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Saturday, 3 September 2022
रामजी उपाध्याय विनिबंध पुस्तक ही नहीं ज्ञान सेतु भी
** ISSN 2475-1359 **
* Bilingual monthly journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक मासिक *
‘रामजी उपाध्याय’ विनिबंध पुस्तक ही नहीं, ज्ञान-सेतु भी
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी |
- कन्हैया त्रिपाठी
लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी का दायित्व निभा चुके हैं एवं सेतु संपादन मंडल के सम्मानित सदस्य हैं। आप अहिंसा आयोग के समर्थक एवं अहिंसक सभ्यता के पैरोकार भी हैं।संस्कृत साहित्य विपुल है, और विभिन्न विधाओं में संस्कृत में लेखन पाठक और पुस्तक के बीच पाठ का सेतु बनाते आये हैं। इसके एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रामजी उपाध्याय भी संस्कृत साहित्य में रहे हैं। सञ्जय कुमार की साहित्य अकादमी से प्रकाशित पुस्तक भारतीय साहित्य के निर्माता: रामजी उपाध्याय पढ़ते हुए यही प्रतीत होता है। यह एक बिनिबंध है जिसे साहित्य अकादमी ने बहुत ही सुन्दर लकेवर में उनकी छवि सहित प्रकाशित किया है।
बतौर लेखक सञ्जय कुमार ने स्वयं इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि रामजी उपाध्याय आधुनिक संस्कृत साहित्य परम्परा के प्रमुख रचनाकार हैं, जिनकी कृतियों में स्त्री समाज, चरित्र निर्माण, जीवन संघर्ष, पर्यावरण तथा आकाँक्षाओं के संवेदना को प्रवण दृष्टि के रूप में अभिव्यक्ति मिली है। कोई भी रचनाकार अपने समय के औचित्य तथा मुद्दों से प्रभावित होता है और अपनी संवेदना से समय के साथ प्रश्न करता है। सर्जक उस सत्य का खोज करता है अपनी रचना में जो किसी न किसी कारण से दूसरों के लिए पहेली बना होता है। सञ्जय कुमार ने भी अपनी पुस्तक में इसी सत्य की खोज अपने बिनिबंध में किया है। इस पुस्तक में एक महान संस्कृतविद के रचना-प्रक्रिया और उसके सृजन पर बेबाक तरीके से पड़ताल की गई है। रामजी उपाध्याय के उन पहलुओं को इस पुस्तक में उजागर किया है जो शायद संस्कृत पाठकों के बीच कुतूहल के विषय थे।
भारतीय साहित्य के निर्माता रामजी उपाध्याय में सञ्जय जी ने पूरे विनिबंध को सात अध्यायों में विभक्त करके पूरी पुस्तक को तैयार किया है। जिसमें वह रामजी उपाध्याय की साहित्यिक अभिरुचि एवं आधुनिक संस्कृत विकास यात्रा का अवलोकन किया है तो दूसरे अध्याय में रामजी उपाध्याय के जीवन के पूरे रचनाधर्मी व्यक्तित्त्व पर प्रकाश डाला है। तीसरे से छठे अध्याय में क्रमशः रामजी उपाध्याय के गद्य साहित्य, नाट्य साहित्य, आलोचना साहित्य, समाज दर्शन को रेखांकित किया गया है। इस विनिबंध का सातवाँ अध्याय नवीन उद्भावनाओं और उन विशिष्टिताओं को प्रकट करते हुए खुद सञ्जय जी ने लिखा है कि विश्व साहित्य इनसे (रामजी उपाध्याय जी से) प्रभावित हुआ है।
विनिबंध में सुंदर भाव में सृजित पुस्तक का सारांश, निःसंदेह इस पुस्तक की कलात्मकता को प्रस्तुत करता है। कुल 114 पृष्ठों में रची गयी यह एक सुंदर कृति अब पाठकों के बीच आई है तो निश्चित ही पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल करेगी। और करे भी क्यों नहीं? वस्तुतः कोई भी पुस्तक अपने बुनावट और शिल्प के आधार पर पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती है और सञ्जय कुमार जी की मेहनत और उनका श्रेष्ठ श्रम इस पुस्तक में जो लगा है उससे यह पुस्तक गंभीर बन पड़ी है। इसमें शोध और बोध दोनों का समन्वय मिलता है जिससे भाषागत इसकी समृद्धता भी दिखती है और पाठक एक बार में सम्पूर्ण पुस्तक का रसास्वादन करना पसंद करेगा।
मदनमोहनमालवीयकीर्तिमंजरीनाटकं, नंदगौतामीयम, कैकेयी-विजयं, सत्यहरिश्चंद्रोदयम और दासुपर्णा के माध्यम से रामजी उपाध्याय के समाज दर्शन की सुन्दर मीमांसा सञ्जय जी ने अपनी इस छोटी सी पुस्तक में की है जो न केवल दृष्टान्तों के साथ एक सजग विश्लेषण की अभिव्यक्ति है बल्कि लेखक के भी बौद्धिक विचार-संरचना की समृद्धता को अभिव्यक्त करता है। लेखक ने रामजी उपाध्याय के व्यक्तित्त्व को परखते हुए उनके उन रचनाओं पर विहंगम दृष्टि डालने की कोशिश की है ताकि वह उनके सूक्ष्म और सार्वभौम चिन्तन के साथ व्यक्तित्व को अभिव्यक्त कर सके।
भारत के वैदिक साहित्य और भारतीय वांग्मय के अन्य साहित्य हमारे लिए अभी भी पहुँच से बाहर हैं। इसकी मुख्य वजह मेरी दृष्टि से संस्कृत साहित्य और संस्कृत भाषा के साथ आम लोगों का तादात्म्य नहीं बन पा रहा है। यदि आज आंग्ल भाषा लोगों की जरूरत भाषा बन गयी है और भारत की अनेकों भाषाएँ अपने क्षेत्रीय पहचान बनकर अपना अस्तित्व खोज रही है और भारत को जोड़ने वाली एक मात्र भाषा हिंदी भारत में रह गयी है तो सञ्जय कुमार जी ने जो हिंदी में इस विनिबंध का नियोजन, लेखन, शोध और साहित्य सृजन किया है, तो निश्चित रूप से यह पुस्तक भारत के अधिकांश पाठकों के हाथों में जाएगी और लोग इसे पढ़कर संस्कृत साहित्य के संवेदनशील लेखक रामजी उपाध्याय के बारे में, उनके रचनाओं के बारें जान सकेंगे, यह सबसे अच्छी बात है।
आधुनिक संस्कृत साहित्य में नए विमर्शों को लेकर रामजी उपाध्याय चर्चा के केंद्र में रहे हैं और उन्होंने विभिन्न एपिक रचनाओं के साथ गाँधी जैसे महान व्यक्तित्व को भी अपने रचना के केंद्र में रखा। लेकिन वे विषय और व्यक्तित्व किस प्रकार आये हैं, उसका उद्घाटन तो इस विनिबंध में मिलेगा जो सञ्जय कुमार ने सृजित किया है।
सब मिलाकर यदि देखा जाए तो विनिबंध भारतीय साहित्य के निर्माता रामजी उपाध्याय एक समृद्ध चिन्तन का परिणाम है। मेरी दृष्टि से इसे प्रत्येक पाठक को पढ़ना चाहिए और उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो संस्कृत साहित्य से अनुराग रखते हैं और संस्कृत रचनाकारों के बारे में कुछ जानना चाहते हैं। यह मैं बहुत दावे के साथ कह सकता हूँ कि सजग, सहज और संस्कृतनिष्ठ भाषा से परिपूर्ण यह विनिबंध न केवल संग्रहणीय है अपितु अपने ज्ञानानुशासन में यदि नई दृष्टि के साथ कोई कुछ सृजित भी करना चाहता है तो भी इस पुस्तक का अवलोकन किया जाना चाहिए।
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