने वाला, पुरुषों का परिचय कराने वाला, न्यायाध्यक्ष, प्रजा की सूचनाओं अथवा आवेदन पत्र को राजा को बताने वाला (पेशकार), सेना का मुख्य अधिपति, हस्ति विभाग का अध्यक्ष, खजांची, किले का अधिकारी, करपाल, सीमापाल और प्रिय भृत्य। इनको कोई भी राजा अपनी ओर यदि मिला लेता है तो शत्रु राजा शीघ्र ही वश में हो जाता है। पंचतन्त्र में अपने तीर्थ के विषय में भी बताया गया है, ये हैं- राजपत्नी, राजमाता, अन्तपुर में रहने वाला वृद्ध ब्राह्मण, माली, शय्यारक्षक, गुप्तचरों का अध्यक्ष, ज्योतिषी, वैद्य, जल लाने वाला, पानदान ले चलने वाला, आचार्य, अंगरक्षक, राजमहल का रक्षक, छत्रधर, वेश्या। इनकी शत्रुता के द्वारा अपने वर्ग का विनाश हो जाता है। इसलिए पंचतन्त्र में कहा गया है-

वैद्यसांवत्सराचार्याः स्वपक्षेऽधिकृताश्चराः।

तथाऽऽहितुण्डिकोन्मत्ताः सर्व जानन्तिशत्रुषु।।34

      अर्थात् अपने पक्ष में वैद्य, ज्योतिषी और आचार्य को गुप्तचर के कार्य में नियुक्त करना चाहिए। सपेरे और उन्मत्त का वेश धारण करने वाले पुरुष शत्रुओं के सब स्थिति को जानते हंै। शत्रु भेद जानने के लिए गुप्तचर बनाना श्रेयस्कर है। इनके विषय में किसी को सन्देह नहीं होता है। इन गुप्तचरों के कत्र्तव्य के विषय में भी कहा गया है-

कृत्वाकृत्यविदस्तीर्थेष्वन्तः प्रणिधयः पद्म्।

विदाङ्कुर्वन्तु महतस्तलं विद्विषदम्भसः।।35

      अर्थात् जिस प्रकार कार्य चतुर कारीगर लोग घाटो में उतरकर गहरे जल का भी थाह पा लेते हैं इसी तरह कार्य को समझने वाले गुप्तचर मन्त्री आदि 18 तीर्थों में अपना स्थान बनाकर, शत्रु पक्ष के तीर्थ का ज्ञान प्राप्त करें। ‘पंचतन्त्र’ निश्चित रूप से राजधर्म की समुचित व्याख्या करता है। राजधर्म के अनेक पक्षों के विषय में कथा-कहानियों के माध्यम से विष्णुशर्मा ने राजकुमारों को ज्ञान दिये हैं। जिसकी प्रासंगिकता आज भी दृष्टिगोचर होती है। शत्रुओं के प्रति व्यवहार का प्राचीन काल से ही उल्लेख प्राप्त होता है। आज भी सभी देश शत्रु देशों के व्यवहार से प्रताड़ित हैं। इसलिए सभी साहित्य शत्रु के विषय में सदैव वे प्रतिकार की बात करते हैं। यहाँ कहा गया है-

शत्रोर्विक्रममज्ञात्वा वैरमारभते हियः।

स पराभवमाप्नोति समुद्रष्टिट्टिभाद्यथा।।36

      अर्थात् जो अपने शत्रु के पराक्रम को समझकर विरोध करता है वह उसी प्रकार पराजय को प्राप्त होता है जैसे टिट्टिभ से समुद्र। ‘पंचतन्त्र’ में युद्ध का भी वर्णन किया गया है-

सन्दिग्धो विजयो युद्धे जनामामिह युद्धîताम्।

उपायत्रितयादूध्र्वं तस्माद्युद्धं समाचरेत।।36

      अर्थात् इस संसार में युद्ध करने वाले पुरुषों का विजय युद्ध में अनिश्चित होता है। इसलिए साम, दाम, भेद नामक तीनों उपायों के अनन्तर युद्ध करना चाहिए। युद्ध अन्तिम विकल्प है। युद्ध से सदैव बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि युद्ध से जन-धन की अत्यधिक हानि ही होती है। इसीलिए आचार्यों द्वारा युद्ध को तब तक टालने का प्रयास करना चाहिए जब तक सभी उपाय समाप्त न हो जाय। लेकिन यहाँ पर युद्ध से लाभ के विषय में भी कहा गया है-



भूमिर्मित्रं हिरण्यं वा विग्रहस्य फलत्रयम्।

नास्त्येकमपि यद्येषां विग्रहं न समाचरेत।।38

      अर्थात् राज्य, मित्र और धन ये तीन युद्ध के लाभ है। यदि इनमें से एक भी न हो, एक के भी प्राप्त होने की आशा न हो, तो युद्ध न करें। राज्य, मित्र और धन किसी भी राज्य के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं इसलिए यदि इनकी प्राप्ति की सम्भावना हो तभी युद्ध के लिए प्रवृत्त होना चाहिए, अनावश्यक युद्ध से बचना चाहिए। आजकल अनेक देशों में निरर्थक रूप से तनाव उत्पन्न कर दिया जाता है जो उचित नहीं है।

      इस प्रकार हम देखते हैं कि पंचतन्त्र में राजधर्म का व्यापक वर्णन किया गया है। जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी तत्कालीन समय में थी। यहाँ पर प्रतिपादित राजा, मन्त्री, राज्य, कोश, दुर्ग, दण्ड और मित्र के साथ-साथ सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीयाव, संश्रय तथा साम, दाम, दण्ड, भेद आदि बहुत ही प्रासंगिक है। पंचतन्त्र में तीर्थ का भी वर्णन आया है जो राजपुरुष से सम्बन्धित है। यह तीर्थ राजव्यवस्था का रीढ़ है। जिसे अनिवार्य रूप से समझना चाहिए। शत्रु से सदैव प्रतिकार लेने का परामर्श पंचतन्त्र देता है लेकिन युद्ध तभी श्रेयस्कर मानता है जब युद्ध से लाभ निश्चित हो। पंचतन्त्र के राजधर्म की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि आज भी यह किसी न किसी रूप में प्रासंगिक बना ही रहता है। इसलिए हम कह सकते हैं  कि पंचतन्त्र का राजधर्म प्रासंगिक और महत्त्वशील है।  



सन्दर्भ

1.        पंचतन्त्र, कथामुखम्, श्लोक 9 के अनन्तर

2.        महाभारतं, 12/110/11

3.        पंचतन्त्र, कथामुखम्, 2- मनवे वाचस्पतये शुक्राय पराशराय ससुताय।

                     चाणक्याय च विदुषे नमोऽस्तु नयशास्त्र कर्तृभ्यः।

4.        अर्थशास्त्र, 6/1

5.        पंचतन्त्र, कथामुखम्, श्लोक 3 के अनन्तर,

6.        वही, मित्रभेद, 247

7.        वही, मित्रभेद, 243, 248

8.        मनुस्मृति, 7/11

9.        अर्थशास्त्र, 1/7

10.      पंचतन्त्र, मित्रभेद, 137

11.      वही, मित्रभेद, 171

12.      अथर्ववेद, 12/1/12

13.      वही,

14.      मनुस्मृति, 7/113

15.      अर्थशास्त्र, 2/1

16.      पंचतन्त्र, कथामुखम्, श्लोक 3 के अनन्तर

17.      वही, काकोलूकीयम्, 39

18.      वही, 34

19.      याज्ञवल्क्यस्मृति, 1/321

20.      पंचतन्त्र, मित्रभेद, 255

21.      वही, 251-252

22.      वही, 8

23.      मनुस्मृति, 7/127-133

24.      रघुवंश, 1/18

25.      महाभारत, उद्योगपर्व, 34/17-18

26.      मनुस्मृति, 7/18

27.      पंचतन्त्र, मित्रसम्प्राप्ति, 61

28.      वही, 28

29.      वही, 31

30.      वही, काकोलूकीयम्, 61

31.      वही, 68 के अनन्तर गद्यांश

32.      वही, 67

33.      वही, 68

34.      वही, 69

35.      वही, 70

36.      वही, मित्रभेद, 337

37.      वही, काकोलूकीयम्, 12

38.      वही, 15

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