Wednesday, 1 October 2025

भाषा और साहित्यधर्मी प्रो. सत्यव्रत शास्त्री

भाषा और साहित्यधर्मी प्रो. सत्यव्रत शास्त्री ( जयन्ती विशेष 29 सितम्बर ) डा. सञ्जय कुमार सह आचार्य - संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय , दिल्ली-110007 मो.न. 8989713997, 9450819699 ईमेल - s_kumar@sanskrit.du.ac.in संस्कृत भाषा एवं साहित्य के प्रतिष्ठापक प्रो. सत्यव्रत शास्त्री का जन्म 29 सितम्बर सन् 1930 ई. में होशियारपुर जनपद के अहियापुर नामक ग्राम में हुआ था । कुछ लोग इनका जन्म स्थान लाहौर भी मानते हैं | इनके पिता का नाम डॉ. चारुदेव शास्त्री था जो संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान् थे | उन्हें 'अभिनव पाणिनि' की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है | डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का अध्ययन संस्कृत भाषा के प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों पद्धतियों से हुआ था । डा. शास्त्री की प्रारिम्भक शिक्षा में उनके पिता डॉ. चारुदेव शास्त्री का विशेष योगदान था | उन्होंने अपने पुत्र को केवल भाषा और साहित्य से ही समृद्ध नहीं किया था वल्कि भारतीय संस्कृति के वैभव से भी समलंकृत किया था , जिसका प्रभाव उनके लेखन और व्यक्तित्व में दिखलाई पड़ता है | स्कूली शिक्षा वाराणसी से संपन्न करने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने बी. ए. ( आनर्स) की परीक्षा उत्तीर्ण की थी वही से एम. ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की, जिसमें उन्हें प्रथम श्रेणी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था । तत्पश्चात् उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की थी । इनके शोध का विषय वाचस्पति मिश्र का भारतीय दर्शन में योगदान था | आपने विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, पंजाब विश्वविद्यालय, होशियारपुर में अध्यापन प्रारम्भ कर के सन् 1959 ई. में दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में अध्यापन कार्य के लिए नियुक्त हो गए , यही सह आचार्य , आचार्य , विभागाध्यक्ष तथा संकायाध्यक्ष के महत्त्वपूर्ण पदों को सुशोभित किया । साथ ही विश्वविद्यालय के विभिन्न अकादमिक समितियों के भी आप अध्यक्ष रहे हैं | इस प्रकार निरन्तर अध्ययन , अध्यापन और भारतीय साहित्य – संस्कृति में अनुसन्धान करते हुए विश्वविद्यालयी सेवा से 1995 ई. में सेवानिवृत्त हो गये लेकिन उनके अन्तस में भारतीय , साहित्य ,दर्शन ,धर्म और संस्कृति की जो गम्भीर अनुभूति व्याप्त थी उसे वे आजीवन हस्तामलकवत करते हुए आधुनिक संस्कृत की साहित्य गंगा को एक अभिनव सोपान पर स्थापित कर दिए | सन 20 13 ई . में भारत सरकार द्वारा शास्त्री जी को राष्ट्रीय संस्कृत आयोग का अध्यक्ष भी नियुक्त भी किया गया था | सन् 1983 से 1985 तक प्रो. सत्यव्रत शास्त्री जी श्रीजगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी ,उड़ीसा के कुलपति पद का भी निर्वहन किया है । उन्हें थाईलैण्ड में बैंकाक के चुलालौंकौर्न तथा सिल्पाकौर्न विश्वविद्यालय तथा नोंखाई के उत्तर-पूर्वी बौद्ध विश्वद्यिालय, जर्मनी में टयूबिंगन के टयूबिंगन विश्वविद्यालय, बैल्जियम में ल्यूवेन के कैथोलिक विश्वविद्यालय तथा कनाडा में एडमण्टन के अल्बर्टा विश्वविद्यालय, यानि चार महाद्वीपों के छः विश्वविद्यालयों में अभ्यागत आचार्य के रूप में कार्य करने का आपको सौभाग्य भी प्राप्त है । सन् 1982-83 के लिये इन्हें यू.जी.सी. का नेशनल लेक्चरर भी नियुक्त किया गया था । डॉ. सत्यव्रत शास्त्री सरीखे बहुत कम लोग होगें जिनके पिता और उन्हें दोनों को राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त हुआ है | इसके अतरिक्त पंजाब सरकार का शिरोमणि संस्कृत साहित्यकार सम्मान तथा उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान का विशिष्ट संस्कृत साहित्यकार पुरस्कार प्राप्त किया । इन्हे संस्कृत अकादमी दिल्ली से पण्डितराज जगन्नाथ पद्यरचना पुरस्कार, मुम्बई से पण्डिता क्षमाराव पुरस्कार, कालिदास अकादमी से कालिदास, के. के. बिड़ला फाउण्डेशन, नई दिल्ली से वाचस्पति पुरस्कार, आदि पुरस्कार इनके साहित्यिक योगदान के लिए प्रदान किए गए हैं | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शास्त्री जो को 2006 ई. साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से भी सम्मानित किया गया था | संस्कृत के क्षेत्र यह पुरस्कार पाने वाले वे प्रथम संस्कृत विद्वान् थे | साथ ही पद्म भूषण और पद्म श्री सम्मान से भी इन्हे सम्मानित किया गया था | डा. सत्यव्रत शास्त्री वचपन से ही बहुत मेधावी थे , उन्हें भारत की परतंत्रता की गहरी पीड़ा थी , वे अपनी आखों से स्वतंत्रता पूर्व भारत की स्थिति को देखे थे , वे बेरोजगारी ,अशिक्षा के लिए वे चिंतित रहा करते थे , भारत कृषि प्रधान देश है इसलिए वे कृषकों के भी बड़े हिमायती थे | उनके चिन्तन में साहित्य विलसता था | वे साहित्य को अपने जीवन के अंग के रूप में देखते थे उनका मानना था कि साहित्य ही मनुष्य के अन्दर नया राग – रंग उत्पन्न करता है | संयोग बस शास्त्री जे से हमारा मिलना 2009 ई. में हुआ था | वे उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पूर्व छात्र सम्मलेन के कार्यक्रम में उपस्थित हुए थे | मुझे स्मरण है कि वे अपने वक्तव्य कालिदास के काव्य धर्म पर बात कर रहे थे कि कालिदास केवल कवि नहीं हैं वे एक बड़े आचार्य भी थे | उन्होंने केवल काव्य का प्रणयन ही नहीं किया है अपितु काव्य धर्मों का सम्यक निर्वाह भी किया है | रस ,अलंकार ,ध्वनि, वक्रोक्ति ,रीति ,वृत्ति, औचित्य आदि सबका शुभारम्भ करने वाले कालिदास ही थे | सभी आचार्यों ने अपने सिद्धांत कालिदास से ग्रहण किये हैं | कालिदास का वागर्थ ही शब्दार्थ है ,उनके महाकाव्य और नाटक ही परवर्ती आचार्यों के काव्य धर्म बन गए हैं | प्रो.शास्र्त्री जी के साहित्य सर्जना की बात की जाय तो वह अत्यन्त विपुल है | भारतीय साहित्य के नवीन चिन्तक के रूप में इन्हें सदैव याद किया जाता है | यह केवल किसी एक विधा के कवि नहीं हैं नहीं थे अनेक विधाओं पर आपके लेखन कार्य हैं | डॉ. शास्त्री की मौलिक काव्यकृतियों में महाकाव्य - श्रीबोधिसत्त्वचरितम्, इन्दिरागाँधिचरितम्, श्रीरामकीर्तिमहाकाव्यम् तथा अनेक खण्डकाव्यों के रूप में वृहत्तरभारतम् , थाईदेशविलासम् , शर्मन्यदेश: सुतरां विभाति , गुरुगोविन्दचरितम् एवम् षड्ऋतुवर्णनम् , भवितव्यानम् द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र आदि महत्वपूर्ण काव्य कृतियाँ है | इनके द्वारा पत्र काव्य का भी प्रणयन किया गया है जिसमें विभिन्न विद्वानों को लिखे गये पत्रपद्यों का संग्रह है | दिने दिने याति मदीयजीवितम् नामक इनकी दैनिंदनी भी प्रकाशित है | वृहत्तरभारतम् खंडकाव्य में कम्भोज आदि देशों के सांस्कृतिक जीवन का विशद चित्रण किया गया है | सत्यव्रत शास्त्री जी महात्मा बुद्ध से बहुत प्रभावित दिखलाई पड़ते हैं | उन्होंने बुद्ध का सन्देश देते हुए कहा है – ध्येयं समस्तजगतः क्षणभङ्गुरत्वं दुःखास्पदत्वमरसत्वमसुस्थिरत्वम् । प्रेयो विहाय परमार्थरताः प्रकामं श्रेयस्करं कुरुत कर्म गुणाभिरामम् ।। (श्रीबोधिसत्त्वचरितम्, 12/13 ) अर्थात् समस्त संसार की क्षणभंगुर ता, दुःखास्पदता, नीरसता तथा अस्थिरता का चिंतन करना चाहिये और प्रेयस् या संसार के आकर्षण को त्याग कर पूरी तरह गुणों के कारण सुंदर श्रेयस्कर कर्म का चिंतन करना चाहिए | पंजाब की भूमि से सम्न्धित होने के कारण गुरुगोविन्द सिंह के प्रति सहज ही उनके मन में आदर विद्यमान था | उनके दोनों पुत्रों को जीवित भूमि में दफना दिये जाने का वृत्तांत अत्यंत कारुणिक है । गुरु का एक अन्य पुत्र चमकौर साहिब के ऐतिहासिक युद्ध में मात्र चालीस सिखों की सेना लेकर प्राणांतक युद्ध करता है। युद्ध के लिये प्रयाण हेतु पिता से आज्ञा माँगते हुए उसका कथन कवि के सहृदयता के रूप में द्रष्टव्य है - क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । अतोनुजानीहि रिपोश्चमूनां त्रासाय नाशाय च मां पितस्त्वम् ।। ( गुरुगोविन्दचरितम्, 4.19) अर्थात् जो क्षत से रक्षा करे उसके लिये उदग्र क्षत्रिय शब्द संसार में रूढ़ है। इसलिये हे पिता मुझे शत्रुसेना के त्रास और नाश के लिये आप आज्ञा दीजिये। इन्दिरागान्धीचरितम् महाकाव्य में इन्होंने गाँधी जी के स्वातन्त्र्यसंग्राम में अवदान तथा नेहरू परिवार की उसमें संलग्नता का विशद चित्रण महाकाव्यकार ने किया है। शांतिनिकेतन के वर्णन में उदात्तता, शांति तथा सौंदर्य का संगम हुआ है। शांतिनिकेतन आदि का विस्तृत वर्णन महाकाव्य में किया गया है |रामकीर्तिमहाकाव्यम् थाई देश की रामकथा पर आधारित है। जिससे थाई देश में रामकथा की लोक परम्परा विशेष ज्ञान प्राप्त होता है | शास्त्री का आलोचना साहित्य भी बहुत व्यापक है | उन्होंने वाल्मीकीय रामायण का भाषा विषयक अध्ययन ,आधुनिक संस्कृत साहित्य में कालिदास , कालिदास में नव खोज , आदि महत्वपूर्ण आलोचना ग्रन्थ हैं | इनके व्यक्तित्व- कृतित्व से सम्बन्धित अनेक विश्वविद्यालयों एक दर्जन से अधिक शोध कार्य भी हुए हैं | इस प्रकार प्रो. सत्यव्रत शास्त्री निरन्तर विना थके सरस्वती के समाराधन में संलग्न रहे और नित नूतन साहित्य सृजन से संस्कृत जगत् को आलोकित करते रहे लेकिन 14 नवम्बर , 2021 ई. का एक ऐसा कुदिन आया कि साहित्य के इस रत्न ने अपने यश: शरीर को प्राप्प्त कर लिया | ऐसे विद्वत् व्यक्तित्त्व को उनकी जयन्ती पर मैं स्व भाव स्वरूप शब्दांजलि अर्पित करता हूँ |

No comments:

Post a Comment