Saturday, 12 July 2025
डॉ.इन्द्रचन्द्र शास्त्री
साहित्य एवं संस्कृति के तात्विक विवेचक स्वतन्त्रता सेनानी इन्द्रचन्द्र शास्त्री
(जयन्ती विशेष -27 मई)
डॉ सञ्जय कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
स्वतंत्रता सेनानी एवं संस्कृत विद्या के समुपासक डॉ.इन्द्रचन्द्र शास्त्री का जन्म 27 मई,1912 ई .को हरियाणा के सिरसा जिला के डबवाली ग्राम में हुआ था | शास्त्री जी के पिता का नाम श्री लाल बीरबल दास सिंगला और माता का नाम श्रीमति आशा कौर था | यह वही समय था जब देश की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाने की बात चल रही थी और स्काटहोम स्वीडन में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेल का आयोजन किया जा रहा था, साथ ही भारत सरकार अधिनियम 1912 जिसमें कई नवीन राज्यों की स्थापना आदि महत्वपूर्णकार्य भीउसी समय किए गए थे | यदि साहित्य की बात की जाए तो गीतांजलि की भावप्रवणता से पूरा विश्व परिचित हो चुका था| भारतीय साहित्य चेतना एक बार पुनःविश्व को अनुरंजित कर रही थी | ऐसे समय में शास्त्री जी का जन्म होता है | शास्त्री जी परतंत्रता की पीड़ा को बहुत समीप से देखे थे , वे देश, समाज, संस्कृति , अशिक्षा और बेरोजगारी की समस्या से अवगत थे जिसका मूल कारण परतन्त्रता को ही मानते थे || परतन्त्रता मनुष्य के लिए अभिशाप स्वरूप है जिससे मूक्त होना मानव का कर्तव्य है| शास्त्री जी भारतीय जीवनचार्या से बहुत प्रभावित थे, चारो ओर आपसी प्रेम, सद्भाव ही उस परतन्त्रता के काल में सबका संरक्षक बना हुआ था | लेकिन भारतीयों के दु:ख और पीड़ा को देखकर वे बहुत द्रवित भी रहते थे | इसलिए वे महात्मा गांधी से प्रभावित होकर के स्वतंत्रता आंदोलन में केवल सम्मिलित ही नहीं हुए बल्कि देश की स्वतंत्रता में अपना अमूल्य योगदान भी दिए | डॉ.इन्द्र चन्द्र शास्त्री बीकानेर, आगरा विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आदि से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त किये थे जिसका सकारात्मक पक्ष भी उनके जीवन में दिखाई पड़ता है | उनका मानना था कि शिक्षा सर्वस्व है इसलिए सभी मनुष्य को शिक्षा मिलनी चाहिए | तथा यह भी कहते थे की शिक्षा हमें केवल लिपियों का ज्ञान नहीं करती है बल्कि पूर्णरूप से मानव बनती है | यह मानव जीवन शिक्षा के द्वारा ही परिष्कृत होता है ,भारतीय संस्कृति जीवन्तता की संस्कृति है | वह पग -पग पर मनुष्य का केवल संस्कार ही नहीं करती है बल्कि उसके भावी जीवन को सुधारने का मार्ग भी प्रशस्त करती है |शास्त्री जी अपने समय के संस्कृत विद्वानों में अन्यतम थे | उनकी ज्ञान शक्ति और तेजस्विता से पूरा संस्कृत जगत् प्रभवित था | वे साहित्य - संस्कृति आलोचना के प्रतीक पुरुष थे | वे दार्शनिक और आलोचक दोनों थे| जितना अध्ययन उनका काव्यशास्त्र पर था उतना ही वे व्याकरण धर्मों समझते थे| बताया जाता है कि उन्होंने लगभग 70 पुस्तकें और 600 से अधिक शोध पत्रों का लेखन कार्य किया था | जिसमें से कुछ श्रेष्ठ ग्रन्थ इस प्रकार हैं- मानव और धर्म, भारत की आर्य भाषाएं , अपरिग्रह दर्शन, पालिभाषा और साहित्य, संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास, महाभारत के सूक्ति रत्न, आलोक और उन्माद, हमारी परम्परा, धर्म और राष्ट्र निर्माण, जैनिज्म एण्ड डेमोक्रेसी आदि | सभी ग्रन्थों भारतीय भाषा, साहित्य,धर्म ,संस्कृति पर गहन विचार किया गया है |भारत की संस्कृति जीवन के सभी क्षेत्रों में मनुष्य का संस्कार करने वाली संस्कृति है ,वह मनुष्य के सदैव चरित्र निर्माण, कर्म ,त्याग, परिश्रम पर बल देती है तथा उसे प्रोत्साहित करती है- उठो जागो और अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ो | विश्व अपना कुटुम्ब है| वे धर्म के विषय में स्पष्टवादी थे वे कहते थे कि धर्म का जन्म परस्पर सद्भावना और प्रेम को लेकर के हुआ है तथा राजनीति का शत्रुता ,शोषण ,उत्पीड़न और आक्रमण के लिए हुआ है | धर्म कर्तव्य को महत्व देता है और राजनीति अधिकार को इसलिए धर्म और राजनीति एक साथ नहीं चल सकते | वस्तुतः धर्म हमारे आचरण का विषय है जो पवित्रम जीवन व्यवहार की अपेक्षा रखता है |धर्म को स्पष्ट करते हुए एक आख्यान प्रस्तुत करते हैं कि महावीर जब तपस्या कर रहे थे देवराज इन्द्र उनके पास आए और कहने लगे भगवन आप इतना कष्ट क्यों कर रहे हैं? मैं अपने वज्र के बल से सारे संसार को आपका अनुयाई बना देता हूँ, सभी आपके चरणों पर नतमस्तक हो जाएंगे |भगवान महावीर ने उत्तर दिया अहिंसा में स्वयं इतनी शक्ति है कि उसे हिंसा का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है | हिंसा का सहारा लेने वाली अहिंसा अहिंसा नहीं रह जाती है| योग सूत्र में भी पतंजलि कहते हैं- अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर त्याग: | अर्थात् अहिंसा की दृढ़ स्थिति हो जाने पर योगी का सब प्राणियों से वैर भाव समाप्त हो जाता है और मनुष्य पशु आदि सभी से उसका शत्रु भाव समाप्त हो जाता है | वह किसी को भयभीत न करता है न होता है क्योंकि वह सबको अपना लेता है ,आत्मसात कर लेता है | उसके अन्दर मंगल बुद्धि आ जाती है ,वह साम्य बुद्धि वाला बन जाता है | यही मनुष्य जीवन का सुख है , इसलिए आध्यात्मिक परंपराओं में कथन है कि सुख का स्रोत स्वयं तुम्हारे भीतर है |
डॉ.शास्त्री जी धर्म एवं संस्कृति के ज्ञाता तो थे ही साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पद (1959 ई.) का कुशलता पूर्वक निर्वहन उनकी प्रशासनिक दक्षता को भी प्रमाणित करता है |अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के सचिव पद का सम्यक निर्वहन तथा 1957 ई.में ऑल इंडिया ओरिएंटल कॉन्फ्रेंस का भ सफलतापूर्वक आयोजन शास्त्री जी की कार्यकुशलता का परिचायक है| आप दिल्ली विश्वविद्यालय तथा अन्य रष्ट्रीय समितियों के सम्मानित सदस्य,अन्य प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करने वाले राष्ट्र सेवी पुरुष हैं | शास्त्री जी के अकादमिक योगदान के लिए भारत सरकार के द्वारा मरणोपरांत राष्ट्रपति सम्मान तथा दिल्ली सरकार के द्वारा मदनलाल खुराना पुरस्कार दिया गया है| दिल्ली विश्वविद्यालय के समीप शक्ति नगर में नगिया पार्क से गुजरने वाले मुख्य मार्ग का नाम डॉ.इन्द्र चन्द्र शास्त्री मार्ग रखा गया है | ध्यातव्य है कि भारत सरकार के डाक विभाग द्वारा 27 में 2004 को शास्त्री जी की स्मृति में 5 ₹ का डाक टिकट भी जारी किया गया था जो संस्कृत जगत् के लिए हर्ष का विषय है|
इस प्रकार डॉ.इन्द्र चन्द्र शास्त्री अनवरत संस्कृत विद्या , साहित्य,दर्शन की उपासना करते रहे और नित नूतन साहित्यिक, सांस्कृतिक ,वैयाकरणिक और दार्शनिक विषयों को बहुत ही सहज भाषा में प्रकाशित करते रहे, जिससे विद्वानों को सुख तो मिलता ही था साथही भारतीय सांस्कृतिक विरासत की पहचान विश्व पटल बनती रहती थी| साहित्य और संस्कृति का निरंतर में परिष्कार कर मनुष्य में श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का आधान कराना उनके जीवन का लक्ष्य था,उनका एक सुन्दर भारत वर्ष बनाने का स्वप्न था जहाँ लोग निरापद जीवन यापन करें | लेकिन अपने स्वप्न को अकादमिक वंशजों के ऊपर छोड़कर 3 नवंबर 1986 ई.को अपने भौतिक शरीर को त्याग कर यश: शरीर को अंगीकार कर लिए| ऐसी पूण्य आत्मा की जयन्ती विशेष पर शत शत नमन........
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