Wednesday, 1 October 2025

संस्कृत -संस्कृति के संवर्धक डॉ. शिवशंकर सिंह यादव

संस्कृत -संस्कृति के संवर्धक डॉ. शिवशंकर सिंह यादव ( द पूण्य स्मरण - 30 सितम्बर , ) वेद वेदांग के अध्येता ,भारतीय धर्म एवं संस्कृति के समुपासक, संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए सदैव समर्पित तथा विद्यार्थियों की प्रति सहज कृपासिंधु डॉ.शिवशंकर यादव जी का इस धरा- धाम पर प्रादुर्भाव उस समय हुआ जब भारत अपनी स्वतंत्रता पाकर हर्षित और आनंदित था ,चारों ओर स्वराष्ट्र की भावना जागरित थी और संविधान अंगीकार करने के लिए भारत तैयार था | इसी स्वतंत्रता की चेतना काल में 2 जनवरी 1950 ई को स्वर्गीय श्री मारकंडेय यादव के आनन्द मन्दिर हुसैनपुर- भीमापार -गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश में डॉ.शिवशंकर सिंह यादव का जन्म हुआ | साधारण परिवार में जन्म लेने पर भी डॉ.यादव बचपन से ही बहुत मेधावी और विनम्र व्यक्तित्व से मंडित थे |आपकी प्रारंभिक शिक्षा उचौरी- भीमापार और स्कूली शिक्षा सादात - गाजीपुर ,उ.प्र. से ससम्मान अंकों के साथ संपन्न हुई | ज्ञान की पिपासा ने आपको काशी जाने के लिए बाध्य कर दिया | फलस्वरुप आप स्नातक, स्नातकोत्तर और पी-एचडी. की उपाधि 'वैदिक स्वर प्रक्रियाओं का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्राप्त कर 1978 ई.में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा संस्कृत व्याख्याता के पद पर राजकीय महाविद्यालय चरखारी हमीरपुर उ. प्र. में चयनित हो गए | तदोपरांत रीडर बन कर राजकीय महाविद्यालय धानापुर चन्दौली उ. प्र. आ गये जहाँ अपने कुशल प्रशासनिक अनुभव के कारण प्राचार्य पद के दायित्व का भी निर्वाह किये थे | सफलता का पग आगे बढ़ता गया और अपने लगन और कर्तव्य पालन के निष्ठा से समन्वित डॉ शिवशंकर यादव बबराला- गुन्नौर और लालगंज- मीरजापुर में अपनी सेवाएं देने के बाद 2009 ई. में राजकीय महाविद्यालय महरौनी - ललितपुर उ. प्र. में स्थाई प्राचार्य नियुक्त हो गये और अपना सफलतम् कार्यकाल पूर्ण करने के पश्चात 2010 ईस्वी में आप सेवानिवृत हो गए | अध्ययन - अध्यापन के क्रम में आपके कई ग्रंथ और अनेक शोध पत्र प्रकाशित हुए जिनकी प्रशंसा भी आलोचक समाज के द्वारा की गई है | परंतु इन सबसे बढ़कर आपके अन्दर मानवता, सद्विचार ,सकारात्मक चिंतन और भारतीय धर्म -संस्कृति का जो बोध था वह एक महापुरुष के पर्याय रूप में था | डॉ. यादव जी का भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव था | उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति उर्ध्वमुखी गतिशीलता की संस्कृति है| यह व्यक्तित्व ,चरित्र और व्यवहार के परिष्कार के साथ एक स्वस्थ समाज की स्थापना करती है| मानव मात्र के लिए सुख, सहानुभूति ,दया, प्रेम ,हर्ष, उल्लास ,त्याग, धर्म आदि गुणों से यह दु:ख ,ईर्ष्या, द्वेष ,विषाद, अधर्म का समन करती है |यह व्यष्टि में नहीं समष्टि में विश्वास रखती है| भारतीय संस्कृति को संस्कृत का सम्बाहिका कहा जाता है | संस्कृत ही भारतीय साहित्य व समाज के भव्य विचारों का दर्पण है| यहां जीवन निर्वाह के लिए शास्त्र और साहित्य का मधुर सामंजस्य स्थापित है | वैदिक युग से प्रारंभ होकर आज तक के संस्कृत सरिता में भारतीय संस्कृति की मोती अपनी विमलता से संपूर्ण विश्व के लोगों को केवल आकर्षित ही नहीं की है बल्कि स्वयं को धारण करने की प्रेरणा भी प्रदान कर रही है | संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक ,उपनिषद् ,आर्ष काव्य, महाकाव्य, गद्यकाव्य, नाटक आदि सभी भारतीय संस्कृति के प्राण प्रतिष्ठापक हैं| इनके वर्ण - वर्ण में भारतीय संस्कृति का कण-कण ध्वनि होता है | तत्वज्ञान और यथार्थ चिंतन की पद्धति से संबंधित भारतीय संस्कृति में आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष का विलक्षण स्वरूप प्रतिपादन किया गया है| श्रीमद्भागवद्गीता , ब्रह्मसूत्र, विष्णुसहस्त्रनाम, अनुगीता, भीष्मवत्सराज ,गजेंद्रमोक्ष जैसे आध्यात्मिक तथा भक्तपरायण आदि ग्रंथों से भला कौन परिचित नहीं है | जिसके आध्यात्मिक निबंधन में संपूर्ण विश्व समाहित है| वस्तुत:भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक है, इसकी आध्यात्मिकता भौतिकता के सागर में निमग्न मानव में त्याग, धैर्य, कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध कराती है जो सत्यम् शिवम् सुंदरम् का रूप धारण कर लेती है | इसीलिए भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत और संस्कृति में ही मानी जाती है- भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिश्च | विद्या को वे ज्ञान स्वरूप मानते थे | विद्या वह जो अज्ञान का नाश नाश करें | इसमें किसी प्रकार का आडम्बर नहीं होना चाहिए | यह अज्ञान विरोधी प्रकाश स्वरूप है | जिसके भाव में अज्ञान का स्वत: अभाव हो जाता है | ज्ञान के अनुष्ठान से मनुष्य अमरता यानि मोक्ष को प्राप्त करता है | मनुष्य जब ज्ञान की ओर उन्मुख होता है तो वह परा विद्या को प्राप्त आत्मा का ज्ञान प्राप्त करता है |आत्मा का ज्ञान ही मोक्ष है और मोक्ष ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है | मनुष्य को साधना के क्षेत्र में आडम्बर से बचना चाहिए , आडम्बर ज्ञान का बाधक है |जो जितना अधिक आडम्बर करता है वह उतना ही ज्ञान से दूर हो जाता है | डॉ. शिवशंकर सिंह यादव जी कर्म के प्रति बहुत विचारवान थे | उनका मानना था कि व्यक्ति को पवित्र मन से अपना कार्य करना चाहिए |कार्य करना ही मनुष्य की पूजा है, ईश्वर हमारा जन्म किसी भी जाति, वंश में नियोजित करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन कर्म करने की स्वतंत्रता अपनी है | हम अपने कर्म से अपने पौरुष के निर्माता स्वयं हैं | इसलिए विना निराश हुए मनुष्य को केवल कर्म करना चाहिए और सत्य को धारण करना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ मूल्य है | सत्य से सम्बलित आचरण ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है| मनुष्य विचारशील प्राणी है इसलिए उसके सभी कार्य में एक विचार परिलक्षित होना चाहिए |यह जीवन अमूल्य है ,इसलिए मनुष्य जितना इस जीवन में सीख सके और समझ सके उतना ही उसका भविष्य सुंदर एवं निरापद बनता है | मनुष्य धैर्य, क्षमा, सत्य, प्रेम, हर्ष ,जितेंद्रीय र्और त्याग का साक्षात मूर्ति है | उसे सदैव इन्हें धारण करना चाहिए तथा त्याग पूर्वक जीवन जीने की कामना रखनी चाहिए| जो सुख त्याग में है वह सांसारिक उपभोग में कदापि नहीं मिल सकता है | ऐसे महनीय व्यक्तित्व के धनी डॉ शिव शंकर सिंह यादव अचानक 30 सितंबर 2023 को इस धरा- धाम को छोड़कर हमेशा- हमेशा के लिए ईश्वरीय विधान के कारण स्वर्ग लोक में ही रहने का निश्चय कर लिए |

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